
🔥न्यायदेवता ग्वेल-10🔥
(लेखक: डा.मोहन चन्द तिवारी)
💄महाकवि कालिदास के रघुवंश से प्रेरित है: बाला गोरिया की दिव्य उत्पत्ति की कथा💄
मित्रों! जैसा कि मैंने अपनी पिछली पोस्ट में बताया है कि ग्वेलदेवता के जन्म को लेकर जागर कथाओं में कई तरह की जनश्रुतियां प्रचलित हैं। इनमें से एक लोक प्रचलित कथा है कि भैरव देवता की कृपा से राजा झालीराई को आठवीं रानी कलिंका से पुत्र बाला गोरिया का जन्म हुआ। ब्रजेन्द्र लाल शाह की श्रीगोलू-त्रिचालिसा के अनुसार काशी के एक सिद्ध के कहने पर राजा झालराई ने भैरव यज्ञ का अनुष्ठान किया और तब भैरव ने राजा को स्वप्न में दर्शन देते हुए कहा कि आप आठवीं रानी से विवाह करो तब मैं स्वयं उसके गर्भ में आकर आपकी संतान प्राप्ति की मनोकामना पूरी करूंगा-
"एक सिद्ध काशी से आया।
उसने भैरव यज्ञ सुझाया।
अष्टम ब्याह करो तब राजा।
अवस बनेगा तुमरो काजा।
बहुविधि नृप भैरव को ध्याये।
सपने में शुभ दर्शन पाए।
भैरव बोले आठवीं रानी लाओ नरेश।
उसके गर्भ में आय के हरण करूंगा क्लेश।।"
किन्तु डा. हरिनारायण दीक्षित जी ने अपने 'श्रीग्वल्लदेवचरितम्' महाकाव्य के चौथे सर्ग में ग्वेलदेवता के जन्म के बारे में जो नया कथानक जोड़ा है, उसके अनुसार गवेल्ज्यू का जन्म कुमाऊं उत्तराखंड में काशी के तुल्य माने जाने वाले प्रसिद्ध तीर्थस्थान श्रीविभाण्डेश्वर महादेव के योगी संत नारायण मुनि के कहने पर श्रीविभाण्डेश्वर तीर्थ में तपस्या करने पर साक्षात् शिव के वरदान से बाला गोरिया जैसा प्रतापी पुत्र प्राप्त किया-
किन्तु यहां मैं इस कथा के भावी इतिवृत्त को थोड़ा विराम देते हुए डा.हरिनारायण दीक्षित के इस कथाप्रसंग की तुलनात्मक समीक्षा करना चाहुंगा।वस्तुतः डा.दीक्षित जी ने राजा हालराय की निसंतान होने की कथा को प्राचीन सूर्यवंशी राजा दिलीप के कथा प्रसंग से जोड़कर महाकाव्य शैली में ग्वेलदेवता की उत्पत्ति का जो कथा विस्तार किया है, उससे न केवल ग्वेलज्यू के सांस्कृतिक महत्त्व की अभिवृद्धि हुई है बल्कि लेखक ने काशी के समान महत्त्व रखने वाले श्रीविभाण्डेश्वर महादेव जैसे उपेक्षित तीर्थ को राष्ट्र की मुख्यधारा में जोड़ने का स्तुत्य प्रयास ही कहा जा सकता है, जैसा कि निम्नलिखित पद्यों से ज्ञात होता है-
"लभ्यं न तीर्थं किमपीह तत्समं,
लभ्यो न देवोsपि च कोsपि तत्समः।
मखोsपि कश्चित्फलदो न तत्समो
नूनं तदीयानुपमास्त्युदारता।।"
"चत्वारि धामान्यपि तज्जगतपतेस्-
तस्य प्रभावे तुलनां न बिभ्रति।
न द्वादशज्योतिरलंकृतान्यपि
स्थलानि साम्यं दधते sमुना फले।।"
-'श्रीग्वल्लदेवचरितम्',4.34-35
अर्थात् इस संसार में विभांडेश्वर तीर्थ के समान कोई दूसरा तीर्थ नहीं,श्रीविभांडेश्वर महादेव के समान दूसरा कोई देव नहीं,उनके समान कोई यज्ञ भी फलदायी नहीं। इस संसार में श्रीविभांडेश्वर महादेव की उदारता अनुपम है।जगदीश्वर के चारों धाम और द्वादश ज्योतिर्लिंग भी इस तीर्थक्षेत्र की बराबरी नहीं कर सकते हैं।
ऐसा प्रतीत होता है कि 'श्रीग्वल्लदेवचरितम्' महाकाव्य के लेखक डा.हरिनारायण दीक्षित जी ने न्याय देवता के जीवन चरित को साहित्यिक एवं सांस्कृतिक महत्ता प्रदान करने भावना से अपने महाकाव्य में निस्संतान राजा हालराय की पुत्र कामना की कथा का विस्तार महाकवि कालिदास कृत रघुवंश महाकाव्य में राजा दिलीप की कथा से प्रभावित होकर किया है।

रघुवंश महाकाव्य के अनुसार राजा दिलीप भी अपना राजकाज मंत्रियों को सौंपकर हिमालय के तपोवन में जाकर अपने पुत्र विहीन होने की व्यथा महर्षि वसिष्ठ को सुनाते हैं। महर्षि वसिष्ठ ने तपोबल से राजा दिलीप की संतान नहीं होने का कारण जानकर राजा दिलीप को उपाय बताया कि राजा यदि स्वर्गस्थ कामधेनु की पुत्री नंदिनी गौ की सेवा शुश्रुषा करके उसे प्रसन्न कर दें तो उनकी पुत्रप्राप्ति का मनोरथ पूर्ण हो सकता है। अपने गुरु वसिष्ठ की आज्ञा स्वीकार कर राजा दिलीप अपनी धर्मपत्नी सुदक्षिणा के साथ नंदिनी की सेवा-शुश्रुषा में तत्पर हो जाते हैं। इक्कीस दिन व्यतीत होने के पश्चात् एक दिन नंदिनी राजा दिलीप की परीक्षा लेने हेतु हिमालय के घने वन कंदराओं में चली जाती है और वहां माया निर्मित सिंह से आक्रांत होकर प्राण रक्षा के लिए चिल्लाने लगती है। राजा दिलीप नंदिनी की आवाज सुनकर सिंह को मारने के लिये अपने तूणीर से बाण निकालते हैं परन्तु उनके हाथ बाण के पंखों से चिपक कर रह जाते हैं। तब असहाय राजा को विस्मित करते हुए सिंह मनुष्य वाणी में बोलते हुए कहता है कि "हे राजन् मैं इस वन की रक्षा में नियुक्त भगवान् शिव का अनुचर हूं तथा इस वन में बलात् प्रवेश करने वाले प्राणी मेरा आहार हैं। इसलिए इस सुरक्षित क्षेत्र में प्रवेश करने के कारण जिस वसिष्ठ मुनि की गौ की आप रक्षा कर रहे हो वह मेरा भोजन है। मुझ पर शिव की कृपा होने से आप मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते। यही कारण है कि शर संधान के लिये तत्पर तुम्हारा हाथ स्वतः बाणों से चिपक गया है।"
सिंह के ये वचन सुनकर राजा दिलीप हतप्रभ हो जाते हैं। राजा दिलीप नंदिनी की रक्षा करने के अपने दृढ़ संकल्प को प्रकट करते हुए सिंह से उस देवधेनु गौ को मुक्त करने की प्रार्थना करते हैं और उस सिंह के आहार हेतु अपने शरीर को समर्पित कर देते हैं।राजा की इस गुरुभक्ति और गोभक्ति से प्रसन्न होकर देवधेनु नंदिनी अपने माया सिंह का निवारण कर राजा को सन्तान प्राप्ति का वर प्रदान करती है।
डा. हरिनारायण दीक्षित जी के महाकाव्य 'श्रीग्वल्लदेवचरितम्' में राजा हालराय की पुत्रप्राप्ति की कामना से श्रीविभाण्डेश्वर महादेव में तपस्या करने का कथाप्रसंग बहुत कुछ कालिदास के रघुवंश महाकाव्य में आई राजा दिलीप की कथा से प्रभावित प्रतीत होता है।

'श्रीग्वल्लदेवचरितम्' महाकाव्य में वसिष्ठ मुनि के स्थान पर नारायण मुनि हालराय को उनकी सन्तानप्राप्ति का उपाय बताते हुए कहते हैं कि पूर्वकाल में राजा दशरथ के पूर्वज निस्संतान राजा दिलीप को गोसेवा करके पुत्र प्राप्ति हुई थी और देवी पार्वती को भी तपस्या के बल से पुत्र गणेश की प्राप्ति हुई थी-
"भूपो दिलीपो sपि तदीयपूर्वजो
गोसेवया प्राप सुतं तदिच्छया।
तदिच्छया प्राप सुतं च पार्वती,
पूर्वं गणेशं परतो गजाननम्।।"
-'श्रीग्वल्लदेवचरितम्',4.20-21
भौगोलिक दृष्टि से देखा जाए तो सुरभि और नन्दिनी नामक दो नदियों के मध्य विराजमान श्रीविभाण्डेश्वर महादेव का स्थान भी कहीं न कहीं रघुवंश में नदीरूपा नंदिनी गौ का ही द्योतक है। सुरभि और नन्दिनी ये दोनों नदियां कामधेनु की ही पुत्रियां मानी जाती हैं। वस्तुतः डा.दीक्षित जी की परिकल्पना रही है कि सूर्यवंशी राजाओं से उद्भूत कत्यूरी वंश में यदि कोई बाला गोरिया जैसा सत्यवादी, न्यायकारी और प्रतापी पुत्र उत्पन्न होता है तो उसकी उत्पत्ति भी सामान्य नहीं अपितु दिव्य शक्तियों के कृपा प्रसाद से ही संभव है। किंतु वह तभी हो सकता है जब उसके माता पिता ने विशेष ईश्वरभक्ति की हो।
अब पुनः बाला गोरिया की जन्मोत्पत्ति की कथा की ओर लौटते हुए बताना चाहेंगे कि जब राजा हालराय को श्रीविभाण्डेश्वर महादेव की पूजा अर्चना करते छब्बीस दिन बीत गए और उनकी तपश्चर्या के फलीभूत होने का अवसर उपस्थित हुआ तो विचित्र प्रकार के शुभ निमित्त होने लगे। सबसे पहले राजा हालराय ने रात्रि स्वप्न में एक सुंदर कमल को देखा। इसके बाद उन्होंने कैलास स्थित मानसरोवर में बैठे एक नीर-क्षीर विवेकी राजहंस को देखा जो उन्हें एकटक होकर देख रहा था। इसके बाद उन्होंने स्वप्न में देखा कि यमुना नदी से निकलता धवल वर्ण का एक हाथी उन्हें अपनी सूंड हिलाकर शुभ कामनाएं दे रहा है। इन स्वप्नगत शुभ निमित्तों से राजा बहुत आश्वस्त हो गए कि भगवान् विभाण्डेश उनकी तपस्या और पूजा-अर्चना से प्रसन्न हैं और बहुत जल्दी ही उनकी मनोकामना पूर्ण होने वाली है। इस संदर्भ में महाकवि कालिदास की एक प्रसिद्ध सूक्ति है कि भक्तों की सेवा शुश्रुषा से जब महापुरुष प्रसन्न हो जाते हैं तो समझ लेना चाहिए कि उनकी मनोकामनाएं अब पूर्ण होने वाली हैं-
"भक्त्योपपन्नेषु हि तद्विधानां
प्रसादचिह्नानि पुरः फलानि।"
-रघुवंश,2.22
🤢अगले लेख में पढ़िए 🤢
श्रीविभाण्डेश्वर महादेव ने तपस्या से प्रसन्न होकर राजा हालराय को सन्तान प्राप्ति हेतु क्या उपाय बताया? और कैसे संभव हुआ राजा का कालिंका से विवाह?
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