'

पत्थर फूल या झूला घास (Lichen Furn)

Lichen Furn,patthar phool,jhoola ghas, jhula jhaad, Oak tree furn, झूला घास या लाइकेन

झूला घास या पत्थर फूल (Lichen Furn)

झूला घास या पाथर फूल Lichen की एक किस्म है जो पहाड़ के जंगल में ज्यादातर चट्टानों और बांज के पेड़ (Oak Tree) पर फर्न के रूप में पाया जाता है।  भारत के अन्य क्षेत्रो में इसे पत्थर फूल, पंजाबी में दगड़ फूल, तमिल में कल्पासी आदि नामों से भी जाना जाता है। परिष्कृत करने पर यह एक उत्कृष्ट मसाले की तरह पूरे भारत में व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है।  पोटली मसाला, बोतल मसाला, गलौटी मसाला और निहारी के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण अवयव है।  झूला घास एक जीवित जीव है जो अपने आप बढ़ता है और भोजन बनाने के लिए प्रकाश संश्लेषण का उपयोग विकसित होता है।  यह मॉस(Moss) या खरपतवार नहीं बल्कि लाइकेन है जिसका पेड़ पर उगना पेड़ को ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचाता है क्योंकि यह पेड़ से पोषक तत्व नहीं लेता है।

झूला-घास (लाइकेन) की जैविक संरचना

लाइकेन, कवक और शैवाल के संयोग से मिलकर बनी जैविक संरचना है।  शैवाल फोटो-सिंथेसिस प्रक्रिया से भोजन तैयार करता है और कवक उसकी रक्षा करता है।  रंगरूप में यह कवक की तरह होता है और इसमें पानी सहेजने के लिए इसमें कोई जड़ या तना नहीं होता।  ये हवा में मौजूद पानी का इस्तेमाल करते हैं। पानी और सूरज की किरणों से अपना भोजन तैयार करने वाले लाइकन अल्ट्रा वायलट किरणों से सुरक्षा भी करते हैं।  ये अधिकतर पेड़ की नमी वाली छाल, पत्थर और कभी-कभी दीवार, छत और मिट्टी पर भी उग आते हैं।

लाइकेन वास्तव में कवक (Fungi) तथा शैवाल (Algae) दोनो से मिलकर बनती है। इसमें कवक तथा शैवालों का सम्बन्ध परस्पर सहजीवी (symbiotic) जैसा होता है। कवक जल, खनिज-लवण, विटामिन्स आदि शैवाल को देता है और शैवाल प्रकाश संश्लेषण (Photosynthesis) की क्रिया द्वारा कार्बोहाइड्रेट का निर्माण कर कवक को देता है। कवक तथा शैवाल के बीच इस तरह के सहजीवी सम्बन्ध को हेलोटिज्म(Helotism) कहते हैं। लाइकेन शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग ग्रीक दार्शनिक थियोफ्रेस्टस ने किया। लाइकेन का अध्ययन लाइकेनोलॉजी (Lichenology) कहलाता है। उत्तराखंड की पहाड़ियों से प्रतिवर्ष लगभग 750 मीट्रिक टन लाइकेन एकत्र किया जाता है, जिसे उत्तराखंड वन विकास निगम के तीन हर्बल मंडियों में खुली नीलामी के माध्यम से बेचा जाता है।

झूला-घास (लाइकेन) का वानस्पतिक वर्गीकरण

लाइकेन वैज्ञानिक रूप से परमेवीएसी परिवार से संबंधित है जिसके अन्तर्गत लगभग 80 जेनस तथा 20,000 प्रजातियॉ पाई जाती है। उत्तराखण्ड में लाइकेन की 500 प्रजाति पाई जाती है, जिनमें से 158 प्रजातियॉ कुमॉऊ की पहाडियों में पाई जाती है। उत्तराखण्ड में झूला (लाइकेन) को अनेकों नामों से जाना जाता है। जैसे- मुक्कू, शैवाल, छरीया, झूला। पारमिलोडड लाइकेन उत्तराखण्ड की पहाडियों से व्यावसायिक तौर पर एकत्रित किया जाता है। लाइकेन मुख्यतः पेडों की छाल तथा चट्टानों पर उगता है। कई पेडों की प्रजातियॉ जामुन, बांज, साल तथा चीड के विभिन्न प्रकार के लाइकेन की वृद्धि में सहायक होते है। क्वरकस सेमिकारपिफोलिया (बांज) पर लाइकन की 25 प्रजातियॉ, क्वरकस ल्यूकोट्राइकोफोरा पर 20 प्रजातियॉ एवं क्वरकस फ्लोरिबंडा में लाइकेन की 12 प्रजातियॉ पाई गयी है।

झूला-घास (लाइकेन) के विभिन्न प्रयोग

पारमिलोइड लाइकेन जैसे कि इवरनिसेट्रम, पारमोट्रिना, सिट्रारिओपसिस, बलवोथ्रिक्स, हाइपोट्रिकियाना और राइमिलिया, फ्रूटिकोज जाति, रामालीना और यूसेन के साथ हिमालय के सम शीतोष्ण क्षेत्रों से इकट्ठा किया जाता है। इसका प्रयोग इत्र, डाई तथा मसालों में बहुतायत किया जाता है तथा इसको गरम मसाला, मीट मसला, एवं सांभर मसला में मुख्य अव्यव के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। साथ ही साथ औषधीय रूप से लाइकेन को आयुर्वेदिक तथा यूनानी औषधी निर्माण में मुख्य रूप से प्रयुक्त किया जाता है जिसमे Charila तथा Ushna नामक दवाइयॉ भारतीय बाजार में प्रसिद्ध है।

लाइकेन वायु प्रदूषण के संकेतक (Indicator) होते हैं। जहाँ वायु प्रदूषण अधिक होता है, वहाँ पर लाइकन नहीं उगते हैं। सल्फर डाइऑक्साइड की सूक्ष्म मात्राओं की इनकी वृद्धि पर फर्क पड़ता है। अत: ये वायु प्रदुषण के अच्छे सूचक होते हैं। प्रदूषित क्षेत्रों में ये विलुप्त हो जाते हैं। इनका उपयोग पर्यावरणीय परिस्थितियों और वायु की गुणवत्ता का अध्ययन करने के लिए भी किया जाता है।

Lichen Furn,patthar phool,jhoola ghas, jhula jhaad, Oak tree furn, झूला घास या लाइकेन

इसके अलावा इसका प्रयोग भारतीय संस्कृति में हवन सामाग्री में भी उपयोग किया जाता है। लाइकेन में वैज्ञानिक रूप से बहुत सारे प्राथमिक व द्वितीयक मैटाबोलाइटस पाये जाते है। मुख्यतः इसमें Usnic Acid की मौजूदगी से इसका वैज्ञानिक एवं औद्योगिक महत्व और भी बढ जाता है। विभिन्न शोध अध्ययनों के अनुसार Usnic Acid होने की वजह से इसमें जीवाणु नाशक, ट्यूमर नाशक तथा ज्वलन निवारण के गुण पाये जाते है। 2005-06 से पूर्व लाइकेन और अन्य औषधीय पौधों के व्यापार को विनिमित नहीं किया गया था।

झूला घास या लाइकेन का निष्कर्षण

झूला घास (लाइकेन) एक प्रकार का प्रमुख कवक है जो हरा (फ़ाइकोबियंट) और नीला हरा शैवाल (सायनोबियन्ट) का एक पारस्परिक संघ (मायकोबियोन्ट) होता है।  झूला घास या लाइकेन पेड़ों की छाल, लकड़ी, चट्टानों, मिट्टी, और ऐसे ही अन्य परजीवी पर्यावरण में उगने वाले निचले पौधों का समूह है।  जिसकी हजारों प्रजातियां आर्कटिक से उष्णकटिबंधीय क्षेत्र के वनों में पायी जाती है।  इनमें से कई का उपयोग मसाले, रंजक, खाद्य पदार्थ, दवाइयां, पशु चारा, वास्तु मॉडल, पुष्पांजलि और पुष्प सजावट, इत्र और के लिए व्यावसायिक रूप से तथा वायुमंडलीय प्रदूषण को जांचने के लिए परीक्षण जीवों के रूप में किया जाता है।

इसके अच्छे आर्थिक मूल्य, आसान पहुंच तथा तैयार उपलब्धता () के कारण लाइकेन (स्थानीय रूप से मक्कू या झूला घास कहा जाता है) ओक के पेड़ पर अप्रैल से सितंबर तक एकत्र की जाती है।  यह जंगल से सबसे अधिक एकत्र किया जाने वाला गैर लकड़ी वन उत्पाद है जो उत्तराखंड के दूधातोली वन क्षेत्र में बहुतायक से पाया जाता है।  पश्चिमी हिमालय के नम समशीतोष्ण क्षेत्रों में स्थानीय व अन्य ग्रामीणों द्वारा वनों से लाइकेन निकाला जान एक आम बात है।  यहां पर लाइकेन एकत्र करने के लिए ओक(बाँज) के साथ-साथ और अन्य वृक्षों की टहनियों में लाइकेन की भरपूर मात्रा में होती हैं।

भारत में लाइकेन का संग्रहण हिमालय के नम समशीतोष्ण क्षेत्रों से एकत्र किए जाते हैं और स्वदेशी रूप से रंजक, इत्र और मसाला की तैयारी के लिए उपयोग किया जाता है।  उत्तराखंड के पर्वतीय वनों से हर साल लगभग 750 टन लाइकेन एकत्र किया जाता है और अन्य 800 टन का निर्यात किया जाता है।  कुछ समय पूर्व तक स्थानीय बाज़ार में लाइकेन लगभग  रु. 100-130 / किग्रा पर बेचा जा रहा था। जिसके उपरान्त इसकी ग्रेडिंग और ट्रेडिंग के बाद इसका मूल्य दोगुना या तिगुना तक हो जाता है। वैसे मूल्य समय, मांग-आपूर्ति आदि कई कारणों से बदलता रहता है।

उत्तराखंड में झूला-घास (लाइकेन) का क्रय-विक्रय

उत्तराखण्ड के वन विभाग ने वन उत्पाद के विपणन में उत्तराखण्ड वन विकास निगम को शामिल करके सक्रिय भूमिका निभाई। जंगल में झूले के सतत् विदोहन के लिए वन विभाग वनों को कुछ श्रेणियों में ही दोहन की अनुमति प्रदान करता है। गांववासी दैनिक आधार पर वन उत्पाद को एकत्र करते है और जब अच्छी मात्रा में एकत्रित हो जाय तो उसे सुखाने के बाद स्थानीय बाजारों को बेच दिया जाता है जो कि स्थानीय नागरिकों को आर्थिकी प्रदान करता है। वैज्ञानिकों ने लाइकेन की विशेषताओं एवं गुणों को देखते हुए इस पर अधिक वैज्ञानिक शोध कार्य किये जाने की आवश्यकता महसूस की है।

लाइकेन की उपयोगिता को देखते हुए उत्तराखंड वन विभाग के रिसर्च विंग द्वारा इसको संरक्षित करने के प्रोजेक्ट पर काम शुरू हुआ है।  मुनस्यारी के पातालथोर रिसर्च सर्कल में 1.5 हेक्टेअर क्षेत्र लाइकेन गार्डन बनाया गया है। जिसका मुख्य उद्देश्य लोगों में लाइकेन की प्रजातियों के बारे में जागरुकता पैदा करना है। साथ ही इस पर अध्ययन के लिए रिसर्च सेंटर तैयार करना है। इसे कुछ स्थानीय लोगों की आजीविका से भी जोड़ा जा सकता है।

अनुमान बताता है कि एक पेशेवर व्यक्ति लाइकेन समृद्ध जंगल से एक दिन में 6 से 12 किलोग्राम तक झूला-घास या लाइकेन एकत्र कर सकता है और स्थानीय ग्रामीणों भी 3-5 किग्रा तक लाइकेन एकत्र कर लेते हैं।  वैसे पहाड़ों के ऊंचे पेड़ों पर चढ़कर लाइकेन झूला घास को एकत्र करना अपने आप में एक कठिन कार्य होता है।  कई बार झूला इकट्ठा करने के लिए लोग पेड़ों की शाखाओं को काट देते हैं या पुराने पेड़ों धराशाई कर देते हैं।  जिससे से वन सम्पदा की हानि होने से वन आच्छादित क्षेत्र में कमी होती है और वनस्पति की विभिन्न प्रजातियों का अस्तित्व भी प्रभावित होता है।  जिस कारण वनो की भौगोलिक संरचना तथा पारिस्थितिकी तंत्र की कार्यप्रणाली में परिवर्तन के कारण पर्यावरण संतुलन के लिए संकट उत्पन्न होता है।

उत्तराखंड के मुनस्यारी में देश का पहला ‘कवक उद्यान’ विकसित किया गया

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ