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परमानंद - कुमाऊँनी कविता

आज भो सब जाग जाड़क प्रकोप हरौ

"परमानंद"
(रचनाकार: उमेश चंद्र त्रिपाठी "काका गुमनाम")

सुप्रभात हो दगड़ियो।
आज भो सब जाग जाड़क प्रकोप हरौ और आज लखनऊ में लै घनघोर जाड़ हरौ।
प्रस्तुत छू आजैकि कविता "परमानंद"

ओ वे ईजा आज जाडौक, यदू हगो प्रकोप।
घुन च्यून एक करि बेर, रजै में खित हालि टोप।
रजै में पड़िगे टोप, चार कंबल माथि बै हालिं।
गरम लुकुड़ पैरबेर, द्वी शाल ख्वरा मलि डालि।
अरड़क मारि, अरणपट्ट हरौ बिस्तर लै तलीबै।
लागणों धर हालौ मुंकू, बर्फेकि सिल्ली मलीबै।

भैर पड़ि गे बरफ, जां तक देखणयूं हैरौ सफेद।
स्नान ध्यान छोड़ो, यां तो खांणंक लै है गो भेद।
खांडक लै हैरौ भेद, यस में निन पेट लै कसी जिनूं।
भितेर सगढ़ जली छू, आलु भुजि भुजी खै लिनू।
चुड़कानि भात कुड़कुड़ आलु, मिलि जौ तो आनंद ए जो।
कें रस भात भांगैकि चटनि बड़ी साग है जो, तो परमानंद जै है जो।


जै जै हमार पहाड़! जै जै उत्तरांचल!
उमेश त्रिपाठी (काका गुमनाम) द्वारा रचित एंव प्रसारित
उमेश चंद्र त्रिपाठी "काका गुमनाम" 02-01-2018
श्री उमेश चंद्र त्रिपाठी "काका गुमनाम" जी की फेसबुक ग्रुप कुमाऊँनी शब्द सम्पदा पोस्ट से साभार

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