
"कलयुग वर्णन"
(कुमाऊँनी के आदि कवि कृष्ण पांडे जी के छंदो का संकलन)
रचनाकार: कृष्ण पांडे (किष्णा पाँडे)
संकलन/लिपिकरण: पं. गंगा दत्त उप्रेती
हिंदी खड़ी बोली तथा कुमाऊँनी कविता के जनक महाकवि गुमानी पंत के बाद कृष्ण पांडे जी कुमाऊँनी के दूसरे आदि कवि माने जाते हैं। कुमाऊँनी भाषा के इतिहास के सम्बन्ध में डा. अनिल कार्की के लेख "कुमाउँनी कविता की परंपरा एवं कुमाउँनी कविता के सामाजिक सरोकार" में विस्तृत विवरण दिया गया है। वर्ष १८०० में जन्मे ‘कृष्ण पांडे’ जी पाटिया, जनपद अल्मोड़ा के निवासी थे।
कृष्ण पाँडे जी शायद एक स्थानीय लोक कवि थे जो एक कवि के रूप में उस समय की सामाजिक और राजनैतिक स्थिति पर स्थानीय कुमाऊँनी भाषा में रचनाएँ करते थे और अपनी रचनाओं को स्थानीय लोगो में गा-गा कर सुनाया करते थे। कृष्ण पाँडे जी गुमानी पंत की तरह कोई राजकवि नहीं थे, इस कारण उनकी रचनाएँ किसी काव्य संकलन के रूप में उपलब्ध नहीं हैं।
कृष्ण पाँडे जी की रचनाओं में तत्कालीन राजनैतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों का विवरण मुख्य रूप से मिलता है। क्योंकि उनके किशोरावस्था में कुमाऊँ में अंग्रेजों का राज्य स्थापित हो चुका था तो राजनैतिक रूप से उनके छंदो में अंग्रेजों द्वारा किये जा रहे दमन, समाज में फैली कुरीतियों जैसे धनी व्यक्तियों द्वारा गरीब महिलाओं को खरीदा जाना, पारिवारिक कलह जैसे भाई द्वारा भाई का दमन और गरीब लोगो की दुर्दशा का विवरण मिलता है। जहां एक ओर महिलाओं के शोषण का वर्णन है वही शातिर महिलाओ द्वारा परिवार में अपना प्रभुत्व जमाने का विवरण भी कृष्ण पाँडे जी के छंदों में मिलता है।
कृष्ण पाँडे जी की रचनाओं का कोई उनके द्वारा लिखित रूप में वर्णन नहीं मिला है, लेकिन वह जो रचनाएँ लिखते थे उनमें उस समय की परिस्थितियों को कलयुग के आरम्भ के रूप में वर्णित किया गया है। जिस आधार पर ही भारतीय भाषाओँ पर ब्रिटिश शोधकर्ता George A. Grierson के द्वारा कृष्ण पांडे जी के जन्म के लगभग सौ वर्ष बाद तथा उनकी मृत्यु के लगभग ५०-६० वर्ष बाद तत्कालीन कुमाऊँनी लेखक पंडित गंगा दत्त उप्रेती जी के सहयोग से संकलित कर तत्कालीन ब्रिटिश प्रकाशनों में "कलयुग" नाम से प्रकाशित किया था जो में वर्तमान यदा-कदा उपलब्ध हैं।
George A. Grierson एक ब्रिटिश थे तो उनके संकलन में कृष्ण पाँडे जी के ऐसे छंदो का विवरण स्वाभाविक रूप से मिलना मुश्किल है जिसमें उस समय की राजनैतिक व्यवस्था के विरोध में कुछ लिखा गया होगा। यहाँ तक की इस बात को George A. Grierson ने भी अपने लेख में खुद माना है। हमें George A. Grierson के १९०१ में प्रकाशित लेख में कृष्ण पांडे जी के १३ छंद तथा १९१० के लेख में २७ छंद प्राप्त होते हैं। परन्तु कुछ छंद दोनों लेखों में समान होने पर कुल ३४ छंद मिलते हैं तथा सभी छंद दोहे के समान २ पंक्तियों के हैं।
यहां पढ़िए कृष्ण पांडे जी छंदो का संकलन "कलयुग वर्णन" के नाम से जो एक ब्रिटिश शोधकर्ता George A. Grierson के द्वारा १९०१ में प्रकाशित लेख "Kalyug-An old Kumauni Satire" तथा १९१० में प्रकाशित लेख "Kaliyug-A specimen of the Kumauni Language" से लिए गए हैं। George A. Grierson के अनुसार उनके साथ कुमाऊँनी लेखक पंडित गंगा दत्त उप्रेती जी द्वारा इनको संकलित और लिपिबद्ध किया गया था।
कलकत्ता बटि फ़िरंगि आयो।
जाळ जमाळ का बोजा बाँदि लायो।।०१।।
लाट गवर्नल बाड़ बाड़ा भूप।
मुल्क लुटण मुणि अनेक रूप।।०२।।
फ़िरंगि राजा कलि अवतार।
आपन पाप लै औरन मार।।०३।।
फ़िरंगि राजै की अकल देख।
कूड़ि बाड़ि बेचि बेर इस्तब लेख।।०४।।
पितला को टुकड़ा को चुपड़ास कियो।
मुल्क को सुनो रुपो लुटि लियो।।०५।।
जाळ धौलड़िया है गे देवान।
मुल्क उजड़ि गयो कै न्हाति फाम।।०६।।
कलि जुग माँज जोइ छ पधान।
खसम का खोरा में हाण छ ठाँग।।०७।।
मुलुकिया यारो कलयुग देखो।
घरकुड़ि बेचि बेर इस्तीफा लेखो।।०८।।
मुल्क कुमाऊँ में बड़ो भारि चैन।
नौ नालि ब्वे बेर छै नालि भैन।।०९।।
द्वी माणा धान में धनुलि ऐंछ।
एक माणा मड़ुवा में मनुलि ऐंछ।।१०।।
बामण मारों को यौ बड़ो ज्ञान।
मड़ुवा मानिर दिन घर घर चान।।११।।
तल घर खिमदा को बहड़ बिनार।
मलि घर गोपिदा की ज्वे लागि धार।।१२।।
मुल्क कुमाऊँ में बड़ो भारि पाप।
घर कुड़ि बेचि बेर इष्टाम छाप।।१३।।
किष्णा पाँडे ज्यू को लेखणा को काम।
हर नाम लीणा की नै रुनि फाम।।१४।।
बद्री-केदार बड़ा भया धाम।
धर्म कर्म कि कै न्हाति फाम।।१५।।
बद्री-केदार द्वी छन धाम।
कल जग ऐ गो कै न्हाति फाम।।१६।।
पातर भौजि को बड़ो भारि ज्ञान।
घर कुड़ि ठगि बेर मुख नि बुलान।।१७।।
मुल्क कुमाऊँ में कफुवा बासो।
ज्वे कन है गयो खसम को साँसो।।१८।।
दिन परि दिन कलयुग आलो।
च्यालाका हाथ ले बाप मार खालो।।१९।।
भाई-बिरादर घर-घर मार।
मुलुक कुमाऊँ में पड़ि गयो छार।।२०।।
बिलैती कपड़ौंक बणायो कोट।
रीण करी बेर घर कुड़ि चोट।।२२।।
सौक्याण जै बेर आयो छ लूण।
घागरि दी बेर ज्वे न्हाति गूण।।२३।।
मुलकिया लोगो कलि जुग सूण।
घागरि दी बेर ज्वे न्हाति गूण।।२४।।
हौसिया यारौ कलि जुग सूण।
लता सेर दी बेर ज्वे न्हाति गूण।।२५।।
एक गाँव का नौ छिया पधान।
गाँव बजी गयो कै के न्हाति फाम।।२६।।
एक एक गौं का नौ नौ पधान।
ग्वाड़ बणौण कि कै न्हाति फाम।।२७।।
गंगा में है-गोछ तुमड़िया तार।
भाइ बिरादर घर घर मार।।२८।।
मुल्क कुमाऊँ में घुगुतिया त्यार।
खशम है ज्वे है-गेछ न्यार।।२९।।
धर्म कर्म में पड़ि गोछ छार।
कौंणि झुंगरो बिन ज्वे लागि धार।।३०।।
किष्णा पाँडे ले कलि जुग खोलो।
मुल्क कुमाऊँ को ढुङ्गो ढुङ्गो होलो।।३१।।
मुलकिया यारौ हर नाम लीयौ।
ज्वे चेला बेचि बेर इष्टाम दियौ।।३२।।
चार दिन मेरि भौजि भज राम राम।
हरनाम आलो परनाम काम।।३३।।
मुलकिया लोगो हर नाम लीयौ।
किष्णा पाँडे ले कलि जुग कीयौ।।३४।।
पंडित गंगा दत्त उप्रेती जी ने George A. Grierson के लेख के उद्धरण में बताया है कि उनके द्वारा कृष्ण पाँडे जी के वारिसों तथा रिश्तेदारों से संपर्क करने पर उनसे कोई लिखित रचनाऐं प्राप्त ना हो सकी। कृष्ण पाँडे जी का जीवन काल लगभग १८०० से १८५५ के आसपास तक माना जाता है, ऐसे में उनकी मृत्यु के लगभग ५०-६० वर्ष बाद यह संभव भी नहीं था। इस पर उनके द्वारा क्षेत्र के स्थानीय युवकों/गायकों द्वारा श्रुति के आधार पर मौखिक रूप से गाये जाने वाले कृष्ण पाँडे जी के छंदो को सुनकर लिपिबद्ध कर लिखा गया था।
सन्दर्भ:
- George A. Grierson, "Kalyug-An old Kumauni Satire", Art. XVIII, 1901, Page 475-477
- George A. Grierson, CIE, Ph.D, "Kaliyug-A specimen of the Kumauni Language", The Indian Antiquary, March 1910, Page 78-82
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