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मेरे हिस्से और किस्से का पहाड़- छन (गोठ)

मेरे हिस्से और किस्से का पहाड़- छन (गोठ) का किस्सा, article about cattle house known as Chhan in Kumaon region

मेरे हिस्से और किस्से का पहाड़-"छन (गोठ)"

लेखक: प्रकाश उप्रेती

आज बात "छन" की। छन मतलब गाय-भैंस का घर। छन के बिना घर नहीं और घर के बिना छन नहीं।  पहाड़ में घर बनाने के साथ ही छन बनाने की भी हसरत होती थी। एक अदत छन की इच्छा हर कोई पाले रहता है। ईजा को घर से ज्यादा छन ही अच्छा लगता है। उन्हें बैठना भी हो तो छन के पास जाकर बैठती हैं।

छन की पूरी संरचना ही विशिष्ट थी। ईजा के लिए छन एक दुनिया थी जिसमें गाय-भैंस से लेकर 'किल' (गाय-भैंस बांधने वाला), 'ज्योड़' (रस्सी), 'अड़ी' (दरवाजे और बाउंड्री पर लगाने वाली लकड़ी) 'मोअ' (गोबर), 'कुटो'(कुदाल), 'दाथुल' (दरांती),  'डाल' (डलिया), 'फॉट' (घास लाने वाला),  'लठ' (लाठी), 'सिकोड़' (पतली छड़ी) और 'घा' (घास) आदि थे। इन्हीं में ईजा खुश रहती थीं। हम कम ही छनपन जाते थे लेकिन ईजा कभी-कुछ, कभी-कुछ के लिए चक्कर लगाती ही रहती थीं। हमें 'किल घेंटने' के लिए जरूर कहती थीं- "च्यला आज एक क़िल घेंट दिये हां" (बेटा आज एक गाय-भैंस बांधने वाली लकड़ी गाड़ देना) । हम हाँ... हाँ.. कहते हुए इधर-उधर चले जाते थे।

हमारा छन घर के बगल में ही था। जब ईजा घर पे होतीं तो छन ही उनकी धुरी होती थी। गाय-भैंस को घास-पानी देना, 'गुठयार' (बाहर जहाँ गाय-भैंस बंधी रहती थीं) से गोबर निकालना, गाय-भैंस की छोड़ी हुई घास सुखाना, धुआँ लगाना ताकि गाय-भैसों को मुर-मच्छर न खाएँ, कुछ नहीं हुआ तो 'रूपा' (भैंस का नाम) को देखने छन जाती ही रहती थीं। इधर- उधर जाते हुए भी ईजा छन का एक चक्कर लगा ही लेती थीं।

रूपा अगर ईजा को देख ले तो फिर रंभाना शुरू कर देती थी। ईजा रूपा की आवाज सुनते ही कहतीं-"क्या हेगो, किले मर रहछे' (क्या हुआ, क्यों मर रही है)। यही उनके रूपा के लिए 'प्यार के दो मीठे बोल' थे।

ऐसा कहते हुए ईजा फिर छन की तरफ ही चल देती थीं। रूपा की पीठ में हाथ फेरना, उसके सर की मालिश करना और उससे कहना-" क्या हरो तिकें, काल खा है छै, ऑइ, ऑइ किले लगे रहछे, घा खाँछे,"(क्या हुआ तुझे, किसने खाया, क्यों आवाज लगा रही है, घास खाएगी)। ऐसे कई सवाल-जवाब दोनों के बीच चलते रहते थे। ईजा की बात को रूपा और रूपा के मौन को ईजा समझ लेती थीं। इस बातचीत और मालिश के बाद रूपा शांत हो जाती थी।

तब छन से 'मोअ' सार कर खेतों में रखना एक बड़ा काम होता था। अक्सर तो ईजा और बहन ही मोअ रखती थीं लेकिन कभी-कभी हम भी रखते थे। ईजा कहतीं- " च्यला आज मरचोडक पटोम मोअ धर दे, तिकें ब्या हैं दूध सकर-सकर द्यूल" ( बेटा जिस खेत में मिर्च बोई जानी है वहाँ गोबर रख दे फिर शाम को तुझे ज्यादा दूध दूँगी)। दूध के लालच और ईजा के डर से हम तैयार हो जाते थे। ईजा छन से 'डाल' में हमारे लिए मोअ भरती और हम उसे खेत में डाल आते। यह मोअ डालना तब तक चलता रहता जब तक खेत लायक मोअ हो नहीं जाता था। जब हम खेत से मोअ डाल कर आ रहे होते थे तो ईजा बीच-बीच में जोर से कहतीं- "फटा फट आ च्यला" (जल्दी-जल्दी आ बेटा)। ईजा की आवाज सुनते ही हम जल्दी-जल्दी आने लग जाते थे।
मेरे हिस्से और किस्से का पहाड़- छन (गोठ) का किस्सा, article about cattle house known as Chhan in Kumaon region

खेत में भी "मोअ का थुपुड"(गोबर का ढेर) हम सब अलग-अलग लगाते थे। बाद में फिर ईजा को दिखाते थे- "ईजा देख ऊ म्यर मोअ थुपुड छु" (माँ देखो वो मेरा गोबर का ढेर है)। ईजा देखकर शाबाश कह देती थीं। इसी शाबाश में सारी खुशी छिपी होती थी। तब वो गोबर का ढेर भी खुशी देता था।

रात में गिलास भर दूध इसके ईनाम में मिलता था। उस गिलास भर दूध को हम इधर-उधर, अंदर-बाहर नचाते थे। अंत में कई बार तो गिर ही जाता था। गिरते ही ईजा कहतीं- "ओच्याट हरो तिकें, तहिं बति भ्यार- भतेर नचा मो" ( बैचेनी हो रखी है, तब से अंदर-बाहर नचा रहा है)। दूध के गिरते और ईजा के इन कथनों के बीच ही हमारी सारी ख़ुशी काफ़ूर हो जाती थीं। ईजा हमारे चेहरे को देखकर कहतीं- "ल्या इथां का अपण गिलास" (ला इधर कर अपना गिलास)। हम चट से ईजा की तरफ गिलास बढ़ा देते थे। ईजा अपने गिलास से उसमें दूध डाल देती थीं और कहतीं- "ले अब टोटिल झन कये हां"(ले अब मत गिराना)। दूध देखते ही हमारी खुशी लौट आती थी लेकिन ईजा उस दिन दूध नहीं पी पाती थीं।

ईजा रात में छन को अच्छे से बंद करती थीं। तब छन में कुंडी नहीं होती थी। ईजा बताती थीं कि- 'बाघ कुंडी खोलना जानता है और कुंडी खोलकर जानवर को ले जाता है'। इसके कई किस्से ईजा ने सुनाए थे। इसलिए ईजा दरवाजे पर 'जु' (हल चलाते हुए बैलों के कंधे पर रखा जाने वाला) लगा देती थीं। कहती थीं- "जु देखि बाग नि अन, बागे कें आण छु" (जु को देखकर बाघ नहीं आता है, बाघ को कसम है)।  जु के साथ ईजा रस्सी में फंसाकर 'अड़ी' भी लगा देती थीं। यही सुरक्षा कवच होता था जिसके भरोसे जानवर और बाघ दोनों होते थे। ईजा बस ऊपर 'थान' की तरह हाथ जोड़ देती थीं।

छन ईजा को आज भी उतना ही पसंद है। वह कुछ भी करें, घूम-फिरकर छन के पास ही बैठी मिलती हैं। अक्सर जब भी कोई दिल्ली को जाता है तो ईजा घर से नहीं छन से खड़े होकर देखती हैं। छन में सिर्फ गाय-भैंस ही नहीं बल्कि ईजा की खुशहाल दुनिया बसती है...

सुनिए छन का किस्सा लेखक प्रकाश उप्रेती के स्वर में:


मेरे हिस्से और किस्से का पहाड़-43

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