लोकपर्व खतडु़वा - कुमाऊँ में खत्म होती परंपरा
"खतडु़वा" कुमाऊँ का एक प्रमुख त्योहार रहा है जो आश्विन मास की प्रथम तिथि या १ गते को (१५ सितम्न्बर के आस पास) मनाया जाता है। खतडु़वा एक प्रकार से पहाड़ों में शीत ऋतु के आरम्भ की घोषणा करता है। इसके नाम के सम्बन्ध में जो भी विवाद हों, पर इस त्योहार के बारे में बचपन में हमारे बुजुर्गों ने जो बताया था, कि "खतड़ु बटि खातड़ भर जाड़ शुरू है जाँ" अर्थात खतडु़वा के दिन तक सर्दी इतनी हो जाती है कि रजाई (कुमाऊंनी भाषा में खातड़) ओढ़ने की आवश्यकता पड़ जाती है। वैसे वर्षा ऋतु की समाप्ति तथा शीत के आगमन के रूप में इस पर्व का मनाया जाना ही एक मात्र कारण है। ज्योतिष/खगोल शास्त्र के अनुसार सूर्य इस दिन से वृश राशि में प्रवेश कर जाता है तथा इस समय पहाड़ो में बारिश का प्रकोप समाप्त होकर सरदी दस्तक देने लगती है।
"खतडु़वा" में जिस प्रकार शाम के समय प्रतीकात्मक रूप से एक पुतले को आग लगाकर जलाया जाता है, वह बोनफ़ायर या पंजाब में मनायी जाने वाली लोहड़ी का आभास कराता है। अंतर बस इतना है कि लोहड़ी का त्योहार शीत ऋतु के समय मनाया जाता है जबकि इसे पहाड़ो पर शीत ऋतु के आगमन पर मनाया जाता है। पर दोनों में ही सर्दी को दूर करने के लिए शाम को खुले में आग जलाकर एक सामूहिक आयोजन किया जान शामिल है। इस त्योहार का कोई विशेष विधि विधान भी नही है तथा यह छोटे मुख्यतया गांव/मुहल्ले के बच्चों/किशोरों द्वारा बड़े उत्साह से मनाया जाता है। बच्चे सूखी लकड़ियों तथा सूखी घास को एकत्र करते हैं जिससे फ़िर वह खतडु़वा का पुतला बनाते हैं। पुत्तले को बनाने में घर में पड़े जलाऊ कुड़े जैसे टुटे फ़र्नीचर, लकड़ी का बेकार सामान और पुराने कागज आदि को भी ले लिया जाता है। यह सब स्थान के अनुसार उलब्धता पर निर्भर करता है, वैसे गाँवों में सूखी घास-पत्तियों और पिरूल का उपयोग किया जाता है।
बच्चों के लिए भांग के पौधे की डंडी (बिना अनुमति भांग पेड़ उपयोग कानूनी नहीं है) के साथ फूल पत्तों से एक झाड़ूनुमा गुच्छा जिसे गाँव में भैलोची कहते हैं, बनाया जाता है। बच्चे उसे एक हाथ लेकर और दूसरे हाथ में तोड़ी हुई हरी ककड़ी लेकर गाते हैं:
'भैलोची भैलो...'
बच्चों के साथ साथ मशाल लिए हुए घर के युवा कर वरिष्ठ लोग भी गीत गाते हैं:
'गै ले जीती खतड़ ले हारी...'
"चल खतड़ुवा धारे-धार,
गै की जीत खतड़ुवे की हार"।
शाम को सुर्यास्त के बाद घर के सभी लोग एक छिल्लुक (चीड़ की लकड़ी का रेजिन वाला भाग) का बना मुछयाव या रांक(मशाल) बनाते है जिसे घर तथा गौशाला (गोठ) के कोने कोने त्तथा पशुओं व छोटे बच्चों के उपर से घुमाकर पुतले के पास लाया जाता है। इसके बाद सब मशालें खतड़ुवे में झोंककर आग लगा दी जाती है। वह रावण के पुतले की तरह धू-धू कर जलने लगता है। उसमें हाथ से चुनकर ककड़ी के टुकड़े डाले जाते हैं। अगर गाय का गोठ आसपास हो तो ककड़ी को गाय बाँधने वाले लकड़ी के खूंटे (किला) पर मारकर तोडा जाता है। जिसका कुछ भाग आग में डालकर बाकि सभी को बांट दिया जाता है, बाकी ककड़ी को प्रसाद के रुप में घर ले जाते हैं।
खतड़ुवा के पुतले में आग लगते ही बच्चों/किशोरों का उत्साह देखते ही बनता है और वह गाने लगते हैं सभी मस्त होकर आग के चारों ओर गाते और नाचते हुये चक्कर लगाने लगते हैं। इस समय बच्चों का उत्साह देखने लायक होता है, शाम कि हल्की सर्दी के समय आग के चारों ओर नाचते गाते बच्चों/किशोरों का समूह तब तक सक्रिय रहता है जब तक कि आग शान्त नही हो जाती है। जैसे ही लौ शान्त होती है, आग को हरी डालियों की भैलोची से पीटा जाता है। सभी आग के कोयलों के उपर से कुद्कर आग को लांघते हैं, बच्चों को तो इसमें बड़ा आनन्द आ रहा होता है। बड़े भी रस्म अदायगी के लिए ही सही पर एक बार आग को जरुर लांघते हैं।
जब कोयले भी बुझने लगते हैं तो अधजली लकड़ी के टुकड़ों को लोग अपने घरों को ले जाते हैं परंतु उसे घर में नहीं रखा जाता बल्कि उन्हें वे अपने गोठों (गौशाला) में रखते हैं, ऎसा माना जाता है कि इससे पशुओं की बुरी आत्माओं, बिमारी और अन्य बाधाओं से मुक्ति होती है, वे अधिक स्वस्थ होते है और अधिक दूद्ध देते हैं। कुछ लोग भैलोची की बची हुई डंडी और मशाल के छिलुके बाड़े में ककड़ी के लगों (बेलों) वाली झाल पर फेंक देते हैं। ऐसा माना जाता है कि उससे फल-फूल की पैदावार अच्छी होती है।
इस दिन पशुओं का विशेष ध्यान रखा जाता है और उनको अधिक से अधिक हरा चारा दिया जाता है, बुजुर्गों का कहना है कि गाय के आगे घास का ढेर उसकी ऊंचाई से कम नही होना चाहिये। यह त्योहार पहाड़ के लोगों को आने वाली शीत ऋतु के लिए ईंधन, चारा तथा खाद्य पदार्थ संचित करने का भी संकेत करता है। खतड़ुवा की राख को सभी बुराईयों, बुरी आत्माओं तथा विध्न-बाधाओं के अंत के प्रतीक के रूप में देखा जाता है। खतड़ुवा के मुछयाव या रांक(मशाल) को जिस प्रकार पहले गौशाला आदि स्थानों से घुमाया जाता है वह उस स्थान से सभी बुरे विचारों, आत्माओं तथा जीवाणु/किटाणु को लौ में समाहित कर खतड़ुवे की अग्नि के हवाले कर समाप्त किये जाने को प्रदर्शित करता है।
खतड़ुवा मनाये जाने के सम्बन्ध में एक अन्य मान्यता भी चली आ रही है जिसके कारण इस त्यौहार के सम्बन्ध में कुमाऊँ व गढ़वाल अंचल के लोगों के बीच में कई भ्रान्तियां पैदा कर दी गयी हैं। इसके अनुसार कूमाऊं के राजा रुद्रचन्द (जिनके नाम से ही तराई का रुद्रपुर नगर आबाद है), की मृत्यु के पश्चात सत्ता के लिए दावेदारों में करीब २ वर्ष तक संघर्ष चलता रहा। पर अंत में सभी को परास्त कर बाज बहादुर चन्द ने राज्य की बागडोर अपने हाथ में ले ली और अल्मोड़ा को अपनी राजधानी घोषित किया। उन्ही दिनो गढ़्वाल के राजा ने इस अस्थिरता का लाभ प्राप्त करने के उद्देश्य से कूमाऊं के सीमावर्ती क्षेत्रों में आक्रमण कर दिया। गढ़वाल की सेना ग्वाल्दम व चौखुटिया से होते हुये के कूमाऊ के गरूड़ और द्वारहाट तक पहुंच गयी तथा इसका नेतृत्व उनका सेनापति खतड़सिंह कर रहा था। बताते हैं कि उस समय खतड़सिंह क्षेत्र के लोगों के लिए मौत का पैगाम बन गया था।
गढ़्वाल की सेना के इस आक्रमण से त्रस्त होकर चौखुटिया, गरूड़ और द्वारहाट के लोग अल्मोड़ा दरबार में पहुंचे और राजा से रक्षा की गुहार की। राजा बाज बहादुर ने एक सेना गढ़्वाल पर आक्रमण हेतु तैयार कर दी। बरसात में जैसे ही गढ़वाल की सेना वापस लौटी, इस सेना ने गढ़्वाल के आदि बद्री के पास स्थित चांद्पुर गढ़ी पर आक्रमण कर दिया। लेकिन ऊंचाई पर स्थित चांद्पुर गढ़ी से गढ़्वाल की सेना के लाभ की स्थिति में होने के कारण कुमाऊँ की सेना को सफ़लता नही मिली। ऎसी स्थिति में राजा बाज बहादुर चन्द को एक युक्ति सुझी। राजा बाज़ बहादुर चन्द ने गढ़्वाल पर आक्रमण के लिए एक विशाल सेना तैयार की।
जैसे ही बरसात का मौसम समाप्ति के ओर आया उन्होने सेना को गायों के झुण्ड के साथ चांद्पुर गढ़ी पर आक्रमण करने के लिए भेज दिया। जिसे पहले तो गढ़्वाल की सेना समझ नही पायी कि सेना उनकी तरफ़ बढ़ रही है। जब तक वह यह समझ पाते तो उनके लिए यह समस्या पैदा हो गयी कि गायों के बीच आ रहे कूमाऊं के सैनिकों को वह उपर आने से रोक नही पाये। क्योंकि अगर वह कूमाऊं के सैनिकों पर उपर से हमला करते तो सैनिकों के साथ ही गौहत्या की पाप के भी भागी बनते। इस असमंजस का लाभ उठाकर कुमाऊं की सेना चांद्पुर गढ़ी तक पहुंच गयी और गढ़वाल की सेना को घेर लिया।
इस प्रकार गायों की आड़ में कुमाऊँ की सेना ने चांद्पुर गढ़ी पर आक्रमण कर कब्जा कर लिया और गढ़्वाल का सेनापति खतड़सिंह मारा गया। क्योंकि गायों की सहायता से कूमाऊं की सेना ने खतड़सिंह को मारकर गढ़्वाल की सेना को पराजित किया, कहा जाता है इसीलिए खतड़ुवा जलाते हुये "गै की जीत खतड़ुवे की हार" का घोष किया जाता है। पर इन सब बातों का कूमाऊं या गढ़्वाल के इतिहास में विस्तृत वर्णन नही मिलता है। शायद यह सब आंशिक रूप से सत्य रहा हो और लोगों ने इसे अपने अपने तरीके से प्रचारित कर दिया होगा। जैसा कि प्रथ्वीराज चौहान के बारे में "पृथ्वीराज रासो" में अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन मिलता है जिसका इतिहास से कोई लेना देना नही है।
ऐतहासिक रूप से शायद यह घट्ना हुयी होगी पर किसी सेनापति का नाम खतड़सिंह होना या "गै" नाम का होना साबित नही होता है। शायद क्षेत्र के लोगों में उससे खतरे के खौफ़ की वजह से उसे स्थानीय लोगों द्वारा खतड़सिंह उपनाम दे दिया गया होगा। इस प्रकार गै की जीत और खतड़ुवे की हार के नारे को नया रूप प्रदान कर दिया गया होगा। यह सब कुमाऊँ का इतिहास लिखने वाले कुछ इतिहासकारो की कुमाऊँ की गढ़वाल पर श्रेष्ठता साबित करने के किए अपनी कल्पना से उपजी एक कपोल कल्पित कहानी से ज्यादा कुछ नहीं है। यह सब कहानी मुख्य रूप से अंग्रेजों के द्वारा या उसके उपरान्त के लिखे गए इतिहास में ही मिलती हैं। जिससे ऐसा प्रतीत होता है की यह सब अंग्रेजों द्वारा कुमाऊँ और गढ़वाल क्षेत्र के बीच वैमनस्य पैदा करने के लिए जानबूझकर लिखा गया है।
उपरोक्त घटना खतड़ुवा को प्रचारित करने में सहायक रही हो सकती है, क्योंकि समय काल मेल खाते हैं, पर खतड़ुवा का मनाया जाना इससे पुरानी परंपरा रही होगी। खतड़ुवा की कहानी के विषय में कुमाऊँनो भाषा के प्रसिद्ध कवि-साहित्यकार स्व. वंशीधर पाठक 'जिज्ञासु' जी (जो लम्बे समय तक उत्तराखंड की भाषा-संस्कृति से सम्बंधित आकाशवाणी लखनऊ से प्रसारित होने वाले "उत्तरायण" कार्यक्रम के संयोजक रहे) ने एक बार लिखा था कि..
अमरकोश पढ़ी, इतिहास पन्ना पलटीं,
खतड़सिंह न मिली, गैड़ नि मिल।।
कथ्यार पूछिन, पुज्यार पूछिन,
गणत करै, जागर लगै,
बैसि भैटयुं, रमौल सुणों,
खतड़सिंह न मिल, गैड़ नि मिल।।
स्याल्दे-बिखौति गयूं,
देविधुरे बग्वाल गयूं,
जागसर गयूं, बागसर गयूं,
अल्मोड़े की नंदादेवी गयूं,
खतड़सिंह न मिल, गैड़ नि मिल।।
यह त्यौहार मुख्य रूप से सर्दी के आगमन तथा पशुधन के महत्व को प्रदर्शित करने वाला पर्व है क्योंकि वर्षा ऋतू के समाप्ति तथा शरद के आगमन के साथ ही पहाड़ो पर पशुओ तथा कृषि सम्बंधित कार्यों व्यस्तता बढ़ जाती है। इस समय ही पशुओ को बाड़ों (छानो) से बंद गोठों में स्थानांतरित किया जाता है क्योंकि बरसात में पशुओं को ज्यादातर चारे की अधिकता के कारण दिन में आस पास के जंगलों में खुला छोड़ दिया जाता है तथा रात में बाड़ो में रखा जाता है। सर्दियों में ठण्ड तथा हरे चारे की कमी और सुरक्षा के कारण पशुओं को बंद गोठों में रखा जाता है क्योंकि इन दिनों जंगली हिंसक पशुओ का खतरा भी रात को बढ़ जाता है।
वर्षा ऋतु के समाप्त होने तथा शीत ऋतु के शुरु होने पर लोगों को अपने पशुओं के लिए विशेष व्यवस्था करनी होती है, इस कारण इस दिन पर पशुऒं का विशेष ध्यान दिया जाता है। हमारे देश में घरेलू पशुओं में गाय को पहले से ही विशेष स्थान प्राप्त है इसलीए ही गौशालों की सफ़ाई आदि और पशुओं को सर्दी में ठण्ड से बचाने के लिए इसे एक प्रतीक के रूप मनाना प्रारम्भ हुआ होगा। मुझे तो खतड़ुवा सर्दी के प्रतीक के रूप में ही लगता है तथा जिसे जलाकर यह जताने की कोशिश की जाती है कि सर्दियों में भी हमारे पशु और लोग सुरक्षित रहेंगे।
खतड़ुवा विशेष रूप से बच्चों तथा किशोरों द्वारा उत्साह के साथ मनाया जाता है। इससे तो यही लगता है कि यह उनको आने वाली शीत ऋतु में ठण्ड से बचने के लिए तैयार करता है। क्योंकि हमारे पहाड़ों में जब पुराने समय से रामलीला/दशहरे पर तक रावण का पुतला जलाने की परंपरा नही रही है, तो खतड़ुवा पर किसी गढ़वाल की सेना के सेनापति का पुतला जलाये जाने की बात गले नही उतरती है।
वैसे भी हमारे कुमाऊँ में हर माह की शुरुवात किसी न किसी पर्व/त्यौहार से होती है। जहां तक खतड़ुवा का सम्बन्ध है, यह आश्विन माह के आरम्भ के साथ ही शीत ऋतु के आगमन की सूचना भी देता है।जिस प्रकार से इसे मनाया जाता है, उससे तो निश्चित ही इसका सम्बन्ध किसी ऎतिहासिक घटना से न होकर शीत ऋतु के आगमन से ही प्रतीत होता है।
ऊत्तराखण्ड राज्य की स्थापना के बाद राज्य के कुमाऊँ अंचल के नगरीय/उपनगरीय क्षेत्रों में खतडु़वा मनाना या तो पूरी तरह बंद हो गया है या मनाने के उत्साह में कमी आयी है। इसका मुख्य कारण है कि कुमाऊँ के लोग अपने राज्य के दूसरे अंचल के साथियों की भावनाओं का सम्मान करते हुये किसी विवाद से बचना चाहते हैं। लेकिन कुमाऊँ के ग्रामीण क्षेत्रों में नाम मात्र को ही सही पर इस त्योहार का अस्तित्व अभी बरकरार है। चाहे इसके पीछे उनका यह डर ही रहा हो कि अगर वह खतड़ुवा नही मनायेंगे तो उनके पशु दूध देना बंद कर देंगे।
खतड़ुवा से सम्बंधित जानकारी के लिए कोनी पाठक के यूट्यूब चैनल से निम्न वीडियो भी देख सकते हैं:
किसी भी त्यौहार/पर्व को मनाना इस आधार पर बंद कर देना कि दूसरे की भावनाओं का सम्मान हो अच्छी बात है पर वर्षों से चली आ रही एक परंपरा को बंद कर देना भी कोई बुद्धिमानी नही है। नये राज्य के उदय के साथ कुछ नया आरंभ करने की बजाय हमने वर्षों से चली आ रही एक परंपरा की बलि दे दी। इस बारे में हमारे समाज के बुद्धिजीवी वर्ग की जो भी सोच रही हो, पर मुझे तो यह समाज के निर्णय की बजाय एक राजनैतिक स्टंट मात्र ही लगता है। जैसे कि महात्मा गांधी ने भी कहा है कि "पाप से घृणा करो पापी से नही" उसी प्रकार इस त्यौहार को मनाया जाना बंद करने की बजाय अगर इसके पीछे होने वाले क्षेत्रवाद के जहर को बंद करने की कोशिश होती तो बेहतर होता। कूमाऊं के शहरों में खतड़ुवा मनाना चाहे बंद कर दिया गया हो पर क्षेत्रवाद का जहर राजनीति में जारी है। कितना अच्छा होता कि इस दिन खतड़ुवा की आग में दोनों अन्चलों के लोग राजनैतिक स्वार्थों, क्षेत्रवाद और सम्प्रदायवाद को समाप्त करने का प्रण लेते।
फोटो सोर्स: गूगल / वीडियो: कोनी पाठक यूट्यूब चैनल
3 टिप्पणियाँ
खतड़ुआ के बारे में विस्तृत जानकारी देने के लिए धन्यवाद । आप शायद politically correct होना चाह रहे हैं जो सराहनीय है परन्तु जहाँ तक मुझे याद आता है मुझे तो यह किसी आक्रमणकारी राजा, जिसे खतड़ुआ कहा जाता रहा है और जो शायद चीन का था, को पराजित करने की खुशी में मनाया जाने वाला त्यौहार ही बताया गया था । माँ से खतड़ुआ को टहनियों से पीटने के बारे में भी सुना था ।
जवाब देंहटाएंआपके ब्लॉग पर आना एक बहुत सुखद अनुभव रहा । कृपया लिखते रहिए ।
घुघूती बासूती
राजा खतड़ुआ चीन का न हो कर गढ़वाल का था. कुमाउनी - गढ़वाली के विवाद से बचने और गढ़वाली बंधुओं की भावनाओं को ध्यान में रख कर ही यह त्यौहार अब उस उत्साह से नहीं मनाया जाता. दूसरे की भावनाओं को ध्यान में रख कर अपनी परम्परा को त्यागने का यह अनुकरणीय कार्य शेष भारत ने भी करना चाहिए.
जवाब देंहटाएंघुघुती जी आप जैसे लेखकों के कुमाऊनी संस्कॄति के प्रति प्रेम ने मुझे भी कुछ लिख्नने का साहस प्रदान किया। आपके उत्साहवर्धन हेतु धन्यवाद
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