
कुमाऊनी लोक और लोक साहित्य
लेखक: ताराचंद्र त्रिपाठीकुमाऊँ में भी संसार के अन्य पर्वतीय भू.भागों की तरह ही आजीविका के साधन अत्यन्त श्रम साध्य हैं। पर्वत शिखरों से गहरी घाटियों तक क्रमशः उतरते हुए सीढ़ीनुमा खेतों में, सिंचाई के साधनों के अभाव के कारण, अन्न का बहुत कम उत्पादन हो पाता है। आवागमन के साधनों का अभाव और दुर्गम मार्गों के कारण विभिन्न अंचलों के बीच बोलीगत और सांस्कृतिक वैविध्य के साथ.साथ लोक.मानस संदेह, अविश्वास, अनिश्चितता और अभावग्रस्त जीवन को प्रतिबिम्बित करता है। लोकगीतोें मंें अकाल की भीषण स्थितियों का भी अंकन हुआ है:
घट घालो घेरा।
चड़ी को सो गावो दिये अबेरा सबेरा।
अकाल के कारण बन्द पड़ी पनचक्कियों को काटों से घेर दिया गया है। इसलिए हे प्रभो! जिस प्रकार चिडि़या अपने बच्चों को दाना खिलाती है, उसी प्रकार देर.सबेर आप भी हमें भोजन दें।)
फल टिपि खाया।
अकाला का दिन यसा, पौण घर आया।
(हम तो किसी प्रकार जंगली फलों से गुजारा कर रहे थे। (समस्या यह है कि) अकाल के ऐसे दिनों में घर में पाहुने आ गये हैं।)
सामान्य परिस्थितियों में भी सफेद गेहूँ की रोटी और मछली का सोरवा प्रायः दुष्प्राप्य होने के कारण प्रलोभन के रूप में अंकित हुआ है:
ना्न भौ घुरुवा।
सेती ग्यूँ की रोटि खाली, माछो को सुरुवा।
(तेरा छोटा सा बच्चा है। मेरे घर आकर तू सफेद गेहूँ की रोटी खायेगी और मछली का सोरवा भी)
रोजी-रोटी के लिए लोगों को घर से दूर जाना और वर्षों बाहर रहना पड़ता है। परिणामतः कतिपय पे्रम परक लोकगीतों में नायिका की सौतेली माता द्वारा धन की माँग, नायक का अर्थोपार्जन के लिए परदेश गमन, वहाँ से नायक का वर्षों बाद घर लौटना, मार्ग में प्रतीक्षा करती हुई नायिका द्वारा न पहचाना जाना अथवा नायिका का विवाह अन्यत्र कर दिया जाना या सौतेली माता के द्वारा नायिका की हत्या आदि के मार्मिक वर्णन मिलते हैं।
संसार के लोकसाहित्य का अधिकांश सामन्तवादी सामाजिक पृष्ठभूमि पर आधारित है। लोकगीतों और लोक कथाओं में आदिम समाज और पशुचारण युग के समाज के चित्र भी यत्र.तत्र विकीर्ण हैं पर लोक.गाथाएँ विशुद्ध रूप से सामन्ती समाज में ही प्रतिफलित हुई हैं। सामन्तवाद जैसे-जैसे क्षेत्र विस्तार में संकीर्ण होता जाता है, उसके अत्याचार, मुख्यतया असीमित आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए साधनों की कमी के कारण तथा अल्पांश में निरंकुशता, मानसिक विकृति और आदर्शहीनता के कारण भी बढ़ते चले जाते हैं।
सम्राटों की अपेक्षा मांडलिक राजाओं के अत्याचारों से जनता अधिक पीडि़त रही है। कायरता, आत्मगोपन की प्रवृत्ति, सामाजिक असुरक्षा की भावना, स्त्रियों पर तरह.तरह के बंधन, बाल विवाह, यहाँ तक कि भारत के कतिपय भागों में प्रचलित सती प्रथा भी अतिचारी सामन्तवाद की देन हैं। कुमाऊनी लोक साहित्य में भी इन सामन्ती अत्याचारों के उल्लेख प्रचुर हैं। असंख्य युद्ध, चाले (षडयंत्र), हाड़न्या्ल, जिसमें दंडित व्यक्ति का पाँव लकड़ी के कुंदे की फाँस के बीच में फँसा दिया जाता है, दोषपूर्ण कर व्यवस्था, निरंकुशता पूर्ण शोषण, अपहरण तथा स्वेच्छाचारिता इन लोकगाथाओं में विशद रूप से वर्णित है।
ऐसे उल्लेख भी मिलते हैं कि जनता को अपना अनाज सामन्तों की चक्कियों में ही पिसवाना पड़ता था और सामन्त सीधी नाली से अनाज लेते थे और उल्टी नाली से आटा वापस करते थे। सामान्य व्यक्ति को बन्द पड़ी पनचक्की का भी कर देना पड़ता था। युवा स्त्रियाँ बल पूर्वक अपहृत कर सामन्ती हरमों में ले जायी जाती थीं। जंगलों में सूखी लकड़ी बीनने पर भी प्रतिबंध था।
लोकदेवता, अधिकतर, विभिन्न सामन्तों के अत्याचारों से पीडि़त या षडयंत्रों में मारे गये पूर्व पुरुष हैं। बहुत से अंधविश्वासों को जन्म देने में भी इन्हीं अत्याचारों का हाथ है। उदाहरणार्थ भोलानाथ चन्द वंश का ही एक राजकुमार था। वह सन्यासी हो गया था और बाद में राजा द्वारा ईष्र्यावश मार डाला गया। बिनसर का पहलवान चरवाहा कल बिष्ट राज दरवार के षडयंत्रों में मारा गया। डोटी का राजकुमार गंगानाथ अल्मोड़ा की भाना जोेेश्याणी के साथ अपने अवैध संबंधों के कारण उसके पति द्वारा मार डाला गया।
कुुछ ऐसे सामंत भी लोक देवताओं की श्रेणी में स्वीकार कर लिये गये हैं जिनके अत्याचारों की याद उनकी मृत्यु के बाद भी जनता के रौंगटे खड़े करती रही। उदाहरण के लिए कत्यूरी नरेश वीर देव (ब्रह्मदेव) अत्यन्त क्रूर और अत्याचारी शासक था जो षडयंत्रों की शंका से कहारों के कंधों में पालकी के डंडे गड़वा कर चलता था और उसका अन्त भी दर्द से कराहते कहारों द्वारा राजा की पालकी सहित पहाड़ से कूद पड़ने के कारण हुआ।
जागरों में इन सामन्तों के स्वेच्छाचार और अत्याचारों का दारुण वर्णन हुआ है। जागर के आयोजन के समय लोक देवताओं के व्यक्तित्व का अभिनयात्मक आवेश धारण करने वाले व्यक्ति (डंगरिये) में आवेश का अवतरण करने के लिए जागर अधिकतर.गायक (जगरिया) या दास (चारण) इन्हीं अत्याचारों का या उनकेे जीवन के वीरतापूर्ण संघर्षों का वर्णन करता है। वस्तुतः अत्याचार से मारे गये और अत्याचारी शासकों के प्रेत.योनिगत प्रतिशोध से रक्षा के लिए ही इन जागरों का उद्भव हुआ। ये अत्याचारी शासक या पैक (मल्ल) सामान्य पे्रतों के लिए उतने ही भयावह माने जाते हैं जितनेे कि वे जीवित अवस्था में सामान्य जनता के लिए भयावह थे।
सामन्ती समाज व्यवस्था प्रेतयोनिगत लोक.विश्वासों में भी प्रतिबिंबित हुई है। सामान्य पे्रतों का नायक भूमियाँ ( भूमिपाल) नाम का प्रेत है। इसकी तुलना ग्राम प्रधान से की जा सकती है। नदी के एक संगम से लेकर दूसरे संगम तक का अधिपति मशान है। विवाह आदि के अवसर पर श्वसुरालय को जाती हुई बहू का परिछन कर चावल, उड़द और एक पैसा इसके नाम पर अर्पित करना अपरिहार्य माना जाता है। यह एक प्रकार से ग्राम.समूहों का स्वामी है। जंगलों का अधिपति तथा चारागाहों का स्वामी खबीश नाम का एक और प्रेत है। कहा जाता है कि वह अंधकाराच्छन्न गिरि.गुहाओं में निवास करता है और यदा.कदा चरवाहों की बोली बोलता हुआ यात्रियों का पीछा करता है। इन पदाधिकारियों के अतिरिक्त घुटनों के पास का दीवान (वैयक्तिक सहायक), रुसदी, मुसदी, दरी, दीवान, छत्री.बरदार, आदि पदाधिकारी मी प्रेतयोनिगत विश्वासों में प्रतिबिंबित हुए हैं। इन सब का अधिपति या सामन्त लोकदेवता है।
लोकदेवताओं के आपसी संबंधों में सामाजिक मर्यादा के प्रति बड़ी सजगता दिखायी देती है। भोलानाथ योगी होने और ग्वेल की अपेक्षा क्षेत्र विस्तार में कम होने के बावजूद, अपने पूजा क्षेत्र में ग्वेल से भी अधिक प्रभावशाली माना जाता है। गंगानाथ अपनी दुश्चरित्रता के कारण योगी भोलानाथ के सामने टिकने का साहस नहीं करता। देवी बहुत कम बोलती है। उसकी नृत्य.मुद्रा भी अधिक शालीन होती है जबकि अन्य डंगरिये उद्धत नृत्य.मुद्रा में नाचते हुए मूल पुरुष के जीवन की घटनाओं का अभिनय करते हैं।
प्राचीन राजनीतिक विभागों की छाया लोक देवताओं की मान्यता में मिलती है। अल्मोड़ा और उसके प्रवासियों का मुख्य देवता भोलानाथ है। चंपावत के प्राचीन राज्य क्षेत्र में ग्वेल की पूजा प्रचलित है। काली नदी क्षेत्र का अधिपति नङथर नामक देवता है। असकोट क्षेत्र में छुरमल, वेरीनाग क्षेत्र में मूल नारायण, कत्यूर तथा पाली क्षेत्र में कत्यूरी सामन्त धामदेव और ब्रह्मदेव प्रमुख देवता हैं। सामन्ती व्यवस्था और सामाजिक संक्रमण का जैसा सुन्दर और जीवन्त अंकन लोकन साहित्य में मिलता है वैसा नागर साहित्य में नहीं मिलता। वस्तुतः प्रत्येक असामान्य घटना की लौकिक प्रतिक्रिया लोक.मानस में बड़ी प्रखरता के साथ अंकित हुई है।
गाँवों के दूर.दूर होने और मार्गों की बीहड़ता का प्रभाव यहाँ के लोक जीवन पर भी पड़ा है। कन्या विवाहोपरान्त अपने नैहर से दूर चली जाती है। श्वसुरालय में उसकी स्थिति प्रायः अवैतनिक कृषि मजदूर की सी होती है। जिसे दिन भर खेतों और जंगलों में काम कर, घर लौटनेे पर पति की इच्छा और सास के इंगितों पर जीना पड़ता है। पत्नी दिन भर खेतांे और जंगलों में काम कर थकी हुुई घर लौटती है। पानी का स्रोत भी घर से बहुत दूर है। फलतः पत्नी को थका हुआ देख कर पति पसीज जाता है:
ग्यूँ भट भुटि खूलो, तू पाणी नी जा।
मेरी छैला वे तू पाणि नी जा।
(आज गेहूँ और भट भून कर ही खा लेंगे। तू पानी के लिए मत जा) (सुमित्रानन्दन पन्त की कविता ‘गृहकाज’ इसी कविता का छायान्तर है पर इस गीत की तरह की करुणा मिश्रित आत्मीयता और परिवेश जन्य थकान की व्यंजना इस कविता में नहीं है।)
सास और ननद बहू के लिए बड़ी समस्या के रूप में अंकित हैं। सास और ननद के द्वारा बहू की हत्या के कतिपय उल्लेख लोक.साहित्य में मिल जाते हैं। इसीलिए लोकगीतों की बहू ननद को पड़ोस में न व्याहने का आग्रह करती है। दूसरी ओर कतिपय अन्य गीतों में भाभी द्वारा गरीब घर में विवाहित ननद की उपेक्षा की करुण कथाएँ भी मिलती है। ‘तेरे फुन्दे लटक रहे बागा में' कड़ी से आरंभ होने वाले गीत में पति और पत्नी के बीच क्रमशः अपनी भांजी और बहिन के विवाह में दायज भेजने की प्रतिस्पद्र्धा का मार्मिक वर्णन हुआ है।
यहाँ यह तथ्य द्रष्टव्य है कि प्रायः ऐसे सभी प्रसंगों के अन्त में, दोषी व्यक्ति का अन्त जीभ काट कर आत्महत्या द्वारा दिखाया गया है। कहीं-कहीं उत्पीडि़त व्यक्ति भी आत्म हत्या करते हुए अंकित हैं। यथा ‘जूँ हो’ शीर्षक कफुवा पक्षी से संबंधित लोक कथा में बहू सास से बार.बार अपने मायके जाने की अनुमति माँगती है पर हर बार सास बहाने बना देती है। मायके की याद के असह्य हो जाने पर बहू मर जाती है। इसी तरह ‘भै भूखो मैं सीती’ शीर्षक गीत में घुघुता पक्षी से संबंधित लोक.कथा में अपने घर में आये भाई के प्रति बहिन की निष्ठुरता और भाई के रात भर भूखे रह जाने और मर जाने पर पश्चाताप के कारण स्वयं भी मर जाने वाली बहिन की कथा अंकित है। इन कथाओं में बाल.विवाह और पुनर्जन्म दोनों ही ध्वनित हैं।
सामाजिक परिवर्तन के साथ-साथ पारिवारिक संबंधों में आ रहे परिवर्तन के प्रतिबिंब भी लोक-साहित्य में मुखरित हुए हैं। एक ही गीत के सौ वर्ष के अन्तर के दो पाठों में भाव इतने बदल गये हैं कि उनसे दो युगों की पारिवारिक व्यवस्था की रूपात्मक भिन्नता स्पष्ट हो जाती है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण ‘मालू काटण दे’ शीर्षक गीत है।
एक सौ पचास वर्ष पूर्व की बहू के लिए सास एक बड़ी भारी विपदा थी। पालने में उसका छोटा बच्चा रो रहा था। गोठ में नौ सेर दूध देने वाली भैंस बँधी थी। पतरौल भी उसकी ऐसी स्थिति को देख कर मालू काटने से मना नहीं कर सका था। पर वर्तमान संस्करण में खँयारी सास और पालने का शिशु दोनों ही लुप्त हो गये हैं। पतरौल की भी सहृदयता समाप्त हो चुकी है। वर्तमान संस्करण में तो वह अपनी भैंस को तू पहाड़ पर से लुढ़का दे (तौ भैसी कँ तू भ्योल घुर्यै दे) कहता हुआ ऐसा ठेठ सरकारी नौकर लगता है जिसे जनता के सुख.दुख से कोई सरोकार नहीं हैं। यही नहीं आधुनिक संस्करण के समापन में भीना धनसिह और साली मोतिमा के संबंधों का रोमानी रूप ही अधिक मुखर हुआ है।
अन्य गीतों में भी विगत युग की इस खँयारी सास के प्रति विद्रोह प्रतिध्वनित होने लगा है। मैं सोलह शृंगार अवश्य करूंगी चाहे सास कुछ भी करे (मैं करुलो सोलह सिंगार चाहे सासू कसै करौ )। हाथ छ पोथी काँख छ धोती वाले बरज्यू (दूल्हा) एफ0ए0, बी0ए0 का पढ़ा हुआ है, कालेज पढ़ने को जा रहा है। माता-पिता की लाड़ली बन्नी अब नव युग की प्रतिमा बन चुकी हैं। पिता को पैदल और पुत्र को घोड़े पर आता हुआ देख कर ‘विपरीत चाल’ से रुष्ट हो जाने वाले वैश्वानर देव अब अतीत में खो गये हैं।
बेटे की बहू के रसोई करने और भांजे की बहू के काज परोसने से संबंधित गीत भी अब लुप्त हो चुके हैं। संयुक्त परिवार की भावना जिसमें सात पीढि़यों तक के जीवित बांधवो के अवस्था क्रम में घर होने का उल्लेख होता है, अब यदा.कदा ही सुनाई देते हैं। इन पुराने गीतों का स्थान अब फिल्मी धुनों पर आधारित नये गीत लेते जा रहे हैं। खेतों और जंगलों में काम करने वाला पशुचारक पे्रमी जो कल तक अपनी पे्रमिका के लिए गोला और मिश्री लेकर प्रतीक्षा करता था, अब हरा कुर्ता और लाल बनियान पहन कर दिल्ली से घर आ रहा है। पे्रमिका भी अब घाघरे के स्थान पर रेशमी साड़ी की माँग करने लगी है।
नयी सभ्यता के प्रति लोक मानस उपहासात्मक है। विकास योजनाओं के प्रति भी वे सजग हैं। जहाँ बन्दर और लंगूर उछलते.कूदते थे, वहाँ आज कारें दौड़़ रही हैं।
जाँ धिरकँछिया गुणि बानर।
वाँ धिरकणी कार।
इन विकास योजनाओं में धन के भारी दुरुपयोग के प्रति भी वे सजग हैं। 1954 में वन विभाग द्वारा अल्मोड़ा जनपद में मछखाली-ऐड़ादेव मोटर मार्ग के निर्माण के बारे में निम्नलिखित लोकगीत द्रष्टव्य हैः-
ताला टुका जोगी नाई ठेकेदार।
माला टुका गुसैं शिल्पकार।
बीच.बीच गैगनैं की मार
छै छन कुली नौ छन जमादार।
(सड़क के आरंभिक हिस्से में जोगा सिंह नाई ठेकेदार का ठेका है। अंतिम छोर पर गुसाईं शिल्पकार का ठेका है। इन दोनों के बीच.बीच में सरकारी गैंग काम कर रही हैं जिनमें कुलीे तो छः हैं पर उनकी निगरानी करने वाले जमादार नौ हैं।)
व्यापारी वर्ग के प्रति लोक.मानस विशेष रूप से व्यंग्यात्मक है। प्रायः जनता ने व्यापारी वर्ग से उनके द्वारा किये जाने वाले आर्थिक शोषण का बदला इसी उपहास वृत्ति के द्वारा लिया है। यह प्रवृत्ति संसार के सभी लोक.साहित्यों में विद्यमान है। व्यापारी वर्ग की महिलाआंे के सौन्दर्य के प्रति भी आकर्षण इन गीतों किस्सों और लोकोक्तियों में दिखायी देता है। एक क्रीड़ा गीत में तो वणिक कन्या से विवाह करना चुनौती के रूप में अंकित है।
आँस काटूँ बाँस काटूँ खेत करूँ मैदान।
जब मैं बणिये कि चेलि ल्यूँ तब मैं पधान।
(भलेही मैं जंगल काट कर साफ कर दूँ और वहाँ मैदान खेत बना दूँ पर जब मैं वणिक कन्या को व्याह कर घर ला सकूँ तभी मैं वास्तव में ठाकुर कहलाने योग्य हूँ।)
जन सामान्य की गरीबी के कारण लोक.साहित्य में गरीबों के प्रति सहानुभूति और सहृदयता सर्वत्र व्याप्त है। पांडवों का जाल काटने की कथा तथा राम विवाह के प्रसंग में गरीबों के प्रति सहृदयता विशेष रूप से व्यंजित हुई है। उदाहरण के लिए पांडवों का जाल काटने के लिए ‘कइया लोहार’ भीमसेन से दस हजार रुपया माँगता है और भाव-ताव करते-करते एक रुपये तक आ जाता है। इस पर भीमसेन कइया लोहार से कहते हैं कि वे तो उसे एक रुपया भी दे देंगे पर गरीब क्या करेंगे? इसलिए उसे जाल काटने के बदले एक पैसा लेना चाहिए।
राम-विवाह के अवसर पर जनकपुर में विवाह मंडप के लिए सोने के खंभे लगाने की व्यवस्था होती है। पर राम कहते हैं कि वे तो सोने के खंभे लगा लेंगे पर गरीब क्या करेंगे? इसलिए केले के खंभे लगायें। दूसरी ओर जन सामान्य की गरीबी के कारण लोक गीतों में सामूहिक भोज की कल्पना में छत्तीस ज्योनार और बत्तीस पकवान बनते ही हैं। सोने की थालियों में भोजन और चाँदी की झारी में गंगाजल परोसा ही जाता है।
कुमाऊँ का वीर उस तरह का आयुधजीवी वीर नहीं है जैसे कि उसके बुंदेली सहकर्मी आल्हा और ऊदल हैं। सामान्यतः वह एक सम्पन्न किसान है। उसके पास गायों के गल और भैंसों के ठट्ठ (बड़ी संख्या का वाचक) हैं। तिमंजिला मकान उसके ऐश्वर्य का प्रतीक है। युद्ध के लिए उसके विदा होने का दृश्य अवसाद पूर्ण है। युद्ध के लिए विदा होता हुआ वीर अपनी नवेली दुधकेला (दूध सी उज्ज्वल और केले सी कोमल) पत्नी से कहता हैः-
गोरुना का गल कणी भलिकै सैंतिये दूदा।
भैंसना का ठठ कणी भलिकै सैतिये दूदा
बची जूलो आयी जूलो, मरि गयो खैर दूदा।
पैकनै की जाति मेरी ऐसिकै मरण हूँ छ।
(गायों के गल का अच्छी तरह से पालन करना। भैसों के ठठ का अच्छी तरह से पालन करना। जीवित रहा तो आ जाऊंगा मर गया तो क्या कहा जाय। अरी दूधकेला! मेरी जाति ही योद्धाओं की है जिसका मरण इसी तरह होता है।)
लोकगीतों की लय और लोकनृत्यों की अंग भंगिमा में दैनिक कार्य व्यापार की प्रतिच्छाया झलकती है। गोलाकार झोड़ा नृत्य का पद संचालन, तीन कदम आगे और एक कदम पीछे, अनाज माड़ने की क्रिया का लयात्मक रूप है। छपेली में आदिम काम स्वातंन्न्य की छाया मिलती है। छोलिया नृत्य सामन्ती युद्धों की कलात्मक अनुकृति है। पिथौरागढ़ अचंल के कुमौड़ा ग्राम में प्रतिवर्ष आयोजित होने वाला पारंपरिक ‘हिलजात्र’ कृषिपरक नृत्य नाटिका है जिसमें नर्तक कृषि के विभिन्न साधकों का रूप धारण कर नृत्य करते हैं।
कुमाऊँ के लोक.साहित्य में छत्तीस, बत्तीस, बाईस, सात आदि संख्यात्मक प्रतीक (उवजप) महत्वपूर्ण हैं। जैसे छत्तीस रकम, बत्तीस कलम, छत्तीस रौतान, बत्तीस पैरुणी, छत्तीस ज्योनार, बत्तीस पकवान, आदि। युद्धभूमि बाईस हाथ, उसमें डाला जाने वाला रीठा बाईस मन, लंगर बाईस हाथ, बफौल बाईस भाई और रमौल सात। लोक देवताओं का जागर भी या तो सात दिन तक आयोजित किया जाता है या बाईस दिन तक। इसके अलावा प्रसिद्ध मशान कलुवा या लटुवा ही होगा। बहू दूधकेला ही होगी। खाँडा दरवाणी ही होगा। ढाल गैंडासुरी ही होगी। घोड़े की जीन सुनहरी ही होगी। चाबुक भौरिया ही होगा...।
विभिन्न जातियों के बीच संघर्षों की छाया भूतों की कल्पना में प्रतिबिंबित हुई है। भूतों के पावों में आगे से मुड़े हुए राजशाही जूते, तुर्क आक्रमण के प्रतीक हैं। भूतों की आकृति कुछ.कुछ लामाओं से मिलती.जुलती है। रंग और शरीर रचना में वे एकदम काले स्थानीय मूल निवासियों से मिलते.जुलते हैं। दारमा की लोक कथाओं की चुड़ैल निचले क्षेत्रों के लोगों की भाषा में बोलती है:
क्वातम्स्या बूगे क्वर्ता
बद्या बद्या एक हाङा म ले द्ये।
(चुडै़ल बोली
बद्या बद्या एक शाखा मुझे भी दे)
आदि अंश में पहला अंश दारमा की बोली में और चुड़ेैल का कथन गंगोली की बोली में है।
इस प्रकार लोक.गीतों, लोक.कथाओं, लोक.गाथाओं में किसी भी अंचल की संस्कृति का लोक कल्पना से आवृत प्रामाणिक विवरण प्रतिबिंबित होता है। आवश्यकता इस बात की है कि उन सारी कथाओं और गाथाओं से लोक प्रवृत्ति-मूलक अंशों और गायक की अपनी बात को अलग करते हुए अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशस्तियों का प्रखर विश्लेषण किया जाय। उदाहरण के लिए गायक के हरिजन होने के कारण कुछ गाथाओं में हंसकुवर और यशकुँवर जैसे राजकुमारों के साथ-साथ हँसरामकुँवर और जसरामकुँवर जैसे नाम भी राजकुमारों में शामिल हो गयेे हैं।
वर्णन विस्तार की प्रवृत्ति और तक मिलाने के कारण जड़राई के जाजड़राई, झालराई के हालराई आदि वंश.वृक्ष भी परीक्षा योग्य हैं। पुरातात्विक साक्ष्यों के अन्वेषण के लिए हमें निश्चय ही उन स्थलों का सर्वेक्षण करना होगा जहाँ ग्रामवासी प्रेतात्माओं का अधिवास मानते है या जिन स्थलों के बारे में लोक.मानस में कोई न कोई कथा विद्यमान है। पर इस प्रकार की सामग्री के विश्लेषण के लिए अध्येता में वैज्ञानिक की सी तटस्थता अपरिहार्य हैं। अन्यथा हम अपने अपने क्षेत्र के इतिहास को महिमा.मंडित करने की पुनर्जागराणत्मक प्रवृत्ति से ग्रस्त होकर अपने क्षेत्र के इतिहास पर एक और परदा डालने के दोषी होंगे।
मेरी पुस्तक ’ आँखिन की देखी’ से
ताराचंद्र त्रिपाठी, एल मुरादबाद, 03-01-2016

ताराचंद्र त्रिपाठी जी की फेसबुक वॉल से साभार
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