
"आड़ू, बेड़ू, घिंगारू" में "घिंगारू" (Himalayan Firethorn)
कुमाऊँ में एक प्रसिद्ध कहावत है, "आड़ू, बेड़ू, घिंगारू" जिसका अर्थ होता है एकदम साधारण और बेमेल समन्वय। अब इस कहावत को तो आप सभी ने सुना होगा, इसमें आड़ू के बारे में आप सभी जानते ही होंगे जिसे आपने खाया भी होगा। यह फल पहाड़ी क्षेत्र में पाया जाने वाला मुख्य फल है और बाजार में भी आसानी से उपलब्ध होता है। दूसरा है बेड़ू के बारे में आप जानते ही होंगे और आपने देखा ही होगा, कम से कम फोटो तो जरुर देखा होगा। इसके नाम की ज्यादा लोकप्रियता तो उत्तराखंड राज्य के प्रतिनिधि गीत "बेड़ू पाको, बार मासा ......." से भी है। लेकिन आज हम इस कहावत के कम लोकप्रिय वृक्ष, घिंगारू के बारे में कुछ अच्छी बातें जानने का प्रयास करेंगे
घिंघारू का पेड़ (Himalayan Firethorn Tree):-
"आड़ू, बेड़ू, घिंगारू" समूह का अंतिम या निकृष्ट सदस्य है "घिंगारू"!, पर्वतीय क्षेत्र में पाया जाने वाला यह मध्यम ऊंचाई का (लगभग २ से ५ मीटर तक) कांटेदार झाड़ीनुमा पेड़ है। इसका पौधा खुली सूखी बंजर जमीन पर अधिक देखा जाता है क्योंकि इसके विकास के लिए अधिक नमी और छाया वाली भूमि की बजाय खुली धूप व सुखी बंजर पहाड़ी जमीन अधिक उपयुक्त होती है। आम पहाड़ी किसान द्वारा इसका उपयोग खेतों कि घेरबाड़ के लिए किया जाता है। इसके विकसित तने की लकड़ी काफी मजबूत होती है जिस से बनी लाठी का प्रयोग "घिंगारूक जांठ" के रूप मे लोगों द्वारा आम तौर पर किया जाता है। कभी-कभी अगर आप ऐसे स्थान पर हैं जहां आपके पास ब्रश और टूथपेस्ट नहीं है तो इसकी कोमल टहनिय़ों को नीम की दातून की तरह भी प्रयोग में ला सकते हैं।

इस पौधे के बारे में वनस्पति विज्ञान की जानकारी के अनुसार इसका वैज्ञानिक नाम पाइराकैंथ क्रेनुलाथा (Pyracantha crenulata) है। यह समुद्रतल से ९०० मीटर से २००० मीटर तक की ऊंचाई पर उगने वाला रोजसी कुल का बहुवर्षीय पौधा हैं। घिंगारू की यह झाड़ीनुमा प्रजाति पूर्वी एशिया के पर्वतीय इलाकों में पाई जाती है। नेपाल में इसे घंगारु के नाम से भी जाना जाता है। उत्तराखंड के कुमाऊँ में इसके पौधे बंजर जगहों पर बहुतायक से पाए जाते है। कहीं-कहीं पर किसान अपने खेतों की बाड़ के लिए इसके पौंधों को लगाकर संरक्षित भी करते हैं। इसके पत्तों और फलों को छोटे मवेशी जैसे बकरियां बड़े चाव से खाती हैं जिस कारण बारिश के दिनों में छोटे मवेशियों का यह एक मुख्य आहार माना जाता है। इसकी टहनियों में कांटे होने के कारण बड़े पशु इसके पत्तों या फलों को उतनी कुशलता से नहीं खा पाते। इसके फल बारिश के मौसम में जंगली जानवरों अर्थात पक्षियों और लंगूर (प्रेस्बिटिस प्रजाति) के भोजन का अच्छा स्रोत होते हैं।
घिंघारू का फल (Himalayan Firethorn fruit):-
घिंगारु के फल के बारे में बात करें तो छोटी सी झाड़ियों के रूप में उगने वाला ‘घिंगारू’ एक जंगली फल है। अप्रैल-मई के महीने में इसमें सफ़ेद रंग के या कह सकते हैं बहुत हल्के गुलाबी रंग के फूल आते हैं तथा इसके बाद जून से सितम्बर तक इसमें फल आते हैं। घिंगारु के फलों का रंग गह्ररा नारंगी-लाल होता है। घिंगारू का फल सेव जैसी आकृति का लेकिन आकार में बहुत छोटा(लगभग छोटी मटर के दाने बराबर) होता है तथा स्वाद में हल्का खट्टा-कसैला मीठा होता है। इस फ़ल की आकृति और रंग लगभग सेव जैसा ही होने के कारण पहाड़ में बच्चे इसे छोटा सेव भी कहते हैं और बड़े चाव से खाते हैं। इसके फलों का सेवन वन्य जीवों से लेकर आम लोग भी चाव से करते हैं।

घिंघारू के औषधीय उपयोग (Medicinal use of Himalayan Firethorn):-
पारम्परिक रूप से घिंगारु का उपयोग घरों में छोटे-मोटे घरेलू उपचार में किया जाता रहा है। फल खाने योग्य होते हैं, चीनी से भरपूर होते हैं और फल पाचन की दृष्टि से बहुत ही लाभदायक फल है। इसके फलों में पर्याप्त मात्रा में शर्करा पायी जाती है जो शरीर को तत्काल ऊर्जा प्रदान करती है। इस वनस्पति का प्रयोग दातून के रूप में भी किया जाता है जिससे दांत दर्द में भी लाभ मिलता है। ‘घिंगारू’ पत्तियों से पहाडी हर्बल चाय बनायी जाती है। इसके फलों को सुखाकर चूर्ण बनाकर दही के साथ खूनी दस्त का उपचार किया जाता है। इस प्रकार इस फल का प्रयोग औषधि के तौर पर किया जाता है, फ़िर भी हम सभी लोग इसकी वास्तविक औषधीय गुणॊं से पूरी तरह से अनजान हैं। ऐसी जानकारियां भी हैं कि इसकी पत्तियों का उपयोग हर्बल चाय बनाने के लिए भी किया जाता है।
घिंगारु के औषधीय गुणों की खोज के सम्बन्ध में रक्षा जैव उर्जा अनुसंधान संस्थान पिथौरागढ़ ने विशेष रूप से कार्य किया है। घिंघारू का वन अनुसन्धान केंद्र ने अपनी नर्सरी में इसका सफल संरक्षण किया है। इसके संरक्षण को लेकर पूर्व में वन अनुसंधान केंद्र ने नर्सरी में इसके पेड़ों को उगाने की कवायत शुरू की थी जिसके बाद यहां पर संरक्षित पेड़ों पर फल व फूल दोनों आ गये। अब तक हुये अनुसंधान व जानकारी के अनुसार घिंघारू में प्रोटीन की काफी मात्रा होती है। बताया जा रहा है कि पर्वतीय क्षेत्र के जंगलो में पाया जाने वाला यह उपेक्षित फल घिंघारू ह्रदय को स्वस्थ रखने में सक्षम हैं।
चिकित्सा शास्त्र के अनुसार इसके फलों के रस में रक्तचाप और हाईपरटेंशन जैसी बीमारी को दूर करने की अद्भुत क्षमता है। इसके औषधीय गुणों को और अधिक पता करने के लिए भी केन्द्र में अनुसंधान किया जा रहा है। चिकित्सा वैज्ञानिकों के अनुसार इसके कि फलों में कार्डियोटोनिक, कोरोनरी वैसोडिलेटर और हाइपोटेंशियल गुण होते हैं। इसका उपयोग कार्डियक फेल्योर, मायोकार्डिअल कमजोरी, पेरोक्सिस्मल टैचीकार्डिया, उच्च रक्तचाप, धमनीकाठिन्य और बर्गर्स रोग (एन.एस. चौहान: 1999) के लिए किया गया है। पके फल को ताजा खाया जाता है और दही के साथ सूखे फल के पाउडर को टोबैकोडी पेचिश (मैनन्डर, एनपी, 2002) के उपचार में उपयोग किया जाता है।

घिंघारू की लकड़ी (Himalayan Firethorn wood):-
कृषि में घिंगारु की झाड़ी का प्रयोग खेतों की बाड़ के रूप में किया जाता है। इसकी कांटेदार झाड़ियों की बाड़ को पार करना पशुओं के लिए काफ़ी मुशकिल होता है। घिंगारू के पेड़ का तना काफ़ी गठीला, लचकदार और मजबूत होता है। जिस कारण इसकी लकड़ी काफी मजबूत मानी जाती हैं जिसका उपयोग छोटे लकड़ी के कृषि यंत्र बनाने में किया जाता है। स्थानीय स्तर पर इससे विभिन्न घरेलू व कृषि उपकरणों के ह्त्थे आदि बनाये जाते हैं। व्यवसायिक स्तर पर भी इसके तने से प्राप्त मजबूत लकड़ियों का इस्तेमाल लाठी (वॉकिंग स्टिक) तथा हॉकी स्टिक बनाने में भी किया जाता रहा है। महानगरों में कुछ परिवारों द्वारा घिंगारु पौधे का प्रयोग ड्राइंग रूम में सजावट के लिए डेकोरेटिव बोन्साई प्लांट (Bonsai Plant) के रूप में भी किया जा रहा है।
उत्तराखंड हिमालय के वन पारिस्थितिक तंत्र में घिंगारू का वृक्ष एक बहुत महत्वपूर्ण प्रजाति है। क्य़ोंकि यह वृक्ष जल संरक्षण, मृदा संरक्षण व वन भूमि की उर्वरता के संरक्षण में एक महत्वपूर्ण कड़ी है। इसके अलावा आम समाज के लिए इसके विभिन्न घरेलू व व्यवसायिक उपयोग हैं। हाल ही के समय में यह देखा गया है कि आधुनिकीकरण और जलवायु परिवर्तन के कारण इसके निवास स्थान पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है क्योंकि आबादी के आस-पास कि बंजर भूमि जो इसका प्राकृतिक आवास है निरंतर कम होती जा रही है। जिस कारण इसके संरक्षण और संवर्धन के बारे में वन विभाग व कुछ सरकारी शोध संस्थान निरंतर प्रयासरत हैं।
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