
🔥'द्रोणगिरि' उत्तराखंड का आद्य शक्तिपीठ 🔥
💧रामायणकालीन हिमालय का औषधिपर्वत💧🎄जहां हनुमान जी संजीवनी बूटी लेने आए थे🎄
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💠पुस्तक परिचय💠
🇯🇵1.‘द्रोणगिरि : इतिहास और संस्कृति’, 2001
🇯🇵2. ‘दुनागिरि माहात्म्य’, 2002, 2007
प्रकाशन : उत्तरायण प्रकाशन, बी-367,नेहरू विहार, करावल नगर रोड़, दिल्ली-110094
मोबाइल : 9868592098, 9958302238
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कई मित्रों ने मेरे द्वारा द्वाराहाट स्थित द्रोणगिरी पर लिखी पुस्तकों 'द्रोणगिरी इतिहास और संस्कृति' तथा ‘दुनागिरि माहात्म्य’ के प्रकाशन आदि के बारे में जानकारी चाही है। वर्त्तमान समय में संजीवनी बूटी को लेकर द्रोणगिरि पर्वत की अवस्थिति के बारे में विद्वानों द्वारा जो दावे और प्रतिदावे किए जा रहे हैं,उस सन्दर्भ में भी विद्वानों की इन पुस्तकों के सम्बन्ध में जिज्ञासा रही है।
इस पोस्ट के माध्यम से जिज्ञासु मित्रों को बताना चाहुंगा कि मेरी ये दोनों पुस्तकें द्रोणगिरि पर्वत से जुड़े उन सभी ऐतिहासिक और भौगोलिक पक्षों पर गवेषणात्मक दृष्टि से प्रकाश डालती हैं। इन पुस्तकों में द्रोणगिरि पर्वत के सम्बंध में प्रचलित भ्रांत और अंधविश्वास जनित मान्यताओं का खंडन किया गया है, साथ ही रामायण एवं स्कंदपुराण के मानसखंड के साक्ष्यों के आधार पर यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि वास्तव में वर्त्तमान द्वाराहाट स्थित 'द्रोणगिरि' या स्थानीय भाषा में कहा जाने वाला 'दुनागिरी' है,जहां हनुमान जी संजीवनी बूटी लेने आए थे।
उल्लेखनीय है कि उपर्युक्त दोनों पुस्तकें पिछले कई वर्षों से आउट ऑफ प्रिंट चल रही हैं। पर पुस्तक की निरन्तर मांग को देखते हुए बहुत शीघ्र ही इनके संशोधित संस्करण के पुनर्प्रकाशन की योजना बन रही है। मां दुनागिरि की कृपा बनी रही तो ये दोनों पुस्तकें अतिशीघ्र अपने नए परिधान में शीघ्र ही उपलब्ध हो सकेंगी।
मेरी इन पुस्तको को लिखने के दो मुख्य प्रयोजन रहे हैं। पहला यह कि रामायणकालीन उस द्रोणगिरि पर्वत की ऐतिहासिक और पौराणिक धरातल पर पहचान स्थापित करना जिसकी भौगोलिक स्थिति के बारे में प्रायः विवाद और भ्रम की स्थिति रहती आई है। पुस्तक लेखन का दूसरा महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है आदि शक्तिपीठ द्रोणगिरि के धार्मिक, दार्शनिक और सांस्कृतिक महत्त्व को राष्ट्रीय धरातल पर स्थापित करना। बताना चाहुंगा कि सन् 2001 में पहली बार जब मेरी ‘द्रोणगिरि : इतिहास और संस्कृति’ शीर्षक से यह पुस्तक प्रकाशित हुई तब इस शक्तिपीठ के बारे में जानकारी देने वाली कोई भी पुस्तक नहीं थी और जहां तक मेरी जानकारी है,आज भी मेरी उपर्युक्त दो पुस्तकों के अतिरिक्त अन्य कोई पुस्तक नहीं है जो द्रोणगिरि पर्वत या दुनागिरि शक्तिपीठ के इतिहास पर लिखी गई हो।

विडंबना रही है कि हजारों वर्षों की पराधीनता के कारण देशवासियों ने अपने ही क्षेत्र के राम संस्कृति के प्रामाणिक इतिहास को भुला दिया है। इसलिए आज भी हम यह निर्णय नहीं कर पाए हैं कि वह असली 'द्रोणगिरि' पर्वत कौन सा है,जहां से हनुमान जी लक्ष्मण के प्राण बचाने के लिए हिमालय से संजीवनी बूटी का पहाड़ उठाकर लंका को ले गए थे। जहां तक द्रोणगिरि पर्वत की भौगोलिक पहचान का सवाल है भारत के अनेक स्थानों में जनश्रुतियों के आधार पर 'द्रोणगिरि' पर्वत होने की मान्यताएं लोक प्रचलन में हैं किन्तु उनके ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलते। परन्तु स्कन्दपुराण के ‘मानसखण्ड’ में वर्णित ‘द्रोणगिरि’ पर्वत के भौगोलिक विवरण से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि रामायण के काल में हनुमान जी संजीवनी बुटी लेने के लिए हिमालय में जिस ‘ओषधिपर्वत’ पर गए थे वह पर्वत कहीं और नहीं बल्कि वर्तमान में उत्तराखंड के अल्मोड़े जिले के द्वाराहाट में स्थित यही ‘द्रोणगिरि’ पर्वत था।
जहां तक द्रोणगिरि पर्वत के साथ द्रोणगिरि देवी या दुनागिरि देवी का माहात्म्य और प्राचीन इतिहास जुड़ा है,उस सम्बंध में भी कहा जा सकता है कि भारत में वैष्णव शक्तिपीठ के नाम से दो शक्तिपीठ हैं एक जम्मू कश्मीर स्थित 'वैष्णो देवी' और दूसरा उत्तराखंड में रानीखेत से 37 किमी की दूरी पर द्वाराहाट स्थित ‘द्रोणगिरि’ शक्तिपीठ जिसे स्थानीय भाषा में ‘दुनागिरि’ के नाम से जाना जाता है।अध्यात्म-योग के साधकों के लिए दुनागिरि शक्तिपीठ अनेक अलौकिक सिद्धियों को प्राप्त करने का दुर्लभ स्थान है। यहां द्रोणगिरि पर्वत के शक्तिपीठ में योग साधना का अभ्यास करने वाले सन्त-महात्माओं को ऐसी अनुभूति होती है मानो दिव्य शक्ति की ऊर्जा से शक्तिपीठ का कण-कण स्पन्दित हो रहा हो। यहां की वनौषधियों और वृक्षों में भी शक्ति का स्पन्दन अत्यन्त गतिशील रहता है जिसके परिणामस्वरूप ध्यान तथा समाधि लगाने में दैवी सहायता प्राप्त होती है। आज अनेक दावों और प्रतिदावों के बावजूद भी संजीवनी बूटी तो हम ढूंढ नहीं पाए हैं किंतु सौभाग्य से आज दुनागिरि शक्तिपीठ के आध्यात्मिक दिव्यधाम के हम सहज में ही दर्शन कर सकते हैं जिसके पर्यावरण में संजीवनी ऊर्जा की दिव्य तरंगें व्याप्त हैं और जिनकी प्रत्यक्ष रूप से अनुभूति सब को होती है,श्रद्धा भाव से परिपूर्ण भक्तों और दर्शनार्थियों को भी और योगसाधना में रत साधकों को भी।

मैंने पन्द्रह-बीस वर्षों तक इस ‘द्रोणगिरि’ शक्तिपीठ का नियमित दर्शनार्थी बनकर तथा उसी दौरान क्षेत्र का पैदल भ्रमण करते हुए, शोधकर्ता के रूप में इस क्षेत्र के पार्श्ववर्ती नदी-पर्वतों और ऐतिहासिक स्थलों का स्कन्दपुराण के ‘मानसखण्ड’ में वर्णित ‘द्रोणगिरि’ पर्वत के भौगोलिक विवरणों से एवं रामायण कालीन कथा प्रसंगों से पहचान करते हुए सन् 2001 में ‘द्रोणगिरि : इतिहास और संस्कृति’ नामक अपनी पुस्तक में तथ्यों और प्रमाणों द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि हनुमान जी जिस द्रोणगिरि पर्वत पर 'संजीवनी बूटी' लेने गए थे दरअसल, वह रामायण कालीन पर्वत गढ़वाल के चमोली जिले में स्थित 'द्रोणागिरि पर्वत' नहीं बल्कि कुमाऊं स्थित अल्मोड़ा जिले के द्वाराहाट स्थित 'द्रोणगिरि' पर्वत है।
सन् 2001 में 'दिल्ली संस्कृत अकादमी' द्वारा बिन्सर, रानीखेत में आयोजित 'प्रथम उत्तरांचल राष्ट्रीय वेद सम्मेलन ' में तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री माननीय डा.मुरली मनोहर जोशी जी द्वारा इस पुस्तक का लोकार्पण किया गया तथा 500 से भी अधिक पुस्तकों की प्रतियां वहां विद्वानों और पत्रकारों को निशुल्क भेंट की गई थीं।
मैंने अपनी उपर्युक्त पुस्तक - ‘द्रोणगिरि : इतिहास और संस्कृति’ में विस्तार पूर्वक बताया है कि पुराकाल में पर्यावरण विरोधी आसुरी शक्तियों ने पृथ्वी,अग्नि, जल, वायु, आकाश आदि प्राकृतिक तत्त्वों को अपने नियंत्रण में ले लिया था तो ऐसे संकटकाल में जब ब्रह्माण्ड की पूरी प्राकृतिक व्यवस्था असंतुलित होने लगी तो पर्यावरण संरक्षण की चिन्ता करने वाली देवशक्तियों ने हिमालय में जाकर जिस स्थान पर आदि शक्ति जगदम्बा से विश्व पर्यावरण की रक्षा करने के लिए प्रार्थना की वह स्थान यही द्रोणगिरि पर्वत है -
“नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम्।।”
- दुर्गासप्तशती‚5.9


मैंने इस पुस्तक में द्रोणगिरि शक्तिपीठ के दो शिलाविग्रहों का धार्मिक और दार्शनिक फलितार्थ बताते हुए कहा है कि पुरातन काल से ही इस सिद्ध द्रोणगिरि वैष्णवी शक्तिपीठ में ऋषि-मुनि कठोर तपों की साधना करते आए हैं। उपनिषदों और आरण्यक ग्रन्थों के काल में सृष्टि विज्ञान के गूढ दार्शनिक सिद्धान्तों की तत्त्व चर्चा यहां द्रोणगिरि की गिरि-कन्दराओं में ही हुई थी जिसके परिणाम स्वरूप ‘श्वेताश्वतरोपनिषद्’, ‘कठोपनिषद् केनोपनिषद् आदि उपनिषदों की रचना हुई। सृष्टि तत्त्व के जिज्ञासुओं के लिए कूटस्थ ब्रह्म जगत का कारण नहीं हो सकता क्योंकि वह निर्विकार और निर्द्वन्द्व है। यही परम तत्त्व माया शक्ति का आश्रय लेकर जब सृष्टि हेतु प्रवृत्त होता है तो ईश्वर, सगुण ब्रह्म शिव, महेश्वर आदि अनेक नामों से जाना जाता है। परमतत्त्व की स्त्री रूप से उपासना करने वाले साधक उसकी प्रकृति परमेश्वरी, देवी, दुर्गा, जगदम्बा,भगवती आदि अनेक नामों से आराधना करते हैं। इस प्रकार भारतीय सृष्टि वैज्ञानिक अपनी योग-साधना के बल पर ही उपनिषद् काल में इस तथ्य का रहस्योद्घाटन कर सके कि ‘ब्रह्म’और ‘शक्ति’ दोनों के संयोग से ही संसार की उत्पत्ति संभव है। ‘श्वेताश्वतरोपनिषद्’में इस तत्त्व चिन्तन का विस्तार से वर्णन आया है। इस उपनिषद में ‘माया’ को मूल प्रकृति और उसके अधिष्ठाता को महेश्वर अर्थात् ‘ब्रह्म’ के रूप में निरूपित किया गया है। योग न केवल जीवात्मा को परमात्मा से जोड़ने की प्रक्रिया है बल्कि प्रकृति को परमेश्वर के साथ जोड़ने का सृष्टिविज्ञान भी है।द्रोणगिरि शक्तिपीठ के दो शिलाविग्रहों से प्रेरित दार्शनिक चिन्तन का ही यह परिणाम है कि ‘श्वेताश्वतरोपनिषद्’ में ‘माया’ को मूल प्रकृति और उसके अधिष्ठाता को महेश्वर अर्थात् ‘ब्रह्म’ के रूप में निरूपित किया गया है-
“मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम्।
तस्यावयवभूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत्।।”
स्कन्दपुराण के ‘मानसखण्ड’ के अनुसार
यहां द्रोणगिरि’ के शिखर पर महिषमर्दिनी जगदम्बा दुर्गा ‘वह्निमति’ के रूप में विराजमान हैं।‘ दुनागिरि वस्तुतः वैष्णवी शक्ति का अत्यन्त गोपनीय सिद्ध शक्तिपीठ है।वैष्णवी शक्ति की ऊर्जा से प्रेरित होने वाली अद्भुत और शक्तिशाली दिव्य तरंगों के गुरुत्वाकर्षण से यहां का वातावरण सदा योगमय बना रहता है। यहां सृष्टि की अधिष्ठात्री प्रकृति परमेश्वरी ने सर्वप्रथम तपस्या और योग साधना की थी और सृष्टि की रक्षा के लिए हिमालय के असुरों शुम्भ-निशुम्भ आदि का वध किया था। परन्तु यहां प्रकृति परमेश्वरी सौम्यावस्था में स्वयं योगगुरु बनकर साधक का मार्ग दर्शन करती है और भक्तों की मनोकामना भी पूरी करती है।मां दुनागिरि के चरणों में प्रणामांजलि सहित सभी मित्रों को हार्दिक मंगल कामनाएं!
-© डा.मोहन चंद तिवारी 💐💐💐

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