
रंगवाली पिछौड़ा
कुमाऊँनी महिलाओं की पहचान
भारतीय महिलाओं के पारंपरिक परिधानों में लहंगा-दुपट्टा (घाघरा-ओढ़नी) विशेष महत्व रखता है, देश के अन्य अंचलों की तरह ही उत्तराखण्ड के विभिन्न अंचलों में यह परंपरागत रूप से महिलाओं द्वारा पहना जाता है। कुमाऊं अंचल में यहां की स्थानीय भाषा में घागरी-पिछोड़ा कहते हैं, घागरी से तात्पर्य लहंगे या घाघरे से तथा पिछौड़ा अर्थात दुपट्टा या ओढनी। यहां घागरी (लहंगा/घाघरा) किसी भारी फ़ैबरिक जैसे सनील (वेलवेट) की प्लेन या कढाई किया हुआ और दुपट्टा हल्के फ़ैबरिक और एक विशेष डिजाईन के प्रिण्ट का होता है।
कुमाऊँ अंचल में ओढनी/दुपट्टे (पिछौड़ी या पिछौड़ा) के पारंपरिक डिजाईन (प्रिण्ट) को स्थानीय भाषा में रंग्वाली कहा जाता है शायद यह रंगोली शब्द का अपभ्रंश हो सकता है क्योंकि ये डिजाईन कुमाऊं में प्रचलित रंगोली जिसे ऎपण कहते हैं का ही प्रिण्ट संस्करण कह सकते हैं। शादी, नामकरण, व्रत त्यौहार, पूजन-अर्चन जैसे मांगलिक अवसरों पर परिवार व निकट रिश्तेदारों की महिला सदस्यों द्वारा यह परिधान विशेष रूप से पहना जाता है। इसे लहंगे के साथ पहने जाने का प्रचलन रहा है पर आजकल महिलाओं द्वारा सुविधानुसार साड़ी के साथ से भी पहना जाता है।

रंगवाली के डिजाईन में मध्य जैसे ऎपण की चौकी बनायी जाती है उसी से मिलते जुलते डिजाईय में स्वास्तिक का चिन्ह ॐ के साथ बनाया जाता है। भारतीय संस्कृति में इन प्रतीकों का अपना विशेष महत्व है। जहां ॐ समस्त विश्व के सुक्ष्म स्वरूप और स्वास्तिक का चिन्ह अपनी खुली चार भुजाओं द्वारा सदैव चलायमान रहने का संदेश देता है। स्वास्तिक चिन्ह की चार मुड़ी हुयी भुजाओं के मध्य शंख, सुर्य, लक्ष्मी तथा घंटी की आकृतियां बनायी जाती हैं। सुर्य को हमारी संस्कृति में असीम ऊर्जा और शक्ति तथा निरंतरता का प्रतीक माना जाता है। वैज्ञानिक रूप से भी सुर्य हमारे लिए असीम ऊर्जा और इस पृथ्वी गृह पर जीवन का आधार है। दूसरी भुजा के अंदर देवी लक्ष्मी परिवार में धन धान्य व कुल तथा निकट सम्बन्धियों की उन्नति के प्रतीक के रूप में विराजमान रहती हैं। इसी प्रकार हिन्दु संस्कृति में किसी भी शुभ कार्य का उदघोष शंख बजाकर किया जाना शुभ माना जाता है। ऎसा माना जाता है कि शंख की ध्वनि के समक्ष बुरी आत्माऎं और दोष निकट नही आ पाते। इसी प्रकार घंटी की ध्वनि भी शुभ कार्यों के समय इसी प्रयोजन से बजायी जाती है।

पहले रंगवाली पिछौड़ा घर पर ही मलमल, कौटन वाईल, चिकन फ़ैब या किसी अन्य हल्के सूती फ़ैब्रिक पर रंगकर बनाया जाता था। सबसे पहले सफ़ेद सूती कपड़े को धोकर सुखाया जाता था तथा फ़िर उसे पीले रंग से डाई किया जाता था। रगने के लिए मुख्य रूप से दो रंग पीला और लाल प्रयोग होते हैं जो बाजार में पंसारी की दुकान पर आसानी से उपलब्ध होते हैं। वैसे पुराने समय में पीला रंग हल्दी से या किलमोडे (किन्गोड़ा या किल्मोड़ी भी कहते हैं) की जड़ को कूटकर उसके रस से बनाया जाता था। इसी प्रकार लाल रंग के लिए हल्दी को कूटकर उसमें नीबू और सुहागा मिलाकर तांबे के बर्तन में रख देते थे और दुसरे दिन उसे पकाकर लाल रंग तैयार हो जाता था। उसके उपरान्त सूखने पर सिक्के के बाहर कपड़ा लपेटकर बांध लिया जाता था, जो इस पीले कपड़े पर प्रिण्ट करने के काम में लिया जाता था। क्योंकि प्रिण्टिंग का सारा कार्य महिलाओं द्वारा सिकके की सहाय्ता से हाथों से होता था तो प्रिण्ट करने वालों का सिद्धहस्त होना अति आवश्यक था।
सबसे पहले सिक्के खड़ी अवस्था में प्रयोग कर उसके किनारों से रंग लगाकर मध्य की महीन आकृतियां जैसे स्वास्तिक तथा उसके अंदर की फ़ूल पत्तियां और उसकी चारों भुजाओं की आकृतियां बनायी जाती हैं। यह कार्य प्रवीण महिलाओं द्वारा ही किया जाता है क्योंकि इन आकृतियों को बनाना सभी के लिए आसान नही है। मध्य की चौकी वाली प्रिण्टिंग हो जाने के बाद इसके चारों ओर सिक्के को पड़ी अवस्था में प्रयोग कर गोल बूटे छापे जाते हैं य कार्य इतना मुशकिल नही होता केवल पैटर्न का ध्यान रख्ना होता है तो इस कार्य के लिए कम प्रवीण या नौसिखियों और बच्चों को भी लगाया जाता है। अंत में पिछौड़े का बार्डर बनाया जाता है जो फ़िर सिक्के को खड़े रूप में प्रयोग कर रेखाओं द्वारा बनाया जाता है।
पिछोड़े के मुख्य प्रारूप में मध्य की चौकी मे स्वास्तिक और अन्य चिन्ह बनाये जाते हैं। तदोपरान्त बाहर के भाग पर सिक्कों से बने गोल बूटे तथा उसके बाद पिछोड़े का बार्डर मुख्य हैं। अन्य बातें कलाकर की योग्यता तथ उसकी परिकल्पना पर निर्भर करती हैं जैसे चारों कोनों पर कुछ अन्य शुभ प्रतीक या फ़ूल पत्तियां आदि। मध्य चौकी में भी स्वास्तिक व अन्य प्रतीकों को विभिन्न आकृतियां बनाकर सजाया जा सकता है। यह सब रगने वाली कलाकार पर निर्भर करता है कि वह इस प्रारूप को अपनी परिकल्पना और सिद्ध हाथों से कितना सुन्दर और आकर्षक बना सकत्ती है। पिछौड़े के बौर्डर पर चारों ओर प्लेन/फ़ैंसी लेस या गोटा सिलकर उसे और आकर्षक बनाया जा सकता है।

पिछोड़े के मुख्य प्रारूप में मध्य की चौकी मे स्वास्तिक और अन्य चिन्ह बनाये जाते हैं। तदोपरान्त बाहर के भाग पर सिक्कों से बने गोल बूटे तथा उसके बाद पिछोड़े का बार्डर मुख्य हैं। अन्य बातें कलाकर की योग्यता तथ उसकी परिकल्पना पर निर्भर करती हैं जैसे चारों कोनों पर कुछ अन्य शुभ प्रतीक या फ़ूल पत्तियां आदि। मध्य चौकी में भी स्वास्तिक व अन्य प्रतीकों को विभिन्न आकृतियां बनाकर सजाया जा सकता है। यह सब रगने वाली कलाकार पर निर्भर करता है कि वह इस प्रारूप को अपनी परिकल्पना और सिद्ध हाथों से कितना सुन्दर और आकर्षक बना सकत्ती है। पिछौड़े के बौर्डर पर चारों ओर प्लेन/फ़ैंसी लेस या गोटा सिलकर उसे और आकर्षक बनाया जा सकता है।
आजकल रेडीमेड और डिजाईनर पिछौड़ों का चलन हो गया है जो ज्यादा आकर्षक तथा आरामदायक हो सकते हैं। अब बाजार में जाइये अपनी पसन्द का पिछौड़ा खरीद लाईये, कुमाऊ के मुख्य बाजारों सभी जगह आपको रेडीमेड रंगवाली पिछौड़ा मिल जायेगा। इसके अलावा भी उत्तराखण्ड के मुख्य बाजारों तथा दिल्ली में भी कुछ विशेष दुकानों पर आपको यह उपलब्ध हो जायेगा। यहां तक कि रंगवाली पिछौड़ा अब अमेज़न पर भी उपलब्ध है।
रंगवाली पिछौड़ा ऑनलाइन उपलब्ध:
आप रंगवाली पिछौड़ा अमेजॉन तथा निम्न अन्य ऑनलाइन स्टोर्स से भी प्राप्त कर सकते हैं:-
अमेजॉन पहाड़ीकार्ट के ऑनलाइन स्टोर पर
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Samaun - The Himalayan Treasure, शिमला बाईपास रोड, बड़ोवाला, नियर भट्ट कॉलोनी, देहरादून के ऑनलाइन स्टोर
कल्चरल ट्रेंड्स के ऑनलाइन स्टोर पर
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लेकिन लोकप्रियता के नाम पर इस परिधान के साथ कई लोगों द्वारा इसकी विशिष्टता के साथ जाने अनजाने मजाक भी किया जाने लगा है जैसे कुछ अति उत्साही युवतियों द्वारा जीन्स के साथ दुपट्टा में रंगवाली प्रिंट या अन्य परिधानों में रंगवाली प्रिंट छापकर अपने को पहाड़ी पहचान देने की कोशिश। त्यौहारों और धार्मिक आयोजनों के अलावा मेलों, स्टेज प्रस्तुतियों और नेताओं के स्वागत में इसका पहना जाना एक आम बात हो गयी है। यह सब इस परिधान को लोकप्रियता भले ही प्रदान कर रहा हो पर परोक्ष रूप से यह इस परिधान की गरिमा को भी नष्ट कर रहा है। इस सम्बन्ध में अपने भावों को कुमाऊँनी कवयित्री चम्पा पांडे जी ने काव्य रूप में बड़े हो मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है:-
रंगवाई पिछोैड़ी सबूक सदा बणी रो,
यौ छु हमौर संस्कृति पछयांण इकैं फिक नीं पणन दियो।
जतकैं यौ छांजू बस उत्कणि यैक प्रयोग करो,
खालि फैशनक नाम पर इस्तमाल करबे यैक चमक कम नीं करो।
दीदी-भुलियो ,ठुल इजा-काखियों हाथ जोड़ी बेर बिनती सुणो,
यौ पिछौड़ शान छु हमौर यकैं आम पोशाक नीं बनण दियो।
जैक मन जब आयि तब इकैं पैरि लिंछा,
अगर इसकै पैरनै रला तो एक दिन यौ हमौर पछयांण एक आम लुकुड़ बन जाल्।
कभतै खेल कौतिकौं में पैरंछा स्टेज शो और नेताओं स्वागत में पैरंछा,
किलै धार्मिक चीजों कैं फैशन में बदउण लै रछा।
यौ रंगवाई पिछौड़ कैं बस शुभ -काम ,त्यार -ब्यार और धार्मिक कामु मजी पैरी करो,
यौ छु हमौर संस्कृति पछयांण इकैं फिक नीं पड़न दियो।
चाहे आज रेडीमेड पिछौड़े से वह पारंपरिक हाथ के रंगे पिछौड़े जैसी अपने लोककला की सुगंध ना आती हो पर एक बात तो तय है कि रंगवाली पिछौड़ा कई बदलावों के बावजूद आज भी कुमाऊनी लोक कला तथा कुमाऊं के पारंपरिक परिधान के रूप में अपनी पहचान बनाये हुए है। आज किसी महानगर या कुमाऊं के अतिरिक्त अन्य किसी स्थान पर विवाह/उत्सव के मौकों पर रंगवाली पिछौड़ा ही कुमाऊनी महिलाओं को पहचान प्रदान करता है।
रंगवाली पिछोड़ा पर कविता चम्पा पांडे जी के फेसबुक पेज चम्पा पहाड़ी उत्तराखण्डी से साभार
9 टिप्पणियाँ
बहुत अच्छा लगा यहां आकर। उत्तराखण्ड से मेरा पुराना रिश्ता है। इसे अपनी पसंदीदा सूची में शामिल कर लिया है।
जवाब देंहटाएंजानकारी से भरा आलेख है जो कुंमायुनी संस्कृति से अनभिज्ञ लोगों के लिए अधिक उपयोगी है. कृपया अगली पोस्ट प्रकाशित करें.
जवाब देंहटाएंधन्यबाद जोशी जी
जवाब देंहटाएंपिछौड़ा के बारे अछी जानकारी दि है आपने.......आपका लेख पढ़ कर रंगीली पिछौडी पहनी मा - बहनों की याद आ गयी आज !!
बहुत अच्छा लगा यहां आकर।
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया. बचपन के देखे पिछोड़ों की रंगवाई के दृश्य याद आ गए.
जवाब देंहटाएंघुघूतीबासूती
अति सुन्दर, धरोहर....
जवाब देंहटाएंराजेश जी बहुत ही बढिया आपने पहाडी पिछोड के बारे मे अच्छी जानकारी दि है, हमे मिल कर पहाड की जानकारी ज्यादा से ज्यादा देनी चाहीए।
जवाब देंहटाएंhttp://maheshkaskhet.blogspot.com
हमरो कुमाऊ
joshi ji aap ne pahad ki dharoharo ko punarjivit karne ka safal prayas kiya hai
जवाब देंहटाएंbhavishya me bhi ise jari rakhe
dr kamlesh shakta
champawat
uttarakhand
Good Article
जवाब देंहटाएंinformative Article
nice Article
superb Article
Good Article