
बातें पहाड़ की - कौतिक
लेखक: विनोद पन्त 'खन्तोली'कौतिक का मतलब होता है मेला, मेले तो हर जगह लगते हैं और हर मेले का अपना सास्कृतिक ऐतिहासिक और ब्यापारिक महत्व रहा है। कुमाऊँ-गढवाल के कई मेले प्रसिद्ध हैं। इन मेलो पर शिरकत करके पहाड के कई प्रवुद्ध लोगों ने ऐतिहासिक निर्णय लिये जो आगे जाकर मील का पत्थर साबित हुए। मैं जब ये पुरानी बातें पहाड की श्रृखंला लिखने की कोशिस कर रहा हूं तो संयोगवश कल दि 12-9-21 को हमारे गांव खन्तोली में रिषि पंचमी के अवसर पर श्री धौलीनाग देवता के प्रांगण में एक विशाल मेला लगा। मेले की कुछ वीडियो और फोटो देखने को मिले तो मन में पुरानी यादें ताजा हो गयी।
आज तो पहाड में भी मैदान की चीजें दिखाई दे रही हैं, कहीं झूले लगे हैं, कही एक कूदने वाला सा खेल है। बच्चों की आधुनिक फिसलपट्टी जैसा खेल है, चरखी वाला झूला है, गुडिया के बाल बिक रहे हैं, चांदनी से आच्छादित दुकाने हैं। एक बार तो लगा ही नही कि ये मेरे गांव का मेला है अगर मंदिर न दिखता तो मैं तो पहचान ही नही पाता। बचपन से लेकर अपनी किशोरावस्था तक मैने जो मेले देखे हैं उनकी छाप तो अभी भी है ताजा है और रहेगी। मैं उन चीजों को ढूंढ रहा हूं, चित्र में ही सही पर उन पर तो वैसे ही बदलाव आ चुका है, जैसे मुझमें या मेरे हमउम्र लोगों में आया है।
हमारे गांव या इलाके में धौलीनाग मन्दिर, फेडीनाग मन्दिर(कमेडीदेवी), भद्रकाली मन्दिर(भदैं) ,काण्डा कासिण में, गोपेश्वर मन्दिर (भदौरा-धपोलासेरा )। कुछ दूर सनगाड नौलिंग मन्दिर में मेले लगते रहे हैं। बागेश्वर उतरैणी मेला तो आप सभी ने सुना ही होगा तब सभी मेलों का स्वरूप एक सा ही था। लगभग एक सी दुकाने सजती थी, एक सी खाने की चीजें मिलती, चीड के खाम काटकर उपर पिरूल से छाना जैसा बनाकर दुकाने तैयार होती। बरसात का डर हो तो उपर तिरपाल डाला जाता।
मैले में जाने वाले हर किसी का अपना एक अलग और खास मकसद होता था, हम बच्चे जाते थे खिलौने लेने के लिए, जलेबी खाने, बडे बुजुर्ग जाते थे कि पर्व का दिन है दर्शन हो जाये। जवान लोग जो खेती किसानी करते वो कृषि सम्बन्धित सामान लेते, महिलाए जाती थी चूडी पहनने या लाली बिन्दी धपेली गोटा खरीदने। तब पैसा कम ही था, हम मेले के लिए कुछ महिने पहले से ही पैसा जमा करते। ये पैसे मेहमान देकर जाते, तब जेबखर्च जैसा कुछ नही था।
मेले में एक चीज और होती थी वो था भरत मिलाप जैसा, जी हां ब्याहता लडकिया अपने ससुराल से आती और उनकी मां अपने घर से, यहीं मिलना होता था। लडकी के लिए खजूरे पुवे साई वगैरह पकाकर ले जाती मां और वहां पर कुछ खिलाती और कुछ घर के लिए रख देती। मां बेटी के इस मिलाप में एक करुणा होती, लडकी रोती रहती मां चुप कराती। उस समय यदि लडकी किसी कारणवश न आ पाये तो उसके गांव के लोगों को खोजकर सामान भिजवाते। कई बार सामान ले जाने वाला अजनबी होता फिर भी सामान नियत जगह पर पहुंचा देता (तुमार गौं में मेरि छ्योडि बेवाई छ फलाणै ब्वारि उ म्याल में नै ऐरैय तुम यकैं दि दिया)।
मैं अपने यहां के मेले की बात करूं तो मेले की शुरुआत में ही दायी तरफ जलेबी की एक दो दुकाने लग जाती। मिट्टी को खोदकर भट्टी बनी होती उसमें एक बडा सा हड (बडी लकडी का गठ्ठ ) सुलग रहा होता और मोटी मोटी जलेबी निकल रही होती। जलेबी तोलकर तो बिकती ही थी पर हम बच्चों को फुटकर पैसों की पांच पैसे दस पैसे की दे देते। हमारे लिए यही उस समय सबसे पसंदीदा मिठाई थी, जिस पत्ते या कागज में मिलती उसमें लगा बख्खर भी चाट जाते।
जलेबी के बाद दूसरी दुकान होती आलू चने की, बडी कढाई में आलू के गुटके सजे होते,उपर हरा धनिया बुरका होता। चारों तरफ भुनी हुई खुश्याणी (मिर्च) खोसी होती, खुश्याणी हल्की भूरी और मैरून रंग की हो जाती। आलू के गुटके घर के लिए कागज की पुडिया में भी लेकर आते कई बार, साथ में भांग की चटनी होती। जायेदार मसालेदा , मिर्ची वाले गुटके खाकर हम मिर्च लगने पर स्वी स्वी भी करते पर खा भी जाते। पच्चीस पैसे की प्लेट मिलती थी, आलू की गुटके की दुकान में ही चने भी मिलते। आस पास पकौडी की दुकान होती, हमें ठन्डे गरम से मतलब न था जैसे भी हो हमारे लिए तो अप्राप्य थे, स्वाद ही लगते।
कुछ आगे जाने पर मनिहारी की दुकाने दोनो तरफ होती, इन पर बडी भीड होती, गांव की महिलाओ का जमावडा रहता। टिकुलि बिन्दुलि, चरेउ की माला, कांच के पोत के मंगलसूत्र, कुटैक्स नेलपालिस,) गिलट के बिछुवे, पायल, लाली(लिपिस्टिक )। अन्त:वस्त्र की जमकर खरीददारी होती, इसका कारण ये था कि गांव की दुकान में ये सब मिलता न था और शहर जाना महिलाओ का होता न था तो साल भर का स्टाक ले लिया जाता। गांव में तो कभी कभार ही चुड्याव (चूडी बेचमे वाला ) आता। बच्चों के लिए भीमसेनी काजल ऐला युक्त यही पर मिलता और एक चीज हम बच्चों को भी लुभाती वो थे दो तरफ रुद्राक्ष बीच में नकली हाथीदांत और लाख का टुकडा। जिसे नजरिया कहते हैं हम तब ताबीज कहते, हमारी मान्यता थी इसे पहनने से छौव या छल (भूत) नही लगता है।
हमारे लिए खिलौनो की दुकान भी होती जिसमें बांस का बना बाजा, मुरली, नकली घडिया, लाल पन्नी के चश्मे, खुणमुणी (झुनझुना), प्लास्टिक या तार की मुनडी (अंगूठी) मिलती थी। हमें कोई एक या दो चीज खरीदने की इजाजत होती, ज्यादा चीज मागने पर डांट पडती और ज्याजा जिद करने पर सीधे मुंह में फचैक पडती। मेरा पसंदीदा खिलौना प्यांआआआ की आवाज करने वाला बांस की एक दो नलियेो को फंसाकर उसके मुंह पर गुब्बारा बंधा बाजा था। मनोरंजन के नाम पर दस के चासीस (पैसे ) या कागज कि चिट फाडने वाली लाटरी होती थी। एक थैली में रेवडी जैसे गिट्टियों में गिट्टी निकालकर इनाम जीतने वाला होता था, पर असल में ये खेल ठगी वाले जैसे ही थे।
बीच बीच में पहाडी केले मुगरी क्याव, दूदक्याव, कही कहीं हरीछाल के केले मिलते, सीजनल फल होते, धनिये और हरीखुश्याणी के लूण के साथ पहाडी ककडी का चीरा मिलता था। पांगर ( पहडी फल) मिलते, अखरोट मिलते, पांगर और अखोट चौकी (चार दाने) के भाव मिलते, एक रुपै चौकि द्वि रुपै चौकि। केला साईज के हिसाब से, चार आन कोस, आठ आन कोस मिलता। एक दो जगह ठेकी में ककडी का रैत मिलता जो कि तिमूल के पत्ते में होता भाव होता, बीस डबल का एक डाडू।
एकाद पान की दुकाने होती, अगर हमने पान खा लिया तो दिन भर मुंह में रहता, जीभ फिरा फिरा कर होठ लाल करते ताकि सबको पता लगे हमने पान खाया है। फिर होती नकि भलि चीज की दुकाने, नई पीढी को आश्चर्य होगा कि तब मेले मेॆ एक दो परचून जैसी दुकाने मिलती। जिसमेॆ ग्वाव (गोला ), मिसिरी, गट्टा स्यो (मीठा होता था जिसरे अन्दर बेसन का पीस होता था ), चाहा पत्ती, गुड, भुने चने, मूंगफली मिलती। मीठा-कडवा और दोरसा तम्बाकू भी होता था जिसे लोग अपने बुबू के लिए लेकर जाते। इसके अलावा डाल, सुप, मोस्ट, डोका, पत्ते और बांस रिंगाल का मौंण (बारिस से बचाने वाला), लेकर बेचने वाले लोग आते थे, जिन्हें बारुडी कहते थे। तांबे की गगरी, लोहे की कढाई, जुबरी, जाम, लकडी की ठेकी, नईया, पाई, माण , नाई या नाली और दातुल, कुटव, भगवान को चढाने के लोहे त्रिशूल,लोहे की पांच बत्ती की आरती भी बिका करती थी मेले में। कहीं कहीं पर कुमिन (भुज या पेठे ) की मिठाई भी मिलती थी।
मेले का मुख्य आकर्षण होता था झ्वाड-चाचैरि, महिलाए पुरुष गोल घेरा बनीकर हाथ पकडे पैरों को लयबद्ध चलाक , कमर हल्का झुकाकर गाते थे-
कमला रहटै को ताना, कमला घट खुजो बाना
रौतास्यारा घाम लागछौ रौ रौ भौजा रौतास्यार
भीना सनेति कौतिका, भीना दगडै जै उला
बीच में हुडका बजाते , जोड डालते, ओ हो हो की आवाज निकालते, बच्चों को कन्धे पर बिठाकर गाते। एक पल को पूरा मेला रुक जा जाता, सभी इसी में खो जाते। भोग आरती होती ढोली लोग करीब इक्कीस प्रकार का बाजा बजाते, रणसिंह तुरही, झांझर मजीरे भुंकर की आवाज के साथ पुजारी परिक्रमा करते फिर भोग लगता था।
फिर मेले से विदाई की बारी आती, घर का सामान खरीदा जाता था। घर आकर आस पास कौतिकी बान् (मेले से लाया खाने का सामा ) बांटने की परम्परा थी।
महिलाऐ अपनी खास सहेलियों के लिए या पडौस की महिलाओ के लिए या अपनी देराणी जिठाणी के लिए सुहाग का चरेऊ बिन्दी भी जरूर लेकर आती थी।
विनोद पंत 'खन्तोली' जी के फ़ेसबुक वॉल से साभार
फोटो-ठाकुर सिंह
0 टिप्पणियाँ