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होली गायन - कुमाऊँ की एक सांस्कृतिक विरासत

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होली एक सांस्कृतिक विरासत

लेखक: भगवत प्रसाद पाण्डेय
उत्तराखण्ड की होली की बात ही कुछ और है।
उसमें भी कुमाउनी होली का अंदाज अलग है,
फिर काली कुमाऊं की कुम्मयाँ खड़ी और बैठकी होली के क्या कहने।
मार्च 2021 के विप्रवाणी भोपाल से प्रकाशित मेरा एक आलेख:-

यह सब जानते हैं कि पूर्वजों की जमीन-जायजाद अगली पीढ़ी को विरासतन प्राप्त होती ही है और उनके उत्तराधिकारी उसे यथा सम्भव सहेजने का प्रयास करते हैं, ठीक उसी तरह संस्कृति भी पुरखों से उनके  वारिसान को मिलती है। इसे सम्हालने  का नैतिक दायित्व भी वारिसों का होता है। यही दायित्व निभाते हुए पर्व-त्यौहारों की भारतीय संस्कृति भी परम्परागत रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ रही है।

विरासत में मिले कुछ ऐसे पर्व होते हैं, जिन्हें  सब लोगों द्वारा मिल-बैठ कर मनाए जाने का अटूट सिलसिला भारतीय समाज में कायम हैं। सामुहिक रूप से मनाये जाने वाले पर्वों में होली का स्थान सर्वोपरि समझा जाता है। होली ऐसे समय मनाई जाती है, जब फाल्गुन के महीने में ठंड विदा लेती है तथा गर्मी अपना एहसास कराने लगती है। मैदान और पहाड़ दोनों जगह खेतों में वसंती फूलों की बहार नजर आती है। पेड़-पौधों में  फूल और कलियां खिल उठती हैं। ऐसे में पशु-पक्षी तो आनन्दित होने लगते हैं, मनुष्य भी प्राकृतिक रंगों के साथ अपने तन-मन को भिगोने के लिए होलियों में तैयार रहता है।

वर्षों से चले आ रहे  पर्व-उत्सवों को परम्परागत तरीके से मनाए जाने के पीछे कुछ न कुछ आधार जरूर होते हैं। इनमें होली की परम्परा के कई कारण बताये और सुने जाते हैं। वैदिक काल से ही होली को वैदिक यज्ञ की संज्ञा दी गई। नई फसल के अनाज का जो अनुष्ठान नवानन्नेष्टि (नवान्न यज्ञ) होता है, उसके अन्न प्रसाद को 'होला' कहते हैं। यहीं से होली की शुरूआत बताई जाती है। कालान्तर में इस पर्व के साथ भक्त प्रहलाद और हिरण्यकश्यप की बहिन होलिका की कथा का प्रसंग जोड़ दिया गया।  भगवान महादेव के द्वारा क्रोधाग्नि से कामदेव को भस्म किए जाने का कथानक भी कुछ लोग होली से जोड़ते हैं।  इन बातों से स्पष्ट है कि कोई भी अच्छा आयोजन धीरे-धीरे ही विस्तार लेता है।

भारतीय संस्कृति की अनुगमन करने वाली उत्तराखण्ड की सभ्यता में होली जैसे सामाजिक पर्व को विस्मृत नहीं किया  जा सकता है। इतना अवश्य है कि देश काल परिस्थितियों के अनुसार उन्हें मनाये जाने का तौर-तरीका बदल सकता है।

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कूर्मांचल में फाल्गुन शुक्ल पक्ष की एकादशी से दंपती टीका (द्वितीया) तक होली पूरे सप्ताह चलती है। उसमें भी यदि  कालीकुमाऊं (जनपद चम्पावत) की होली की बात की जाय तो संपूर्ण कुमाऊं में यहाँ की होली प्रसिद्ध है। इसे ऐतिहासिक होली भी कहा जाता सकता है क्योंकि कुमाऊँ में चंद वंश का शासन चंपावत से ही शुरू हुआ। कुछ चंद शासक जो संस्कृति को बढ़ावा देने की सोच रखते थे, उनके द्वारा यहाँ की होली को और समृद्ध करते हुए उसे प्रोत्साहित किया गया। चंद राजाओं के साथ मथुरा, काशी आदि जगहों से आये हुए विद्वान लोग यहीं बस गए।  इसलिये मथुरा की होली तथा ब्रज की बोली का प्रभाव कुमय्यां होली  के गायन में व्यापक  रूप से सुनाई और दिखाई देता है। चंपावत के आसपास के चाराल क्षेत्र के गांवों की खड़ी होली चंपावत की राजधानी वाले किले (वर्तमान तहसील कार्यालय) में चौबे होली के रूप में आयोजित होती रही।

काली कुमाऊँ में खड़ी होली तथा बैठ होली के दोनों रूप प्रचलित हैं।  विभिन्न क्षेत्र के लोगों द्वारा संकलित होली गीतों की संख्या सैंकड़ों में हैं। इन होलियों में देवी-देवताओं की स्तुति, धर्म-ग्रंथों के कथानक, राधा-कृष्ण की प्रेम लीलाएं, राम-रावण, कौरव-पांडव युद्ध और अन्य पौराणिक बातों का सार होता है। खड़ी होली प्रायः दिन में ढोल, झांझ-मजीरे के साथ होल्यारों द्वारा गोलाकार पंक्ति बनाकर गाई जाती है। प्रायः एक होली गायन में एक-डेड़ घंटे का समय लगता है। इसमें होली के बोल और ढोल की आवाज के साथ होल्यारों के चेहरे हाथों का हाव-भाव, कदमों की लय-ताल  आदि जब सभी बातों का समन्वय होता है तो होली गायन, नृत्य काफी मोहक होता है। बैठकी  होली के दौरान रात्रि में हारमोनियम, तबला, ढोलक आदि वाद्य यंत्रों  के साथ शास्त्रीय धुनों पर आधारित राग-रागनियां गाई जाती हैं। कुमाऊं में वैसे भी बैठकी  होली पौष माह के पहले रविवार से ही शुरू हो जाती है फिर वसंत पंचमी, शिवरात्रि से लेकर होली के समापन तक मिल-बैठ कर राग-फाग की महफ़िल चलती ही रहती हैं।

पञ्चाङ्ग देख कर एकादशी के दिन जब भद्रा न हो तब होली का रंग छिड़क कर पर्व का शुभारंभ होता है। इसी दिन अधिकतर गाँवों में चीर बंधन के साथ  को प्रत्येक गाँव, कस्बे में इष्टदेव के मंदिर या अन्य मुख्य मठ-मंदिरों के प्रांगण में होली के फगुवा देव स्तुति की खड़ी होलियां गाई जाती है।
"तुम सिद्धि करो महाराज होली के दिन में, तुम विघ्न हरो गणराज होली के दिन में",
"खेलत गोपी ग्वालबाल रे मथुरा से होली आई,को गावे को नचावे कौन बजावे ढोल श्याम रे"
तथा
"हरिया पीपल पात, लाल ध्वजा फहरानी, कां देवी काँ तेरो थान, कां आली देवी भवानी"
जैसी होलियों से गायन का श्रीगणेश होता हैं। द्वादशी और त्रियोदशी के दिन होल्यारों द्वारा भगवान की लीलाओं के प्रसंग वाली वेदांती होलियां गायी जाती हैं। जिनमें-
"कुंडलपुर के राजा भीष्मक नाम कहाय, ता घर जन्मी कन्या रुक्मणि नाम कहाय",
"दधि मथे यशोदा माई कदम तल झूलो कन्हैय्या पालाने'',
>"चंपा के नौ-दस फूल मालिनी हार गूंथो है"
तथा
"करी तपस्या घोर कुँवर भागीरथ गंगा ले आये" कर्णप्रिय हैं।

चतुर्दशी और पूर्णिमा को जब होली अपने पूर्ण यौवन पर आ जाती है, तब श्रृंगार रस से भरपूर रसीली होली गीत सुनाई देते हैं जिनमें
"कहाँ के तुम ग्वालिन माधो बंजारिन कहाँ दधि बेचन जाय रे मोहन लाल","वृन्द्रावन मोहन दधि लूटो",
"क्यों ठाडी दिलगीर राधिका,"

"कहो तो यहीं रम जाएं, गोरी नैना तुम्हारे रस भरे"
और
"ओ झुकि ओ मोरे यार जालिम नैना तोरे, बारह पाट को लहंगा पहने यौवन देत बहाय" खास हैं।


होलिकादहन के बाद प्रतिपदा को छरड़ी के दिन होली का रंग जब अपने चरम पर पहुँच जाता है तब प्रातः से ही रंगों से भीगते-भिगाते मस्त होल्यारों की टोलियां घर-घर जाकर होली गाते हुए रंगों से खेलते है और हर घर-आंगन में होली की आशीष देते हुए यह गाते हैं-
"सब फगुआ मिली देवे आशीष, तुम हम जीरों लाख बरीष,"
कई जगह यह होली टीके के दिन गाई जाती है। छरडी को अपरान्ह बाद जब रंगों से सराबोर लोग अपने शरीर से रंग छूट जाते है और होली के वस्त्र धो लिए जाते है फिर भी मन में वही उत्साह रहता है। इसके बाद
"भला मोहन नंदलाल बरसाने वन आये,
"आफु वनजैरो वन जी गयो वन जै रोछ, आँगन नीम लगाय पिया वैन जै रोछ",
जैसी होली गाई जाती हैं। होली की विदाई का दिन दंपति टीके यानी द्वितीया होता है। एक बार फिर देवी-देवताओं की स्तुति वाली होलियां गाते हुए सबसे अंत में
"कुंवर भरत के साथ हरि मथुरा को गए", होली को विदा लेती है। इसी दिन पूजा-पाठ के बाद हलुवे (अन्न प्रसाद 'होला' का प्रतीक) का प्रसाद बाँटा जाता है।

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उक्त सभी प्रचलित होलियों के अतिरिक्त महिलाओं द्वारा कुछ अन्य होलियां जो उनको ज्यादा भाती हैं, उन्हें वह गाती हैं। होलियों में खास तौर पर सफ़ेद धोत पहने हुए कुमाउँनी महिलाएं खड़ी और बैठकी होली में बेफुर्सत दिखती हैं। महिलाओं द्वारा गाई जाने वाली होलियों में-
"मत मारो मोहन मोहे पिचकारी"
"बलमा घर आये फागुन में,"
"तू करि ले अपनो ब्याह देवर अब हमरो भरोसो जन करिये"
और
"गई-गई असुर तेरी नार मंदोदरी सिया मिलन गई बागा में" के साथ ही
"लूटो शहर बाजार पिया तुम क्यों न मिले रघुनंदन से" लोकप्रिय हैं।
खड़ी होली के दौरान कभी-कभी झोड़े भी गाये जाते हैं। झोड़ा का मतलब झटके के साथ नृत्य-गान है। लोकप्रिय झोड़ों में
"चूड़ी छम चूड़ी छम बजला नेवर, सबौ है लडीला कांसा देवर," है।
इसमें "झनकारो-झनकारो गोरी प्यारो लागो तेरो झनकारो" प्रसिद्ध झोड़ा है, जिसके कुछ बोल हिंदी फिल्म 'क्रांतिवीर' के एक गीत में भी सम्मिलित लिए हैं।
बैठकी होली में राग-रागनियां शास्त्रीय संगीत की तर्ज में गाए जाते हैं कुछ प्रसिद्ध बैठकी होली के रागों में
"ऊँचे भवन पर्वत बस रही", "प्यारी चमकत हो सावन की चपला सी",
"बहुत दिनन के रूठे पिया को मनाऊंगी"
तथा
"नथुली में उलझेंगे बाल सिपहिया काहे जुल्फ बढ़ाई" प्रसिद्ध है।

यहाँ एक बात उल्लेखनीय है, वह यह कि बुनियादी सुविधाओं के अभाव और रोजगार की कमी से उत्तराखण्ड के गाँवों  में आज पलायन एक गम्भीर समस्या के रूप में उभर चुकी है। कई गांव वीरान हो गए है। ऐसे में प्रवासी उत्तराखण्डी अन्य किसी त्यौहार पर अपने घर-गाँव आये या न आये लेकिन होली में यहाँ के लोग 'बलमा घर आयो फागुन में' गुनगुनाते हुए घर आते ही हैं। कुमाऊं की संस्कृति प्रेमी जनता वर्षों से चली आ रही होली की प्राचीन परंपरा को  गाँवों में बचाये हुए हैं।  यह बात पहाड़ की संस्कृति के हित में अच्छी  होने के साथ-साथ यही संदेश देती है कि प्रत्येक संस्कृति गाँव में ही सुरक्षित है।

©भगवत प्रसाद पाण्डेय, नि. -पाटन पाटनी (लोहाघाट)
जनपद-चम्पावत (उत्तराखण्ड) पिन-262524
Kumauni-writer-Bhagwat-Prasad-Pandey
भगवत प्रसाद पाण्डेय जी के फेसबुक वॉल से साभार

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