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अमेज या अमील (Sea buckthorn)

'संजीवनी बूटी' के तुल्य अमेज या अमील कुमाऊँ के मुंनस्यारी, धारचुला, बागेश्वर पाया जाता है।  Sea buckthorn or Hippophae rhamnoids is a medicinal plant

अमेज या अमील (Sea buckthorn)
लेखक: शम्भू नौटियाल

अमेज या अमील (सी-बकथोर्न: Sea buckthorn) वानस्पतिक नाम हीपोफी रिहेमनोइडस (Hippophae rhamnoids) पादप कुल इलेइगनेसी (Elacagnaceae) से संबधित है। स्थानीय नाम अमील, अमेस, चूक तथा खट्टा आदि। उत्तराखण्ड के उच्च हिमालयी क्षेत्रों में 4000 से 14000 फुट की ऊंचाई पर उगने वाले इस पवित्र पौधे अमेज के फलों के चमत्कारिक गुणों के कारण यह 'संजीवनी बूटी' के तुल्य माना जाता है।  उत्तराखंड में यह हनुमानचट्टी, नीती, माणा, भ्यूधार, वाड़, सुतोल, कनोल, रामबाड़ा, गंगोत्री, यमुनोत्री, मुंनस्यारी, धारचुला, बागेश्वर आदि स्थानों में प्राकृतिक रूप से बहुतायत मात्रा में पाया जाता है। अमेज को हिपोफी भी कहा जाता है। यह ’सुनहली झाड़ी’ और ’स्टोर हाउस ऑफ विटामिन्स’ के नाम से भी प्रसिद्ध हैं क्योंकि इसके फलों में विटामिन- सी, ए, बी, के तथा ई की प्रचुर मात्रा होती है ।

यह हिमालय के शीत मरूस्थल क्षेत्रों में पाया जाने वाला आश्चर्यजनक एवं आकर्षक लघु वृक्ष या झाड़ी है। जैसा कि इसके नाम ’सी-बकथोर्न’ नाम से विदित होता है कि यह समुद्रतल से लेकर अधिक ऊँचाई वाले पर्वतीय क्षेत्रों तक पाया जाता है। हिप्पोफी के लघु वृक्ष (03 से 10 मीटर तक ऊँचे) या झाड़ियाँ समुद्री तटों पर श्रेष्ठ वायुरोधक के रूप में पहचाने जाते हैं तथा उत्तर-पश्चिमी हिमालय की शुष्क श्रृंखलाओं में नदी किनारे मिलते हैं। यूरोप एवं एशिया के मूल निवासी हिप्पोफी की चाइना सहित 30 से अधिक देशों में उपस्थिति दर्ज की गई है।

इसके अन्तर्गत विश्व में पायी जाने वाली कुल 7 प्रजातियों में से भारत में तीन प्रजातियां हिप्पोफी रेहमनॉइडिस (Hippophae rhamnoids), हिप्पोफी सेलिसिफोलिआ, (H.salicifolia), हिम्पोफी तिबिताना (H.tibetana) 4500 मीटर तक की ऊँचाई पर बिखरी हुई है परन्तु ट्रान्स हिमालय के लद्दाख (जम्मू एवं कश्मीर), लाहौलस्पीती (हिमाचल प्रदेश), कुमॉऊ एवं गढ़वाल (उत्तराखण्ड), सिक्किम एवं अरूणाचल प्रदेश में विस्तृत रूप से पायी जाती है। इनमें से अमेज (सी- बकथार्न) या हिप्पोफी रेहमनॉइडिस (Hippophae rhamnoids) ससर्वाधिक लोकप्रिय प्रजाति है।

अलग-अलग देशों में सीबकथोर्न अपने भिन्न-भिन्न गुणों के कारण पारिस्थितिकीय गतिविधियों के अंतर्गत लगाया जा रहा है जैसे कुछ देशों में इसे पार्क व बगीचों में शोभादार वृक्षों या झाड़ियों के रूप में, कुछ देशों में इसके स्वादिष्ट एवं पौष्टिक फलों को फॉर्मास्युटिकल उद्योग के लिए तथा जर्मनी के बाल्टिक क्षेत्र में इसे इसकी दूर तक फैली हुई जड़ों द्वारा समुद्रतटीय रेत के टीलों को बांधने के लिए लगाया जा रहा है।

उत्तराखंड में औषधीय भंडारयुक्त इसके रसीले फल का इतिहास बहुत ही पुराना है। इसका सेवन करने से कई गंभीर बीमारियां जैसे कैंसर, डायबिटीज से निजात मिल जाता है। यह बात जानकर आश्चर्य होता है कि यह दुनिया का ऐसा एकलौता फल है; जिसमें ओमेगा 7 फैटी एसिड पाया जाता है। जिस तरह यह फल हमारे स्वास्थ्य के लिए बेहतर है। उसी तरह की इसकी पत्तियां किसी चीज में कम नहीं है। सी-बक्थोर्न में भरपूर मात्रा में ओमेगा फैटी एसिड 3, 6,7 और 9 होते हैं। इसमें भरपूर मात्रा में एंटीऑक्सिडेंट्स पाया जाता है। इसके अलावा इसमें विटामिन सी, ई, अमीनो एसिड, लिपिड, बीटा कैरोटीन, लाइकोपीन के अलावा प्रोविटामिन, खनिज और बॉयोलॉजिकल एक्टिव तत्व पाएं जाते है। यह इम्यून सिस्टम को मजबूत बनाने के लिए एक बेहतरीन फल है।

सदियों से यह फल अपने चिकित्सकीय गुणों और राहत देने वाले प्रभावों के कारण चीनी दवाओं में बेशुमार है। बाद में विज्ञान ने भी इसके हेल्दी फायदों के बारे में खुलासा किया। इसका इस्तेमाल सदियों से किया जा रहा है। वैज्ञानिक अध्ययन के अनुसार इससे संजीवनी बूटी के गुण मिलते है। जिसका इस्तेमाल रामायण काल में किया गया था। इसके अलावा 80 की दशक में रूसी अंतरिक्ष विभाग द्वारा सी-बक्थोर्न अंतरिक्ष यात्रियों को पोषण योजना और विकिरण में लड़ने के लिए सप्लीमेंट के रुप में दिया गया था। खासबात यह भी है कि कि सी-बक्थोर्न भारतीय सैनिको की खुराक का भी एक हिस्सा है।

खट्टे स्वादवाला यह फल पकने के बाद ही खाया जाता है, जब यह स्वादिष्ट लगता है। जिसके जूस या फिर अन्य रुपों में भी इस्तेमाल किया जाता है। कई रिसर्च में ये बात सामने आई है कि सी-बक्थोर्न हानिकारक फ्री रेडिकल्स की उत्पत्ति और ऑक्सूडेटिव स्ट्रेस को भी कम करता है। इसका सेवन करने से यह शरीर की वृद्धि, विकास और उसे स्वस्थ रखता है। अन्य कोशिकाओं संरचनाओं के लिए निर्माण ब्लॉक के रुप में काम करता है। ठंडे शरीर में इंसुलेशन देता है। यह एक एथलीट को बेहतर प्रदर्शन में भी मदद करता है। यह एथलीटो की सहनशक्ति बढ़ाने के साथ-साथ कॉम्पिटिशन के बाद दोबारा स्वस्थ्य रखता है। 

शोधकर्ताओं के अनुसार, इसमें मौजूद फास्फेटिडाइलेसेरिन (पीएस) शरीर के उूतकों को टूटने से बचाता है। मानसिक तनाव, कैंसर उपचार, डायबिटीज के इलाज, मांसपेशियों को मजबूत करने, थॉयरॉयड को कंट्रोल करने, लीवर को रखे सामान्य रखने के साथ इसमें पाया जाने वाला एंटीऑक्सीडेंट ब्रेन ट्यूमर के विकास को रोकता भी है। रेडियोप्रोटेक्टिव गुण होने के कारण शरीर को विकीरण से बचाता है।  अमेज या अमील का उपयोग गठिया, पेट और आंतों के अल्सर, भाटा के कारण क्षति (गैस्ट्रोइसोफेगल रिफ्लक्स रोग या जीईआरडी नामक स्थिति), गाउट, अस्थमा, हृदय और रक्त वाहिका की समस्याओं, उच्च रक्तचाप, रक्त में खराब कोलेस्ट्रॉल के उच्च स्तर के उपचार, मधुमेह, और त्वचा पर चकत्ते के लिए किया जाता है।

हृदय को स्वस्थ रखने में, रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने, वजन फिट रखने, शरीर के जोड़ो के दर्द को कम करने, आंख, बाल, नाखून और स्किन को स्वस्थ रखने, एल्जाइमर से निजात दिलाने, सिरोयसिस, एक्जिमा, झाईयां और मुहांसों में भी फायदेमंद है। वर्तमान में अमेज से निर्मित विभिन्न व्यवसायिक उत्पाद जैसे एनर्जी ड्रिंक्स, स्किन क्रीम, न्यूट्रिशनल सप्लिमेंटस, टॉनिक, कॉस्मेटिक क्रीम तथा सेम्पू आदि बाजार में उपलब्ध है। यह त्वचा कोशिका तथा म्यूकस मेम्ब्रेन रिजेनेरेशन आदि में प्रभावी होने के कारण कॉस्मेटिक में खूब प्रयोग किया जाता है। इसके अलावा अमेज को अच्छा नाइट्रोजन स्थरीकरण (Nitrogen fixation) करने वाला पौधा भी माना जाता है। विश्वभर में अमेज से निर्मित विभिन्न उत्पादों की बढती मांग को देखते हुए इसका अच्छी मात्रा में उत्पादन किया जाता है। जबकि उत्तराखण्ड में अभी तक स्थानीय लोगों द्वारा इसके फल को चटनी तथा रस का काड़ा बनाकर सर्दी जुखाम तथा बुखार के साथ साथ जानवरों को बिष लगने के उपचार के रूप में ही किया जा रहा है। जबकि इसके पौष्टिक तथा औषधीय गुणों को देखते हुए इसका संरक्षण व व्यापक संवर्धन करके उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में भूस्खलन रोकने सहित आर्थिकी हेतु विकल्प बनाया जा सकता है।

 

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