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कत्यूरी शासन-काल - 03

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कुमाऊँ में कत्यूरी शासन-काल - 03

पं. बदरीदत्त पांडे जी के "कुमाऊँ का इतिहास" पर आधारित

वर्तमान में कुमाऊँ का जो इतिहास उपलब्ध है उसके अनुसार ऐसा माना जाता है कि ब्रिटिश राज से पहले कुछ वर्षों (१७९० से १८१७) तक कुमाऊँ में गोरखों का शासन रहा जिसका नेतृत्व गोरखा सेनापति अमर सिंह थापा ने किया था और वह पश्चिम हिमाचल के कांगड़ा तक पहुँच गया था।  गोरखा राज से पहले चंद राजाओं का शासन रहा।  अब तक जो प्रमाण मिलते हैं उनके अनुसार कुमाऊं में सबसे पहले कत्यूरी शासकों का शासन माना जाता है।  पं. बदरीदत्त पांडे जी ने कुमाऊँ में कत्यूरी शासन-काल ईसा के २५०० वर्ष पूर्व से ७०० ई. तक माना है।

श्री बद्रीदत्त पांडे जी ने दिल्ली के बारे में कहा है कि, दिल्ली की उत्पत्ति के बारे में विवेचन करते हुए श्रीकनिधम कहते हैं कि "कुमाऊँ के राजा पुरु (Porus) के राजा दिल्लू को मारने की बात यदि सत्य माने, तो फ़िरिश्ते की दी हुई जो वंशावली है, वह ठीक नहीं जंचती, क्योंकि उसमें पुरु के भतीजे जूना को सेल्यूकस निकेटर का समकक्षी न बताकर अर्दशीर बबेकन का सहयोगी बताया है, जो २२६ सन् में हुआ।" और भी, दिल्लू के कुमाऊँ के राजा के हाथ मारे जाने की कहानी ठीक ऐसी ही राजावली में कही गई है, जैसी कुमाऊँ के राजा सुकवन्ती या शुकदत्त, शकदत्त या शकादित्य द्वारा दिल्ली के राजा राजपाल के मारे जाने की बात।" राजावली एक हस्त-लिखित पुस्तक है, जो कनिंघम साहब को कुमाऊँ के पुराने कागजातों में मिली। इसमें दिल्ली के राजवंशों का वर्णन था और उसी में कुमाऊँ के राजा के दिल्ली के राजा को हराने की बात लिखी है।

मनोरथ पांडेजी शास्त्री लिखते हैं-"स्यूरा प्यूरा के गीत इस कुर्मांचल में प्रसिद्ध हैं। स्युरा सिकंदर व प्यूरा पोरस का अपभ्रंश है, ऐसा कहा जाता है। पर स्यूरा प्यूरा यहाँ के खस-जाति के पैके वीर पुरुष माने जाते हैं।"

फिरिश्ते में एक अन्य स्थल में यह बात लिखी है-“सन् ४४०-४७० में जब दिल्लीपति रामदेव राठौर ने दिग्विजय का डंका बजाया, तो कुमाऊँ के राजा ने, जिसका वंश वहाँ २००० वर्ष से राज्य करता था, उसका विरोध किया। दिन-भर लड़ाई हुई, जिसमें दोनों ओर के बहुत-से सैनिक घायल हुए। अन्त में राजा कुमाऊँ हार गया और अपने हाथी व खजाने को लेकर पहाड़ों को भाग गया। राजा कुमाऊँ अपनी लड़की विजयी सम्राट सम्राट रामदेव को देने को बाध्य किया गया।"

पर फिरिश्ते ने यह नहीं लिखा कि यह राजा किस वंश का था। संभव है, यह वर्णन कत्यूरी राजाओं की बाबत हो। दिल्लीपति राजा का विरोध करने की सामर्थ्य साधारण राजा में नहीं हो सकती थी। सूर्यवंशी कत्यूरियों ने उनका विरोध किया होगा। उनकी राज्य सीमा तराई भावर से परे होगी, क्योंकि हाथी की लड़ाई पहाड़ में तो हो नहीं सकती। यह लड़ाई देश में हुई होगी, क्योंकि राजा हारकर पहाड़ को भागा, ऐसा साफ-साफ लिखा है।

५. कत्यूरियों की राजधानी

पं. बद्रीदत्त पण्डे जी ने लिखा है कि पुरातत्त्ववेत्ता कनिंघम कहते हैं कि कत्यूरी राजाओं की राजधानी लखनपुर या विराटपत्तन में थी, जो रामगंगा के किनारे है। चीनी यात्री ह्यूनसांग ने भी ब्रह्मपुर व लखनपुर का जिक्र किया है कि वे वहाँ गये थे। ह्यूनसांग लिखते हैं कि वहाँ बौद्ध व ब्राह्मण दोनो मत के लोग रहते थे। कुछ लोग विद्याव्यसनी थे, बाकी खेती करते थे। संभव है, यह राजधानी कत्यूरियों की हो। ह्यूनसांग ने इस राजधानी व राज्य को मंडावर से ८० मील इधर को बताया है। कुछ लोग ब्रह्मपुर राज्य को गढ़वाल में होना कहते हैं, पर ह्यूनसांग के अनुसार यह वहाँ नहीं हो सकता। कुछ लोगों ने इसे बढ़ापुर बताया है, जो ठीक मालूम होता है। लखनपुर का पहला नाम शायद विराटपट्टन था। लखनपुर छठी शताब्दी से पहले बसा होगा, क्योंकि ह्यूनसांग यहाँ ७वीं शताब्दी में आये थे। ७वीं सदी में कत्यूरी राजा जाड़ों में ढिकुली के निकट रहते थे, इसमें सन्देह नहीं है। गानेवाले भड़ कहते हैं:- "आसन वाका वासन वाका सिहासन वाका, बाका ब्रह्म वाका लखनपुर।"

श्रीअठकिंसन साहब का अनुमान है कि आसन व वासन इस छंद में कत्यूरी राजाओं के नाम हैं, पर आसन के मानी बैठने के वस्त्र के भी हैं और वासन बर्तनों को कहते हैं। ब्रह्म व लखनपुर तो वास्तव में राज्य व राजधानी के नाम हैं। डोटी, अस्कोट व पाली के कत्यूरी राजाओं की वंशावली में आसन्तिदेव व वासन्तिदेव के नाम आये हैं। तामाढौन के पास सारंगदेव का मंदिर है, इसमें सन् १४२० ईसवी खुदा है। आसन्तिदेव व वासन्तिदेव इनसे नौ पुश्त पहले हुए हैं, अतः लखनपुर का छठी शताब्दी में बसना संभव है। कुछ लोग लखनपुर का जोहार में होना कहते हैं, क्योंकि एक स्थल में इसका गोरी नदी में होना कहा गया है। यों, एक लखनपुर अल्मोड़ा के पास भी है, पर श्रीकनिंघम ने जो नकशा ब्रह्मपुर व लखनपुर का दिया है, उससे स्पष्ट है कि ब्रह्मपुर राज्य कुमाऊँ में था, और लखनपुर उसकी राजधानी रामगंगा के किनारे थी, जो पाली पछाऊँ में है।

श्रोत: "कुमाऊँ का इतिहास" लेखक-बद्रीदत्त पाण्डे, अल्मोड़ा बुक डिपो, अल्मोड़ा,
ईमेल - almorabookdepot@gmail.com, वेबसाइट - www.almorabookdepot.com

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