यो कुमूं हमारों
रचियता - बंशीधर पाठक "जिज्ञासु"यो कुमूं हमारों सुख को ड्यारो छै ऋतु बारोंमास।
सज्जन सम्मानी हंसनी गानी कौतिक खेल तमासा।।
बांजा बज्याणी अरडो पाणी हरी-भरी छन धूरा।
यां बिना विरामा चम-चम घामा आंखिन लागूं त्यूरा।।
घर-बण सतकां फल, बेडू-काफल-आडू और घिंघारू।
जो ले यां आंछो, धौ के खांछौ, खुमानी-कुश्म्यारू।।
करि बुति धाणी खेती कमाणी पशिण बगै दिन-राता।
मन धै के खाणी नाजै वाणी ना जै जीवनदाता।।
यो इन बीरन की, रणधीरन की द्यशप्त की लै थाता।
बडि़ रुपसि बाना, रस की खाना शुभ-सौभाग्य-विधाता।।
दाना व सयाना ठूला-नाना परमेश्वर का बंदा।
दिन राता ध्यानी महिमा गानी जोगी साधू संता।।
लुकै छिपै खाणी अपणी दाणी सज्जन को उपदेशा।
कुर्मांचल प्यारो मुलुक हमारो नी जाणो परदेशा।।
वंशीधर पाठक गौरव-गायक जिज्ञासु छ उपनामा।
हाल बसी लखनौ, भुलै नि सकनौ नहरा को शुभग्रामा।।
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