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बातें पहाड़ की - असोज मास का किस्सा

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बातें पहाड़ की - असोज (अश्विन) मास का किस्सा

लेखक: विनोद पन्त 'खन्तोली'

असोज का नाम आते ही पहाड में बुतकार लोगों की बाजुऐ फडकने लगती हैं और कामचोरों की सास मर जाती है। पहाड में कृषि का कार्य मुख्य रूप से महिलाओ द्वारा किया जाता है इसलिए सबसे ज्यादा आफत महिलाओ की ही हुई।  कुछ अजीब सा महिना होता है असोज, चूंकि भादो का महिना सबसे ज्यादा सडी गर्मी का होता है।  पहाड में जेठ के महिने ऐसी गरमी नही पडती जैसी भादो में पडती है कहते हैं कि भादो में गैडे की खाल भी सूख जाती है। अब असोज का महिना भादो का पडौसी महिना हुवा तो भादो की गरमी का पूरा असर असोज में भी नजर आता है।
 
इस महिने में धान की फसल पककर तैयार हो जाती है और फसल की मडाई का काम मुख्यत: होता है।  इसलिए महिलऐ धान काटने सुबह ही पहुंच जाती है,   धान काटकर बडी सावधानी से उसके मूठ्ठे जमीन में रखते हुए आगे बढते जाना होता है।  फिर उन मुठ्ठो को इकठ्ठा कर पूवे या पूले बनाये जाते हैं, इन पूलों को खेत के बीच में बाली वाला भाग बीच में रखकर एक पूले के बराबर में सिरा जोडकर एक गोलाकार आकृति बनाते जाते हैं।  जैसे जैसे यह गोलाकार आकृति उंचाई प्राप्त करती जाती है एक गुम्बदनुमा चीज बन जाती है जिसे धान का कुन्यूण कहते हैं। इसको बनाने के लिए  एक चीज का ध्यान रखना होता है कि यदि बारिस आ जाय तो कुन्यूण को पानी न लगे और धान खराब न हो। 
 
पहाड के किसानों के लिए बडी मुसीबत है, इस मौसम में अचानक बारिस से लेकर ओलावृष्टि तक हो जाया करती है।   तो धान काटने के लिए प्रकृति से सामन्जस्य बैठाना पहाड की गुणी महिलाऐ जानती हैं।  जैसे देखा कि मौसम खराब हो रहा है डाव (ओले ) पडने के लक्षण लग रहे हैं तो फटाफट जाकर फसल काटमे की तैयारी।   अगर बारिस की झडी का अनुमान हो तो धान ऐसा वक्त देखकर काटे जाये कि ज्यादा दिन कुन्यूण में रखने पर धान खराब न हो।   कुन्यूण के उपर गाज्यो या घास काटकर उसे ढककर बारिस से बचाने का प्रयास भी बोता है।  

अब आती है धान माणने की बारी, देख लिया जाता है कि धान कितने पके थे, अगर अच्छी तरह तैयार हो तो तीसरे दिन मांण लिये जाते है।  नही तो चार पांच छ: दिन में।  सुबह सरग की ओर देखकर महिलाऐ और पारिवारिकजन खेत में पहुंच जाते हैं।  ताकि कम धूप में काम निपच जाये और उस्योई तक घर वापसी हो सके।  वैसे तो धान माणने के दो तरीके हैॆ दूसरे तरीके को चूटना बोलते हैं।  पहला तरीका माणना परमपरागत है, इलके लिए घर से एक बडा सा रिंगाल (निगाव) का मोस्ट, एक सूप, दो तीन पुरानी धोतिया या चादर एक झाडने के लिए दानेदार खुरदरा डन्डा जो अक्सर घिंगारू का बना होता है।  फटयाव लगाने के लिए मजबूत मोटी चादर, पानी पीने के लिए तौली जरूरी सामान ले जाते थे।  किसी के घर से चाय लाने वाला हो तो ठीक नही तो चाय की जुगुत और हां हरी ककडी और हरी खुश्याणी धनिये का नमक . ये चीजें काम करने वालों को नई उर्जा देते थे।

अब मोस्ट बिछाकर धान के पूले सावधानी से लाकर पैरो से माजना होता था और इसे वही कर सकते हैं जो पहाड में रहकर नंगे पांव या चप्पल पहनते हों ताकि उनके पैर मजबूत हों।  नही तो कोमल पैरो से तो खुन्योई होते देर नही लगेगी।  पैरो से धान माणने का काम खडे खडे होता है, पैर से माणे धान के पौधों को एक महिला डन्डे से छिटकाकर बचे खुचे बीज निकाल लेती है।  एक आदमी उस बची पुराली को पूरे खेत में बिछा देता है सूखाने के लिए जिसे फिचावण कहते हैं यही पुराली सुखाकर बाद में सुयांठ में या भारी लगाकल पीठ में या महिलाऐ गढव बनाकर घर लाती है।  जिसको चीड के एक पतले खम्बे जिसे लुट्यास कहते हें विशेष रूप से पिरोकर एक लम्बी गुम्बदाकार आकृति का लूटा बनाया जाता है।  यह ह्यून में जानवरों के चारे के काम आता है, ऐसे ही खेत के इचाव कनाव से घास (गाज्यो) काटकर सुखाकर उसका भी लूटा लगाकर रख लिया जाता है।

धान माणने के बाद चादर को मोडकर दो आदमी हवा करते हैं जिसे फट्याव लगाना कहते हैं एक आदमी या महिला सूप से उपर करके धान गिराती है।  जिसे धान बतूंण कहते हैं जिससे धान का बूस ( भूसा ) अलग हो जाता है   फिर  सूप से छटकाकर साफ धान घर लाये जाते हैं।  धान माणने का एक तरीका और है - धोती चादरो से टेन्ट जैसा लगाकर जिसे तडियो कहते थे बीच में एक पाथर रखकर धान के पूले चूटते हैं।  पर इसमें धान छिटककर दूर भी चले जाते थे, पहाड के किसानो के लिए तो अन्न का एक एक दाना अपने पसीने से सीचकर उगाया होता था।  तो ये विधि तभी करते थे जब बडा खेत हो धान ज्यादा हो और माणने वाले कम।
  
घर लाकर अगले दिन से उन्हें मोस्ट में सुखाया जाता है  जिसे बिसकूण कहते हैं।  अच्छी तरह सूखने पर भकार (लकडी का दीवान बैड नुमा बक्सा) में डाल दिये जाते हैं। भकार की विशेषता ये भी है कि इस बक्से को बनाने में कील नही ठोकते।  लकडी तख्ते खांचे में फिट कर बनाते हैं ये खुलकर फोल्ड भी किया जा सकता है।

असोज में एक कहावत है कि बारिस आदमी को बुतकार बना देती है।  अगर आदमी गाज्यो काटने या घान माणने या किसी काम से गया है, आंगण में  बिसकूण सूख रहा हो तो बारिस के आसार बन गये तो आदमी की स्पीड बढ जाऐगी।  कई बार भाजाभाज पड जाती है कि बिसकूण न भीग जाये।  ऐसा ही खेत के गाज्यो पराव के साथ भी है।  बारिस से पहले समेरना होता है,  किसी के गोरू बाछा आकर खराब न कर दें।

असोज में बहुुत झंझट हैं सराद भी आजकल ही हुए चौमास का भूड धरती के अन्दर से गरमी की भमस और स्याप कीडों का बराबर डर।  धान के साथ मडुवा, गहत मांस आदि की फसल भी समेटनी हुई, ये चीजे तो घर लाकर ही चूटते हैं, मडुवे को जरा स्योताकर मूगर से चूटते हैं।  गहत भट मांस को एक लम्बे डन्डे से जो आगे से टेडा हो जिसे स्वैल कहते हैं से चूटते हैं।  हर अनाज के अलग बिसकूण बनाकर सुखाना, अलग बोरों कट्टों थैलोॆ में रखना,  उन्हें रोज अन्दर बाहर लाना ले जाना होता है।  असोज में लगभग हर पहाडी घर के अन्दर आपको कुटुर फांच पुन्तुरि नजर आऐगे।  भीतर तिलबी धरने की जगह नही होती थी, सब अपने काम में मस्त फसक फराव की भी फुरसत नही।  इसी मौसम में अखरोट पांगर वगैरह भी तोडने सुखाने होते हैं।  ककडी की बडिया बनाना भी इसके बाद होता है।

आजकल की कुछ सब्जियों जैसे पिनालू के नौल आदि सुखाये जाते हैं, असल में असोज में जिसने जितना समाव कर लिया पूरे साल उतना सुखी रहेगा।   ये पहाड की कृषि आधारित व्यवस्था की रीढ है यह महिना।  फसल समेटने के बाद नाज पानी पहले अपने देवी देवताओ के रखा जाता है।  पहले जमाने में फसल से कुछ भाग बचाकर अलग रख दिया जाता था जिसे कितनी भी कमी हो खाते नही थे ये विशेष अवसरो पर पौंण-पच्छी ( मेहमा ) आने पर निकालते थे।  फसल कम हुई अपना खाने को न हो तो कुछ भी रूखा सूखा खाकर गुजारा करते थे।  कुछ साफ अनाज कनस्तरो आदि में अगले साल बीज के लिए भी रख लिया जाता था।

पहाड में असोज के महिने का असोज लगा है न कहकर कहते हैं - असोज चमक रौ।  पर इतना सब होने के बाद भी पहाडी तो पहाडी ही हुए, इसमें भी अपना सुख ढूंढ ही लेते थे।  सभी लोग खेतो में ही हुए तो खेतो में मेला सा रहता, कोई धान काट रहा है कोई माण रहा है।  किसी की गाज्यो कटाई कोई पराव के पूले या गढव बांध रहा है कोई सुयाठ तैयार कर घर पराव या गाज्ये सार रहा है।  किसी की चाय आ गयी तो पडौसी खेत में धात लग गयी- आ जरा चहा पीओ या एक काकडक चिर खै जा, अपना पानी खतम हो गया तो पडौसी के खेत पहुंच गये पानी लाने।  कोई धान काटकर खाली हाथ जा रहा हो तो पडोसी का पराव ही उसके घर पहुंचा दिया।

एक तरह से लोगो का घर आंगन उसके खेत हो जाते थे . एक ने काम निबटा लिया तो दूसरे को धात लगती।  "दै हैगोई आब  हिटो घर, चिलकौई घाम लागि गो. आब बाकि भोव करिया।" जवाब आता - आब थ्वाडै रैगो, पुरयैबेरै उल, तुम घर में बिसकूण चै दिया ।  बस इनही बातों के सहारे असोज कट जाया करता था।

विनोद पन्त' खन्तोली ' (हरिद्वार), 29-09-2021
M-9411371839
विनोद पंत 'खन्तोली' जी के  फ़ेसबुक वॉल से साभार
फोटो-ठाकुर सिंह

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