
कुमाऊँनी भाषा के कवि शेर सिंह बिष्ट, शेरदा ‘अनपढ़’
कुमाऊँनी भाषा के जाने-माने कवि शेर सिंह बिष्ट ‘अनपढ़’ के नाम से कुमाऊँ में हम सभी परिचित हैं। उनका जीवन का सफर एक आम गरीब पहाड़ी बच्चे कि तरह रोमांचक और सन्घर्ष भरा रहा है। शेरदा कभी स्कूल नहीं गये, पर बड़े-बड़े बुद्धिजीवी भी उनकी कविता की सादगी, गांभीर्य और हास्य को देखकर हतप्रभ रह जाते हैं। शेरदा के स्वभाव में बचपन से एक मस्ती है और इसी मस्ती में उन्होंने पहाड़ और पहाड़ी को लेकर रचनाकर्म किया है। जिसमें वैविध्य के साथ-साथ समाज के प्रति ऎसा सटीक संदेश है कि कोई भी कविता सुनकर उन्हें दाद दिये बगैर नहीं रह सकता। सबसे बड़ी बात यह भी है कि उनकी कविता इतनी सरल और जीवंत है कि एक आम कुमाऊँनी उससे अपने आप को अलग नहीं कर पाता।
शेरदा के जन्म के बारे में खुद शेरदा के शब्दों में उनको अपनी पैदाइश का दिन या वर्ष ठीक से पता नहीं है क्योंकि उस समय बर्थ-डे मनाने का चलन तो था नहीं। बाद में शेरदा का रचनाकर्म शुरू हुआ तो मित्रों द्वारा तीन अक्टूबर १९३३ उनकी जन्मतिथि घोषित कर दी गयी। शेरदा के अनुसार उनका जन्म अल्मोड़ा बाजार से दो-तीन किलोमीटर की दूरी पर स्थित माल गांव में हुआ था। गांव हरा-भरा था, खूब साग-सब्जी होती थी, लोग दूध और साग-सब्जी शहर में बेचते थे। अनाज शायद जरुरत से कम होता होगा तो अनाज नहीं बेचा जाता था। जब वह चार साल के ही थे तो पिताजी बिमारी से चल बसे, आर्थिक हालत खराब हो गयी, जमीन, मां का जेवर, मकान सब बिक गये थे। जब तक शेरदा ने होश सम्भाला तो वे लोग गांव के ही किसी और व्यक्ति के मकान में रहते थे। शेरदा दो भाई और एक बहन में सबसे छोटे थे और वह अपनी माँ के साथ गांव में रहते थे। शेरदा कि बहन कि शादी उनके पिता के जीवित रहते हुये ही हो चुकी थी और पिता के निधन के बाद उनके बड़े भाई भीम सिंह अपने मामा के यहां रहने चले गये।
शेरदा जैसे ही थोड़ा बड़े हुये तो गांव में किसी की गाय-भैंस चराने लगे फ़िर किसी के बच्चे को खिलाने (आजकल के परिपेक्ष में कहें तो बेबी सिटिंग), झूला झुलाने का काम करने लगे। इस बेबी सिटिंग काम के बदले उस समय में शेरदा को महिने के आठ आने मिलते थे। शेरदा आठ साल के हुये तो काम कि तलाश में अल्मोड़ा शहर में आ गये और वहां एक अध्यापिका (बचुली मास्टरनी) के यहां काम करने लगे। अपने घर में नौकरी पर रखने ले लिए जब शेरदा से अता-पता पूछा तो शेरदा ने बताया कि मां है, पर पिताजी गुजर गये। अध्यापिका ने भी सोचा कि बिना बाप का लडक़ा है, गरीब है, इसको कुछ पढ़ा-लिखा भी देती हूँ। अध्यापिका ने उनको घर पर ही अक्षर ज्ञान कराया, अर्थात शेरदा को हिन्दी में लिखना पढ़ना सिखा दिया। फिर कुछ दिन अल्मोड़ा में रहने के बाद शेरदा बारह साल की उम्र में आगरा चले आये।
आगरा में भी शेरदा ने घर की नौकर वाली छोटी-मोटी नौकरियां कीं। वहां उनको रहने की कोई चिन्ता नहि थी क्योंकि उनके भाई वहां इंप्लायमेंट दफ्तर में चतुर्थ श्रेणी कर्मी थे। एक दिन घूमते हुये आर्मी के भर्ती दफ्तर में पहुंच गये तो उस समय वहां बच्चा कंपनी की भर्ती हो रही थी। शेरदा भी अपनी किस्मत आजमाने को आर्मी की भर्ती की लाइन में लग गये। अफसर ने पूछा कुछ पढ़े-लिखे हो तो शेरदा ने झूठ-मूठ बोल दिया कि चौथी फ़ेल हूं। शेरदा को पढ़ने को अखबार दिया तो उन्होने किसी तरह थोड़ा-थोड़ा पढ़ दिया। बचपन से पढऩे का शौक था, मास्टरनी जितना सिखाती थी उससे आगे पढऩे लगते थे। जो शब्द समझ में नहीं आते उन्हें पढ़े-लिखे लोगों से समझ लेते थे। तो इस तरह शेरदा को आगरा पहुंचने तक पढऩे-लिखने का अच्छा अनुभव हो गया था। आर्मी की भर्ती में शेरदा को बच्चा कंपनी में चुन किया गया। अपनी आर्मी में भर्ती का दिन शेरदा को बहुत अच्छी तरह याद था ३१ अगस्त १९५०।
बच्चा कंपनी में भर्ती के बाद शेरदा मेरठ में नियुक्त हो गये, पहली सरकारी सेवा में बड़ा अच्छा लगा। उनके अनुसार वहां सभी अच्छे लोग थे और वो बहुत खुश थे, हंसी-खुशी के माहौल में आनंद आने लगा। वहां पढ़े-लिखे लोग थे और शेरदा हुये अनपढ़। शेरदा ने फ़िर मेरठ में ही तीन-चार साल बच्चा कंपनी में गुजारे। उसके बाद १७-१८ साल की उम्र में फौज का सिपाही बन गया। सिपाही बनने के बाद मोटर ड्राइविंग ट्रेड मिला तो गाड़ी चलाना सिखा। वहां से पासआउट हुए तो पोस्टिंग में जालंधर भेज दिया गया। जालंधर के बाद झांसी, झांसी के बाद जम्मू-कश्मीर में घुमे। जम्मु कश्मीर में नारियां, राजौरी, पूंछ, नौशेरा में ड्यूटी की और ऎसे ही बारह साल गुजारे और फ़िर पूना बदली हो गई।
शेरदा कश्मीर से जब १९६२ में पूना पहुंचे तो चीन और भारत का युद्ध चल रहा था। युद्ध में जो सैनिक घायल होते थे, उनके साथ आर्मी अस्पताल में संवाद में लड़ाई के बारे में जिक्र सुना तो उनके दिल में आया कि एक किताब लिखूं। तब शेरदा ने अपनी पहली पुस्तक हिन्दी में लिखी जो ‘ये कहानी है नेफा और लद्दाख की’ शीर्षक से प्रकाशित होकर आयी। इस पुस्तक को उन्होने जब जवानों के बीच बांटा तो अपनी पुस्तक के बारे में पाठकों की प्रतिक्रिया जानने का एक नया अनुभव हुआ। शेरदा ने पूना में पहाड़ की कुमाऊं-गढ़वाल और नेपाल की औरतें कोठों में देखीं। जिनके बारे में उनके साथी जवानों ने बताया तो उनको बेहद दुख हुआ और शेरदा ने अपनी अगली किताब कुमाऊंनी में ‘दीदि-बैंणि’ लिखी।
शेरदा के कवि जीवन और रचनाओं के बारे में हम आगे और पढ़ेंगे..................... (कृमश: भाग-२)शेरदा से सम्बंधित कुछ मुख्य लिंक्स
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