'

उत्तराखंड का विष्णुमन्दिर - नागार्जुन



उत्तराखंड का विष्णुमन्दिर ‘नागार्जुन’

लेखक: डा.मोहन चंद तिवारी

भगवान् विष्णु ‘नागार्जुन’ नाम से यहां विराजमान हैं।
67 वर्षों से लगातर हो रही है यहां प्रतिवर्ष अठारह पुराणों की कथा।
18अगस्त से 25 अगस्त 2019 तक चल रहा है
'श्रीमद्भागवत महापुराण’ का प्रवचन

ग्राम नागार्जुन के भोलादत्त उप्रेती जी से सूचना प्राप्त हुई कि उत्तराखंड के ऐतिहासिक विष्णु मन्दिर ‘नागार्जुन’ में हर वर्ष की भांति इस वर्ष 18अगस्त, 2019 से ‘भागवत कथा-सप्ताह के अंतर्गत ’श्रीमद्भागवत महापुराण’ की कथा का प्रवचन हो रहा है जिसका समापन 25 अगस्त, 2019 को यज्ञ की पूर्णाहुति और विशाल भंडारे के साथ होगा। ‘श्री विष्णु मन्दिर निर्माण एवं भावत कथा समिति', ग्राम नागार्जुन द्वारा आयोजित इस कथा-सप्ताह के व्यासाचार्य चनोली ग्राम के प्रसिद्ध कथावाचक श्री गणेशदत्त शास्त्री, साहित्याचार्य विशारद हैं जो पिछले अनेक वर्षों से नागार्जुन’ के कथा सप्ताहों में व्यासाचार्य के दायित्व का निर्वहन करते हुए भागवतपुराण, देवीपुराण, शिवपुराण आदि विभिन्न पुराणों की कथाओं का प्रवचन करते आए हैं। पिछले वर्ष उनके द्वारा 'वामन महापुराण’' की कथा का प्रवचन किया गया था।उल्लेखनीय है कि विगत 67 वर्षों से नागार्जुन ग्रामवासी मिलकर प्रतिवर्ष नियमित रूप से भाद्रपद मास में 2गते से धार्मिक ‘सप्ताह’ का आयोजन करते आए हैं जिसमें अठारह पुराणों में से किसी एक पुराण के कथा-प्रवचन का आयोजन प्रतिवर्ष किया जाता है।

द्वाराहाट से लगभग 10-11 कि.मी. की दूरी पर स्थित श्री नागार्जुन देव का यह अत्यन्त रमणीय और भव्य प्राचीन विष्णु मन्दिर उत्तराखंड के ऐतिहासिक मंदिरों में परिगणित है जिसे कुमाऊंनी भाषा में ‘नगार्झण’ भी कहा जाता है। उत्तराखंड के पौराणिक भूगोल की दृष्टि से यही स्थान सुरभि नदी का उद्गम स्थान है जो दक्षिण की ओर बहती हुई विभाण्डेश्वर क्षेत्र में नंदिनी नदी से संगम करती है। मान्यता है कि इस पवित्र स्थान में विष्णु भगवान् ‘नागार्जुन’ नाम से विराजमान रहते हैं। स्कंदपुराणान्तर्गत ‘मानसखण्ड’ में नागार्जुन पर्वत की स्थिति पश्चिमी रामगंगा ‘रथवाहिनी’ नदी के बाईं ओर बताई गई है जहां प्राचीन काल में ‘अर्जुन’ नामक नाग की पूजा होती थी इसलिए इसे ‘नागार्जुन’ कहा जाता है-
“ततस्तु रथवाहिन्या वामे नागार्जुनो गिरिः।
यत्र चैवार्जुनो नाम नागः सम्पूज्यते द्विजाः।।”
-मानसखण्ड, 27.12-13

लोकप्रचलित किंवदन्ती के अनुसार प्राचीन काल में यहां घना जंगल था। एक ग्वाला प्रतिदिन अपनी गायों को चराने इस जंगल में आया करता था मगर उसकी एक गाय ऐसी थी जो इस जंगल में स्थित एक शिला के ऊपर अपने थनों का दूध निखार आती थी और घर में दूध नहीं देती थी इसलिए ग्वाला उस गाय से बहुत दुःखी था। एक दिन ग्वाले ने गुप्त रूप से गाय का पीछा किया। प्रतिदिन की तरह गाय ने जब शिला के ऊपर दूध की धार गिराई तो ग्वाले को गुस्सा आ गया। उसने कुल्हाड़ी से उस शिला पर चोट मारी जिससे शिला का ऊपरी भाग छिन्न-भिन्न हो गया।


कालान्तर में चन्द्रवंशी राजाओं के शासन काल में राजा उद्योत चन्द पश्चिम दिशा में विजय करने के लिए प्रयाण कर रहे थे तो इसी गांव में ‘राजाटौ’ नामक स्थान पर उनका शिविर पड़ा। रात में राजा को स्वप्न में आज्ञा हुई कि “राजन् यहां घनी झाड़ी के नीचे विष्णु मन्दिर की मूर्ति है। आप यहां पर उनका मन्दिर बना कर पूजा-अर्चना की व्यवस्था करें। आप की विजय सुनिश्चित है।” प्रातःकाल राजा ने मन्त्रियों के समक्ष अपने स्वप्न को बताया। ढूंढने पर उन्होंने झाड़ी में खण्डित मूर्ति को देखा। राजा ने संकल्प किया कि यदि वे अपने युद्ध अभियान में सफल हुए तो यहां मन्दिर अवश्य बनाएंगे। दैवयोग से राजा उद्योत चन्द अपने युद्ध प्रयाण में विजयी हुए।राजा ने इसी विजय के उपलक्ष्य में यहां मन्दिर बना कर उसकी प्राण प्रतिष्ठा करवाई। राजा ने अपने पुरोहित गंगोली के उप्रेती ब्राह्मणों को यहां भगवान् विष्णु की पूजा-अनुष्ठान के लिए नियुक्त किया। नागार्जुन मन्दिर में राजा उद्योतचन्द ने ताम्रपत्र द्वारा अपनी राजाज्ञा का लेखन भी करवाया है जिसमें समीपवर्ती कुछ गांव भी इस मन्दिर को दान में दिए गए है और इन गांवों की रकम का अंश इस मन्दिर के पुजारियों को मिलने का प्रावधान भी किया गया है।

‘मानसखण्ड’ के ‘विभाण्डेश्वरमाहात्म्यम्’ में यह वर्णन भी मिलता है कि भगवान् शिव ने हिमालय की चोटियों पर अपने शिरों को रखकर‚ नील पर्वत पर कमर‚ नागार्जुन पर्वत पर दाहिना हाथ‚ भुवनेश्वर पर्वत पर बांया हाथ और दारुका वन में चरणों को स्थापित कर रखा है -

“शिखरेषु महाभागाः सन्निधाय शिरांसि वै।
कटिं कृत्वा महादेवः सुपुण्ये नीलपर्वते।।
भुजं नागार्जुने दक्षं वामकं भुवनेश्वरे।
कृत्वा पुण्ये महाभागश्चरणौ दारुकावने।।”
– मानसखण्ड, 28.20-21

‘नागार्जुन’ का ‘विभाण्डेश्वर’ तीर्थ के साथ भी घनिष्ठ सम्बन्ध है। ‘नागार्जुन’ नामक स्थान पर ही ‘देवधेनु’ सुरभि गाय का रूप त्याग कर नदी के रूप में बहने लगी थी और विभाण्डेश्वर महादेव के समीप पहुंची-

“तत्रैव सुरभी पुण्या मया संप्रेषिता सुत।
सरिद्रूपेण लोकानां पावनार्थं प्रयाति हि॥
नागार्जुनगिरेः पुण्याद् विनिसृत्य सरिद्वरा।
विभाण्डेशस्थलं पुण्यं ययौ पापप्रणाशिनी॥”
-मानसखण्ड, 29.18-19

मै पिछले अनेक वर्षों में ‘नागार्जुन’ मन्दिर में होने वाले धार्मिक आयोजनों का प्रत्यक्षदर्शी रह चुका हूं तथा ऐसे कार्यक्रमों के प्रति शोधात्मक रुचि रखने के कारण इनकी विडियोग्राफी तथा फोटोग्राफी करने का सौभाग्य भी मुझे मिला है। ‘नागार्जुन’ मन्दिर के ऐसे ही आयोजनों मे से सन् 2008 में आयोजित शतचंडी महायज्ञ के आयोजन की स्मृतियां आज भी ताजा बनी हुईं हैं, जिन्हें मैं अपने फेसबुक के मित्रों के साथ शेयर करना चाहुंगा और बताना चाहुंगा कि आज भी दिल्ली,चंडीगढ़, पटियाला, हरियाणा आदि दूरदराज में बसे उत्तराखंड के प्रवासीजन अपने तीर्थ तुल्य ‘नागार्जुन’ देवस्थान के प्रति अगाध आस्थाभाव रखते हुए इस आयोजन को अपना तन-मन-धन से सहयोग देते आए हैं।

सन् 2008 के इस भव्य समारोह को तब उत्तराखंड के प्रसिद्ध संत मौनी महाराज जी का स्नेहपूर्ण सान्निध्य प्राप्त हुआ था। द्वाराहाट, रानीखेत, भिकियासेन के विधायक भी इस समारोह में उपस्थित हुए तथा भारद्वाज कुटी भासी से परमहंस रामचंद्र दास महाराज जी ने इस समारोह की शोभा को बढ़ाया। क्षेत्र के गण्यमान्य साधुसंतों और बुद्धिजीवियों की उपस्थिति से ऐसा प्रतीत होता था मानो कि शिष्टता,अनुशासन और भक्तिभाव की इस त्रिवेणी में श्रद्धालुजन धर्माभिषेक कर रहे हों। इंद्रदेव भी मरुद्गणों के साथ अपनी द्रुतगति से इस शतचंडी महायज्ञ में आहुति देना चाहते थे इसलिए वे भी धाराप्रवाह बरस कर अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा रहे थे।

अनेक मित्रों की जानकारी हेतु मैं इस ‘विष्णु महापुराण कथा-सप्ताह’ के अवसर पर सन् 2008 में शतचंडी महायज्ञ के उपलक्ष्य में आयोजित ऐतिहासिक कलश शोभायात्रा, मंदिर परिक्रमा यात्रा आदि के दुर्लभ चित्रों को पोस्ट कर रहा हूं।आशा है इन चित्रों के माध्यम से इस भागवत कथा समारोह के अवसर पर उत्तराखंड के भव्य तीर्थ नागार्जुन देव और उनकी दिव्य महिमा का दर्शन दूर दराज़ के लोगों को भी हो सकेगा।

विष्णुस्वरूप दीनबंधु नागार्जुन देव हम सब का कल्याण करें। पहाड़ में अन्न, धन और पशुधन की समृद्धि करते हुए हरियाली व खुशहाली प्रदान करें-
"न जातिरूपो न च कर्मरूपो,
न सूक्ष्मरूपो न महास्वरूपः।
त्वमीश नागार्जुन दीनबन्धो,
भक्तार्तिहारिन् भगवन्नमस्ते।।”


-© डा.मोहन चंद तिवारी
डा.मोहन चन्द तिवारी द्वारा फेसबुक ग्रुप कुमाऊँनी शब्द सम्पदा पर पोस्ट
डा.मोहन चन्द तिवारी के फेसबुक प्रोफाइल पर जायें

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ