
मालू (Bauhinia vahlii)
लेखक: शम्भू नौटियालमालू: वानस्पतिक नाम बहुनिया वाहिल (Bauhinia vahlii) Synonyms: Bauhinia racemosa, Phanera vahlii पादप कुल Caesalpiniaceae या फैबेसी (Fabaceae) से संबंधित है। यह वनस्पति समुद्रतल से लगभग 1500 मीटर तक ऊँचाई पर उत्तराखंड के साथ ही पंजाब, मध्यप्रदेश, सिक्किम,उत्तर प्रदेश में पाया जाता है। इसमें पुष्प व फल अप्रैल से जून तक लगते हैं। इसके पत्ते कचनार के पत्तो के आकार के होने के कारण इसे कचनार लता भी कहा जाता हैं।
मालू बेल भारत में सबसे बड़ी लता है, जो 10-30 मीटर तक बढ़ सकती है। काष्ठीय तना तना 20 सेमी तक मोटा हो सकता है। फैलने वाली रूखी शाखाएं रूखे महीन बालों से ढकी होती हैं। प्रतान युग्मन में होते हैं व पत्त्ते के दो-कटे हुए चौडे भाग होते हैं। पुष्प सफेद 2-3 सेंटीमीटर, पुराने होने पर पीले हो जाते हैं। इसके पत्तों से बहुत सुंदर पत्तल व इसकी छाल के रेशों से रस्सियां बनाई जा सकती हैं। इसके बीज औषधीय उपयोग मे काम आते हैं।
इसके पत्तों से पत्तल, पूड़े, टिहरी की सिगोंरी मिठाई को लपेटकर रखने से बहुत स्वादिष्ट बनाने में व पूजा की सामग्री बनाई जाती है। साथ ही चारा पत्ती के रूप में भी उपयोग की जाती है। मालू का फूल भौंरों के शहद बनाने में सहायक होने के साथ ही औषधीय उपयोग में भी लाया जाता है। छाल से चटाई व सूखी लकड़ी ईंधन के रूप में काम आती है। छप्पर की छत बनाने में भी पत्तों का उपयोग किया जाता है। मालू के पौधे जल स्रोत व मृदा संरक्षण का काम करता है।

मालू वनस्पति पारिस्थितिकीय संतुलन के साथ ही जल स्रोत व मृदा संरक्षण में अहम होता है। मालू के पत्तों के काढ़े से शरीर में बन रही गांठों की बीमारी दूर होती है। खांसी, जुकाम व पाचन तंत्र को दुरुस्त रखने के लिए भी मालू के पत्तों का उपयोग किया जाता है। शादी-ब्याह में पत्तल, पूडों के उपयोग के बाद इनसे खाद बनाई जाती है। जबकि थर्माकॉल को नष्ट नहीं किया जा सकता है। लगभग डेढ़ दो दशक से पहले शादी ब्याह व पूजा पाठ से लेकर खाना परोसने के पत्तल तक सभी मालू के पत्तो से ही तैयार किये जाते थे।
जर्मनी में इससे बनी पत्तल को नेचुरल लीफ प्लेट के नाम से जाना जाता है। यूरोप में बहुत से बड़े होटलों में इन पत्तलों का भारी मात्रा में आयात भी किया जाता है। चिकित्सा विज्ञान के अनुसार भी प्लास्टिक व थर्माकोल में भोजन करने से उसमें उपस्थित रासायनिक अवयव खाने में मिल कर पाचन क्रिया पर विपरीत प्रभाव डालते है तथा त्वचा व अन्य कई बीमारियों का कारक भी बनते है। आर्युवेद के अनुसार जिन प्राकृतिक पत्तलों में भोजन परोसा जाता है वह इको फ्रेंडली होने के साथ-साथ उनमें औषधीय गुण भी पाये जाते है जो मानव स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होते है।
लेकिन मालू से पत्ते से पत्तल बनाने का रिवाज आधुनिकता के दौर में एकदम बंद हो चुका है। मालू के पत्तल में भोजन करना चांदी के बर्तन में भोजन करने के बराबर माना जाता था। साथ ही जहाँ पाचन तंत्र सम्बंधी रोग भी दूर हैं वहीं शादी-ब्याह व अन्य समारोह में उपयोग होने के बाद जूठे पत्तलों को आसानी से जलाने के साथ मिट्टी में दबाकर जमीन की उपजाऊ क्षमता को भी बढ़ावा मिलता था लेकिन प्लास्टिक के पत्तल को जलाने व जमीन में गाड़ने के बाद भी उसका अस्तित्व नहीं खत्म होता है, जो प्रमुख रूप से प्रदूषण का कारण बनता जा रहा है।

उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों में मालू के पत्ते में भोजन करने के साथ-साथ उसके फल का कोमल बीज को भी आग में पका कर बडे चाव से खाया जाता था। यदि औषधीय दृष्टि से मालू की बात की जाय तो इसमें एण्टी बैक्टीरियल गुण भी पाये जाते है तथा प्राचीन समय में पारम्परिक रूप से इससे बुखार, अतिसार तथा टॉनिक के रूप में प्रयोग किया जाता था इसमें कई महत्वपूर्ण रासायनिक अवयव जैसे Flavonoids, Betulinic acid, Triterpene, Gallic acid पाये जाते है जहॉ तक इसकी पोष्टिक गुणवत्ता की बात की जाय तो इसमें लिपिड- 23.26 प्रोटीन- 24.59 तथा फाइबर-6.21 प्रतिशत तक पाये जाते है।
मेडिकल साइंस ने इस पौधे में फ्लेवोनोइड और टैनिन की उपस्थिति के कारण जीवाणुरोधी व इम्युनोमॉड्यूलेटरी गतिविधि व प्रतिरक्षा प्रणाली के प्रमोटर के रूप में दावा किया है। यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि बहुनिया वाहली में जीवाणुरोधी और इम्यूनोमॉड्यूलेटरी गतिविधि यह न्यूट्रोफिल की कमी और जीवाणु संक्रमण से पीड़ित रोगियों के इलाज के लिए उपयोगी हो सकती है। फ्लेवोनोइड ग्लाइकोसाइड और टैनिन में इम्यूनोमॉड्यूलेटरी गतिविधि होने की जानकारी प्राप्त हुयी है।

चूंकि टैनिन और एफ लैवोनोइड, मालू के मेथनॉलिक अर्क में पाए जाते हैं, जिसके परिणाम इस पौधे में इम्युनोमॉड्यूलेटरी गतिविधि का समर्थन करते हैं, और दवा की पारंपरिक प्रणाली में विभिन्न विकारों के खिलाफ प्रतिरक्षा प्रणाली के प्रमोटर के रूप में प्रयोग करने का दावा किया जा सकता है। यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि मालू में जीवाणुरोधी और इम्यूनोमॉड्यूलेटरी गतिविधि होती है जो फ्लेवोनोइड और टैनिन की उपस्थिति के कारण हो सकती है, और यह न्यूट्रोफिल की कमी और जीवाणु संक्रमण से पीड़ित रोगियों के इलाज के लिए उपयोगी हो सकता है।
यदि इन वनस्पतियो की तरफ ध्यान जाए तो काफी अधिक मात्रा में पलायन को रोका जा सकता है। साथ ही उत्तराखंड के पहाड़ो में बिखरी हुई खेती है जिस कारण से बड़े स्तर पर बागवानी या इस तरह का रोजगार करना मुश्किल हो जाता है, यदि सरकारी प्रयासों से चकबन्दी होती है तो इन बिखरे खेतों के बदले एक, दो या तीन चकों में लोगों को सभी खेत मिल जाये तो इस तरह के बड़े प्रोजेक्ट पर किसान काम कर सकते हैं और साथ ही देखरेख भी आराम से कर सकते है।

श्री शम्भू नौटियाल जी के फेसबुक पोस्ट से साभार
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