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मेरी ईजा कहती थी- च्यला, हर्याव बुण कभें झन छोड़िए

कुमाऊँनी त्यौहार हरेला, मेरी ईजा कहती थी-"च्यला! हर्याव बुण कभें झन छोड़िए!" Memoir about Kumauni Festival Harela celebration by mother

मेरी ईजा कहती थी-"च्यला! हर्याव बुण कभें झन छोड़िए!"

(लेखक: डा.मोहन चन्द तिवारी)

आज श्रावण संक्रांति के दिन हरेले का शुभ पर्व है। हमारे घर में नौ दिन पहले आषाढ़ के महीने में बोए गए हरेले को आज प्रातःकाल श्रावण संक्रांति के दिन काटा गया। कल रात हरेले की गुड़ाई की गई उसे पतेशा भी गया।हरेला पतेशने के कुछ खास मंत्र होते हैं,जो हमें याद नहीं इसलिए 'सर्व मंगल मांगल्ये' इस देवी के मंत्र से हम हरेला पतेश देते हैं।इस बार पिछले साल की तरह हरेले की पत्तियां ज्यादा बड़ी और चौड़ी नहीं हुई,मौसम की वजह से या अच्छी मिट्टी की वजह से कोई भी कारण हो सकता है। कोरोना काल भी इस हरेले के लिए संकटपूर्ण रहा,जितने उत्साह से इसे मनाया जाना था वह सब नहीं हो सका।

प्रातःकाल हरेला काटे जाने के बाद मेरी पत्नी ने सबसे पहले हमारे इष्टदेव के मंदिर में मां दुर्गा और इष्टदेव ग्वेल सहित सभी कुल देवताओं और मुकोटी देवताओं को हरेला चढ़ाया।उसके बाद घर-परिवार की सबसे बड़ी और वरिष्ठ महिला होने के नाते उसने सभी परिवार जनों को हरेला लगाया। घर के सभी सदस्यों को पाँव से सिर की तरफ हरेला लगाते हुए उनके लिए ये आशीर्वाद के वचन कहे-
“जी रये,जागि रये,तिष्टिये,पनपिये,
दुब जस हरी जड़ हो,ब्यर जस फइये,
हिमाल में ह्यूं छन तक,
गंग ज्यू में पांणि छन तक,
यो दिन और यो मास भेटनैं रये,
अगासाक चार उकाव,धरती चार चकाव है जये,
स्याव कस बुद्धि हो,स्यू जस पराण हो।”

कुमाऊँनी त्यौहार हरेला, मेरी ईजा कहती थी-"च्यला! हर्याव बुण कभें झन छोड़िए!" Memoir about Kumauni Festival Harela celebration by mother

अर्थात् “हरेला तुम्हारे लिए शुभ होवे, तुम जीवन पथ पर विजयी बनो, जागृत बने रहो, समृद्ध बनो, तरक्की करो, दूब घास की तरह तुम्हारी जड़ सदा हरी रहे, बेर के पेड़ की तरह तुम्हारा परिवार फूले और फले। जब तक कि हिमालय में बर्फ है, गंगा में पानी है, तब तक ये शुभ दिन, मास तुम्हारे जीवन में आते रहें। आकाश की तरह ऊंचे हो जाओ, धरती की तरह चौड़े बन जाओ, सियार की सी तुम्हारी बुद्धि होवे, शेर की तरह तुम में प्राणशक्ति हो”

-ये ही वे आशीर्वचन और दुआएं हैं जो हरेले के अवसर पर घर की बड़ी बजुर्ग महिलाएं अपने बच्चों,युवाओं और बेटियों के सिर में हरेले की पीली पत्तियों को रखते हुए देती हैं। वह भी कभी समय रहा था,जब मां की दुआओं से अभिमंत्रित हरेले की इन पीली पत्तियों का आशीर्वाद पाने के लिए पहाड़ से जुड़े परिवार का हर सदस्य बेसब्री से इंतजार करता था कि कब हरेला आएगा!और कब इन इन हरेले की पत्तियों के साथ हमें अपनी मातृत्व शक्ति का आशीर्वाद शिरोधार्य करने को मिलेगा!

पर आज विडंबना यह है कि महानगर संस्कृति के दुष्प्रभाव के कारण हरेला के पर्व का वास्तविक संदेश कहीं गायब सा हो गया है। पहाड़ों के पर्वों,त्योहारों के बारे में ही पहाड़ के लोगों की सोच बदल गई है। सब कुछ सांकेतिक रस्म निभाई जैसा हो गया है। इस त्योहार के माध्यम से पारिवारिक एकता और सौहार्द की भावना कहीं खो सी गई है।

मेरा परिवार अपनी पुरातन परम्पराओं का पालन करते हुए अपनी ईजा (मां) के कहने पर हर साल आज भी हरेला बोता है। इसलिए आज इस हरेले के दिन सुबह से ही मुझे अपनी स्वर्गीय ईजा की बहुत याद आ रही है, जो आषाढ़ के लगते ही हरेला बोने के दिनों की याद परिवार जनों को दिलाया करती थी और मुझ से खास तौर से कहती थी- "मोहना! हमौर हर्याव नौमी हर्याव बोई जां याद धरिये, कुछ लोग दशमी हर्याव लै बुनी।आपण आपण रिवाज छू, च्यला! हर्याव बुण कभें झन छोड़िए !" (मोहन!हमारे घर मैं नौ दिनों का हरेला बोया जाता है,याद रखना, कुछ लोग दस दिनों का हरेला भी बोते हैं,अपना अपना रिवाज है।बेटा हरेला बोना कभी नहीं छोड़ना!) मैं अपनी इजा से प्रायः पूछता कि हम लोग नौ दिनों का हरेला क्यों बोते हैं? तो इजा का जवाब होता "हमरि इष्ट देवि नौ दुर्गा छू, यौ बजै ल हम नवमी हर्याव बुनूं (हमारी इष्ट देवी नव दुर्गा है इस वजह से हम लोग नौ दिनों का हरेला बोते हैं) फिर मैं हरेले से जुड़े और बहुत सारे तार्किक सवाल अपनी इजा से पूछता तो उसके पास ज्यादा कुछ कहने को नहीं होता बस मायूस सी होती हुई इतना कह कर चुप हो जाती "च्यला! मैं ज्यादा क्ये नि जाणोन! हमार बुजुर्गो ल बनाई यों त्योहार कें कभें झन छोड़िया! बस यतुकै जांणनूं" (बेटा! में ज्यादा कुछ नहीं जानती!बस इतना ही जानती हूं कि हमारे बुजुर्गों द्वारा बनाए गए इन त्योहारों को मनाना कभी मत छोड़ना)

आज हरेले के मौके पर अपनी ईजा के साथ समय समय पर किया गया शास्त्रार्थ भी मुझे बहुत याद आता है और मेरा परिवार अपनी इजा के इस आदेश "हमार बुजुर्गो ल बनाई यों त्योहार कें कभें झन छोड़िया!" का आगम वाक्य की तरह पालन करता आया है।चाहे कितनी विपरीत परिस्थितियां हों मेरा परिवार हरेला बोने और काटने की इस परम्परा का पालन सदा करता आया है।

कुमाऊँनी त्यौहार हरेला, मेरी ईजा कहती थी-"च्यला! हर्याव बुण कभें झन छोड़िए!" Memoir about Kumauni Festival Harela celebration by mother

मुझे याद है कि गर्मियों की छुट्टी के बाद हर साल16 जुलाई को दिल्ली विश्वविद्यालय में कालेज खुलते थे तो संयोग से उसी दिन हरेले का त्यौहार भी होता था।मेरी मां मुझे रात से ही सचेत करते हुए कहती- "च्यला यौ त्यौर कौलीज लै कौस छू सदा हर्याव त्यारा दिन खुलों,राति पर जल्दि उठियै,तगें मैं सबूं है बे पैलि हर्याव लगोंल आपणि ड्यूटी पार देर झन करिये"(बेटा ये तेरा कालेज भी कैसा है, सदा हरले के त्योहार के दिन ही खुलता है,सुबह जल्दी उठना तुझे मैं सबसे पहले हरेला लगाउंगी, अपनी ड्यूटी में देर मत करना)

मेरी ईजा हर साल कालेज में जाने से पहले मुझे हरेला लगाते हुए "जी रये! जागि रये!" का आशीर्वाद देकर मुझे कर्त्तव्यनिष्ठा का जो पाठ पढ़ाती थी वे दुदबोलि के शब्द मेरे मन और मस्तिष्क में आज भी ब्रह्मवाक्य की तरह गूंज रहे हैं।जिस दिन मेरे कालेज में अध्ययन अध्यापन जैसे शुभकार्य का प्रारम्भ हो रहा हो और उसी दिन एक मां अपने पुत्र को यशस्वी भव और दीर्घायुष्य का आशीर्वाद दे रही हो तो वह दिन और वह पुत्र कितना सौभाग्यशाली रहा होगा! इसका अहसास मुझे आज भी बहुत ही उर्जावान् बना देता है। क्योंकि आज मुझे अपने कठोर स्वाध्याय और सारस्वत साधना के परिणामस्वरूप जो भी यश और सम्मान मिला अपनी मातृभूमि और कर्मभूमि की सेवा के रूप में अपनी सारस्वत साधना का योगदान दे पाया,वह सब मेरी ईजा का हरेले के दिन दिया हुआ आशीर्वाद ही है।

आज मुझे हरेला लगाने के लिए न तो मेरी मां जीवित है और सेवानिवृत्त हो जाने के कारण न ही मुझे हरेले के दिन अपने अध्यापन कार्य के लिए कालेज जाने की जरूरत है।किन्तु मुझे बहुत संतोष है कि मातृत्वभाव का आशीर्वाद दिलाने वाला यह सदाबहार हरेला का त्यौहार आज भी मेरे और मेरे परिवारजनों के पास धरोहर के रूप में संरक्षित है। अब मेरी पत्नी ही परिवार की सबसे बड़ी वरिष्ठ मां, सास, दादी,नानी, भाभी,मामी इन सारे रिश्तों का दायित्व निभाते हुए सभी परिवार जनों को हरेला लगाती है।समय कब बदल गया,पता ही नहीं चला।किन्तु हरेला त्योहार आज भी मेरे परिवार जनों के साथ ईजा की तरह हरेले की आशीष दे रहा है,इसका मुझे आज सन्तोष है।

कुमाऊँनी त्यौहार हरेला, मेरी ईजा कहती थी-"च्यला! हर्याव बुण कभें झन छोड़िए!" Memoir about Kumauni Festival Harela celebration by mother

दरअसल, हरेले का त्योहार मनाने में हमको आनंद की अपार अनुभूति इसलिए भी होती है क्योंकि हम अपनी मातृतुल्य लोक संस्कृति की पहचान से जुड़ रहे होते हैं,हम सांस्कृतिक पर्व हरेला की गागर से अपनी लोक संस्कृति की जड़ों को पानी देते हुए अपने सूखे रूखे मन में हरियाली का भाव ला रहे होते हैं और इससे हम स्वयं को तरो-ताजा भी अनुभव कर रहे होते हैं।हम चाहे जितनी भी तरक्की कर लें या अपार धनसम्पत्ति के मालिक बन जाएं,हमें अपनी क्षेत्रीय लोक संस्कृति के मूल्यों से नहीं कटना चाहिए।आज भी मेरी ईजा के बोल हरेले के दिन मुझे यह याद दिलाते रहते हैं-
"च्यला! हर्याव बुण कभें झन छोड़िए !"
आज हरेले के अवसर पर कुछ खास यादगार चित्र मित्रों के साथ शेयर कर रहा हूँ। सभी मित्रों को हरेला पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं!


-© डा.मोहन चन्द तिवार

डा. मोहन चन्द तिवारी जी की फेसबुक वॉल पर पोस्ट  साभार
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