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कत्यूरी शासन-काल - 13

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कुमाऊँ में कत्यूरी शासन-काल - 13

पं. बदरीदत्त पांडे जी के "कुमाऊँ का इतिहास" पर आधारित

वर्तमान में कुमाऊँ का जो इतिहास उपलब्ध है उसके अनुसार ऐसा माना जाता है कि ब्रिटिश राज से पहले कुछ वर्षों (१७९० से १८१७) तक कुमाऊँ में गोरखों का शासन रहा जिसका नेतृत्व गोरखा सेनापति अमर सिंह थापा ने किया था और वह पश्चिम हिमाचल के कांगड़ा तक पहुँच गया था।  गोरखा राज से पहले चंद राजाओं का शासन रहा।  अब तक जो प्रमाण मिलते हैं उनके अनुसार कुमाऊं में सबसे पहले कत्यूरी शासकों का शासन माना जाता है।  पं. बदरीदत्त पांडे जी ने कुमाऊँ में कत्यूरी शासन-काल ईसा के २५०० वर्ष पूर्व से ७०० ई. तक माना है।


१५. कत्यूरियों का अवसान

उत्तराखंड में कत्यूरी शासनकाल काफी लम्बे समय तक माना जाता है पर प्रामाणिक रूप से कुछ भी स्पष्ट पता नहीं चला है, जो भी जानकारी उपलब्ध है वह ताम्रा पत्रों व शिला लेखों तथा अन्य प्रचलित किवदन्तिओं आदि के आधार पार ही उपलब्ध है। जिस आधार पर कई कत्यूरी चक्रवर्ती समाटों के बारे में विवरण मिलता है। इस सम्बन्ध में पं बद्रीदत्त पांडे कुमाऊँ का इतिहास में लिखते है कि कत्यूरी राजाओं के केवल १०-१२ चक्रवर्ती समाटों का पता उनके तामपत्रों व शिला-लेखों से चलता है। उनका कोई लिखित इतिहास नहीं, पर उनके शिला-लेखों से उनके प्रतापी शासन की बाबत जो कुछ ज्ञात हुआ है, वह यह दिखाने को कम नहीं है कि उस जमाने में कत्यूरी-शासन बहुत विस्तृत हुआ है । मुंगेर व भागलपुर के सामाज्यों से यह कम नहीं हुआ, बल्कि उनसे ज्यादा राजकर्मचारी इनके थे। कत्यूरी राजा भी बड़े नामी सम्राट थे। उनके नीचे बहुत से मांडलीक राजा थे। उनके सेनापति, अश्वपति, गजपति सब थे। राजकर्मचारियों की नामावली अन्यत्र दी गई है। वे दानी व धर्मात्मा थे।

कत्यूरी राजाओं के सम्बन्ध में वे यह भी लिखते हैं की वह पहले बौद्ध थे फिर शैव व वैष्णव हो गये। उन्होंने बहुत-सी ज़मीन पढ़े-लिखे ब्राह्मणों, विद्वानों, शूर-बीरों, योग्य कर्मचारियों को दी। उनके राज्याभिषेकों में बहुत से लोग एकत्र होते थे और वे बड़े राजसी समारोह से होते थे। उन्होंने जलाशय, नगर, सड़के, मंदिर, धर्मशालाएँ आदि अपने बिस्तृत सामाज्य में बनवाई। एक विशाल विद्यापीठ भी उनके समय में था, जहाँ विद्वान् लोग छात्रों को विद्या पढ़ाते थे। उन्होंने मंदिर व नौले तो बहुत बनवाये। कुमाऊँ में दैत्य-दानव तथा कौरवों-पांडवों के बाद उन्हीं का शासन प्रतापशाली था। उनका अवसान कब से हुआ, कहा नहीं जाता। संभव है, नवीं या दशवीं शताब्दी से उनका विस्तृत सामाज्य छोटे-छोटे मांडलीक राजारों में विभक्त हो गया हो।

नृसिंह देवता का शाप कहिए या कत्यूरियों के पीछे के वंशजों का अन्याय कहिए, यह कहा जाता है कि राजा धामदेव व वीशदेव से इस प्रतापी वंश का अवसान होना प्रारंभ हुआ।

कहते हैं कि जब ये अन्तिम कत्यूरी राजा अपने भांडार से गेहूँ पीसने को देते थे, तो उल्टी "नाली" (२ सेर की नाप) में जितना गेहूँ आ सके, उतना देते थे, और जब लोग पीसकर लाये, तो आटे को एक ऊँचे पत्थर पर चढ़कर सात बाँस की चटाइयों (मोस्टों) में डालते थे। सातवीं चटाई में जो आटा छनकर आया, उसको सीधी (सुल्टी) नाली से भरकर लेते थे। हर गाँव को बारी-बारी से यह बेगार देनी पड़ती थी। इस आटे को उड़ाने का पत्थर अभी तक कत्यूर के तैलीहाट ग्राम में विद्यमान है। अपने लायक आटा निकाल लेते थे, बाकी लौटा देते थे।

मालगुज़ारी धन के रूप में नहीं, बल्कि सम्पत्ति के रूप में ली जाती थी। कर का कोई नियम नहीं था, जैसा मन में आया, नियम बना लिया। जो चाहा, प्रजा के घर से ले लिया। प्रजा में जो सुन्दर लड़के व लड़कियाँ होती थीं, उनको दास व दासियाँ बनाने को जब दस्ती घरों से मँगा लेते थे। राजमहल से करीब ६ मील की दूरी पर हथछीना (कौसानी) का मीठा व स्वास्थ्यवर्द्धक पानी राजाश्रों के पीने के वास्ते नित्य आता था। अब तक उस नौले का नाम थामदेव ब्रह्मदेव का नौला है। उनके लिये दोनों ओर से बर्तन लाने ले जाने के लिये रात-दिन दासों की कतार खड़ी रहती थी, जो हाथोंहाथ पानी महल को पहुँचाते थे। इसी से आखीर के कत्यूरी राजाओं के विषय में यह किंवदन्ती तमाम में प्रचलित है:-
"बाँजा घट की भाग उघौनी।
बाझी गैको दूध छीनी॥
उल्टी नाली भर दीनी।
कणक बतै लीनी।"

राजा वीरदेव ने तो यहाँ तक अत्याचार कर प्रजा को चिढ़ाया कि अपनी मामी से जबरदस्ती विवाह कर लिया। कहते हैं कि "मामी तिले धारो बोला" वाला कुमय्याँ ग्रामीण राग उसी दिन से चल पड़ा। मामी का नाम तिला उर्फ तिलोत्तमादेवी था। राजा वीरदेव ने मामी से व्यभिचार कर अपने पाप के घड़े को भरा। यह राजा गाँव में डांडी में जाते थे। डाँडीवालों के कंधों को छेदकर लोहे का कड़ा डालकर उसमें डांडी के डंडों (साँगों) को बाँध देते थे, ताकि डांडीवाले राजा को अत्याचारी समझकर कहीं खड्ड(भ्योल) में न गिरा दें। अन्त में दो बहादुर आदमी मिल ही गये। उन्होंने सोचा कि वे तो बरबाद हो गये हैं, अब इस अन्यायी राजा को क्यों छोड़ा जाय। अतः एक दिन लोगों ने गुप्त मंत्रणा कर राजा को खड्ड(भ्योल) में डालने की ठहराई। वे दो आदमी जिनके कंधों में डंडे बंधे थे, मय राजा की डांडी के एक ऊँचे पहाड़ से नीचे कूद गये, और मय राजा के चकनाचूर हो गये।

इस ज़ालिम राजा की मृत्यु के बाद उसकी संतान में भारी युद्ध ठन गया। भाई-भाई में भारी लड़ाई हो गई। सारा राज्य छिन्न-भिन्न हो गया। इसी खानदान के लोगों ने सारा राज्य आपस में बाँट लिया। जहाँ के वे पहले प्रान्तीय शासक या फौजदार होगें, वहाँ उन्होंने अपने को स्वतंत्र नृपति बना लिया। ठीक उसी प्रकार, जैसे विस्तृत मुग़ल सामाज्य के छिन-भिन्न होने पर प्रान्तों के सूबेदार, निज़ाम व नवाब वजीरों ने राज्य आपस में बाँट लिया और स्वतंत्र नरेश बन गये। कुमाऊँ के बाहर गढ़वाल के मांडलीक नरेशों ने भी, जो अब तक कार्तिकेयपुर के शासन के अधीन थे, राज-कर देना छोड़ दिया और वे भी स्वतंत्र नृपति हो गये।

चंदों के आने पर यही हालत कुमाऊँ की थी। छोटे-छोटे मांडलीक राजा यत्र-तत्र राज्य करते थे, और एक दूसरे पर चढ़ाई कर अपनी-अपनी प्रभुता जाहिर करते थे। इसी खानदान के राजा ब्रह्मदेव ने (जिनके नाम से ब्रह्मदेव की मंडी बसी) काली कुमाऊँ में अपना राज्य स्थापित कर लिया। इनका किला सुई में था, और डुमकोट का रावत राजा इनके अधीन था। दूसरी शाखा डोटी में राज्य करने लगी। तीसरी अस्कोट में स्थापित हो गई। चौथी बारामंडल में आ बसी। पाँचवीं कत्यूर व दानपुर के ऊपर आधिपत्य जमाये रही। छठी शाखा पाली में यत्र-तत्र राज्य करती थी, जिनके मुख्य स्थान उस समय द्वाराहाट तथा लखनपुर में थे।

श्रोत: "कुमाऊँ का इतिहास" लेखक-बद्रीदत्त पाण्डे, अल्मोड़ा बुक डिपो, अल्मोड़ा,
ईमेल - almorabookdepot@gmail.com, वेबसाइट - www.almorabookdepot.com

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