
कुमाऊँनी भाषा में "सुन्दरकाण्ड" भाग-०४ (Sunderkand-04)
कुमाऊँनी श्रीरामचरितमानस का पंचम सोपान "सुन्दरकाण्ड"
रचनाकार: मोहन चन्द्र जोशी
🌹🌹🌹🌹🌹🌹
आज रामलीला मंच के तालीम कक्ष में
कुमाउनी सुन्दरकाण्ड के पाठ में
प्रतिभागी सभी सज्जनों, एवं आदर्श रामलीला कमेटी गरूड़
को साभार हार्दिक धन्यवाद।
श्री मोहन चन्द्र जोशी जी द्वारा सुन्दरकाण्ड का पाठ
श्री गणेशाय नमः
जानकीबल्लभो विजयते
कुमाउनी श्रीरामचरितमानस
पँचुँ सोपान
सुन्दरकाण्ड
दोहा-
एक एक पल करूणानिधि जाँनी कल्प जस बीति।
जल्दी हिटो प्रभु ल्हिजाओ भुज बल खल दल जीति।।31।।
सुणि सीता दुख प्रभु सुख अयना। भरि आपु पाणि कमल नयना।।
वचन कया मन मेरि गति जैकि। स्वैणां है सकैं के विपति विकि।।
हनुमंत य कौंनीं प्रभु विपति वाँ। जाँ तुमरा स्मरण भजन नि हनां।।
कदुक बात प्रभु यातुधान कि। शतुर कैं जिति ल्याला जानकी।।
सुण कपि तुम समान हितकारी। न्हैं क्वे सुर नर मुनि तनधारी।।
मि प्रत्युपकार तो करूँ के त्यर। य सामणी है नि सकन मन म्यर।।
सुण सुत तुहैंबै उऋण मि न्हैंति। देखिबेर विचार मनैं मजीं।।
फिर फिर कपि द्यखनीं सुरत्राता। आँखाँ में पाणि पुलकित गाता।।
दोहा-
सुणीं प्रभु वचन देखछ मुख अंग हरषी हनुमंत।
चरण पड़ा प्रेमाकुल है त्राहि त्राहि भगवंत।।32।।
बार बार प्रभु उठांण चाँनीं। प्रेमैं मगन उँ उठै नि पाँणीं।।
प्रभुकरकमल में कपि क् सीसा। सुमिरि उ दाष् मगन गिरीश।।
सावधान मन करी फिर शंकर। लागा कौंण कथा भौत सुन्दर।।
कपि उठै प्रभु ल् हृदय लगाया। हाथ पकडि़ नजीक भैटाया।।
कओ कपि रावण पालित लंका। के विधिल् जलाछ दुर्ग अति बंका।।
प्रभु प्रसन्न जाणिबेर हनुमान। बुलाईं बचन छोडि़ अभिमान।।
बानर क् य ठुल पुरूशारथ छ। य फाँङ बटि उ फाँङ ल्है जाछ।
लाँघि सिंधु सुनक नगर भड़्याया। निसिचरगण मारि बँण उजाड़।।
उ सब तुमर प्रताप रघुराई। नाथ न के मेरी प्रभुताई।।
दोहा-
वैहैं प्रभु के अगम न्हैं जपैरि तुम अनुकूल।
तुमर प्रभाव बड़वानल जलै सकैं खल तूल।।33।।
नाथ भक्ति भौतै सुखदायिनी। दि दियो कृपा करि अनपायनी।।
सुनि प्रभु भौत सरल कपि वाणी। एवमस्तु तबै कौछी भवानी।।
उमा राम स्वभाव जैल जाँण। उकैं भजन छोड़ी माव नि औंन।।
संवाद य जैक हिय में आई। रघुपति चरण भक्ति वील पाई।।
सुणि प्रभु वचन कौंणीं कपिवृंदा। जयजयजय कृपालू सुखकंदा।।
तब रघुपति कपिपति कैं बुलौंनिं। हिटो तैयारी करो कौंनीं।।
आब् बिलम्ब के कारण करियो। तुरन्त बंदरों कैं आज्ञा दियो।।
लीला देखि फूल भौत बरसिं। अगासबै लोक गीं सुर हरशि।।
दोहा-
जल्दि सुग्रीव बुलै ल्हिया आय सेनापति जूथ।
अनेक रिङिल अतुलबल बानर भालू बरूथ।।34।।
प्रभु पद कमल न्यौड़ौंनिं शीशा। गर्जणीं भालु महाबल कीसा।।
देखि राम सारी कपि सेना। देखनि कृपा करि कमल नैंना।।
रामकृपाबल पै ठुल बानर। भया पुँछ वाव मानो भूधर।।
हरशी राम तब कर प्रस्थाना। सगुन भइना सुन्दर शुभ नाना।।
जनरि सब पुरी मंगलमय कीर्ति। वीकी प्रस्थान सगुन य नीती।।
प्रभुक् प्रस्थान जाँण वैदेही। फड़क बौं अंग जाँणि कै दिनीं।।
जो जो सगुन सीता कैं हँछीं। सगुन वी उ रावण कैं हनीं ।
सेना चली के वर्णन पारा। गर्जनीं बानर भालु अपारा।।
नँङैं शस्त्र उ डाँन् बोट धारी। हिटा अगास में इच्छाधारी।।
षेरकि गर्जन भालु कपि करनीं। डगमगानैं दिग्गज चिंघाड़नीं।।
छंद-
चिंघाड़नीं दिग्गज धर्ती डोलि डाँनकाँन् समुद्र में खलबली।
मन हरष सब गंधर्व सुर मुनि नाग किन्नर दुख टलीं।।
कटकटाँनै बानर विकट भट उँ कोटि कोटि दौड़णीं।
जय राम प्रबल प्रताप कोसल नाथ गुण गण गाँणीं।।
सै सकों नैं भार उदार अहिपति बारबार मोहयणीं।
पकडि़ दाँतों लै कछुवै कठोर पुठ जस छाजणीं।।
रघुवर सुन्दर प्रस्थान परिस्थिति जाँणि परम सुहावनी।
जाँणि कछुवैपुठ सर्पराज उँ ल्यखनीं अविचल पावनीं।।
दोहा-
य विधि जैबे कृपानिधि उतरनीं सागर तीर।
जाँ ताँ लागी फल खाँणीं भौतै भालु कपि वीर।।35।।
वाँ निसाचर रौंनी उँ ससंका। जब बै जलै गेईं कपि लंका।।
आपु आपु घर करनिं विचारा। न्हें अब निशिचर कुल क् उबारा।।
जै क् दूतबल कई नि जाईं। वी औंण पर के हलि भलाई।।
दूतियों है सुणि पुरजन वाणिं। मन्दोदरी भौतै अकुलाणीं।।
रै जोड़ी हाथ पति खुट लागी। बुलाइ वचन नीति रस पागी।।
कंत विरोध हरि हैं छोडि़ दियो। म्यौर कई अति हित हिया धरो।।
समझनैं जैक दूतों कि करनिं। गर्भ गिरै दिनिं राक्षसों स्यैंणीं।।
वीकि नारि आपु सचिव बुलाइ। भेजो कंत जो चाँछा भलाइ।।
तुमर कुल कमल बँण दुखदाई। सिय ह्यौंनैकि रात जसि आई।।
सुणो नाथ सीता बिन देई। भल न तु मर शंभु ब्रह्मा लै करी।।
दोहा-
राम बाँण स्यापा थुपुड़ राक्षस समूह भेंक।
जब तक नि नेवँ तबतक जतन करो छोडि़ टेक।।36।।
कानों ल् सुणिं सठ वीकि वाणी। हँसणौं जगत विदित अभिमानी।।
डरपोक स्वभाव नारि क् साँचि। मंगलमें भयवश मन अति काचि।।
जो आला बानर कटकाई। जिआल बिचार निसिचर खाई।।
काँमनिं लोकपाल ज्यै त्रासा। वीकि नारि डरैंछ बडि़ हासा।।
यस कै हॅंसि उकैं हिय लगाई। गोय सभा ममता अधिकाई।।
मंदोदरी हृदय मेंजि चिंता। भया कंत ञ परविधि विपरीता।।
उ भैट सभा खबर यसि पाई। सिंधु पार सेना सबै आई।।
पुछ सचिवोंहैं उचित मत कओ।उ सब हँसि कौनी चुप करि रओ।।
जब जिता सुरासुर तब म नि छि।तब ञ नर बानरों कि के गिनति।।
दोहा-
सचिव वैद्य गुरू तीन प्रिय कौंनीं भय आश।
राज धर्म शरीर तीनैं जल्दी है जाँछ नाश।।37।।
वी रावण हैं बणि उ सहाई। स्तुति करनि सुणाई सुणाई।।
अवसर जाणीं विभीषण आया। भै का चरण ख्वौर न्यौड़ाया।।
फिर फिर झुकि भैट आपु आसन। बुलाया वचन पै अनुशासन।।
जो कृपालु पुछनिं मिहैं बाता। मति अनुसार कौंनूँ मि ताता।।
जो आपण चाँणँछा कल्याणा। सुयश सुमति शुभ गति सुख नाना।।
उ परनारि ललाट गोसाई। छोड़ो चौथकि जूनकि वाई।।
चौदह भुवनो क् एक पति हओ। जीवों है बैर करी नि रओ।।
गुणों सागर नागर नर हओ। मणी लोभलै भल क्वे नि कओ।।
दोहा-
काम क्रोध मद लोभ सब ञ नाथ नरक का पंथ।
सब छोडि़ रघुवीर भजो भजनिं जनूँकैंणि संत।।38।।
तात राम न्हैं नर भूपाला। भुवनेष्वर काल क् लै काला।।
ब्रह्म अनामय अज वी भगवंता। ब्यापक अजित उ अनादि अनंता।।
गो द्विज धेनु देव हितकारी। कृपासिंधु मनखियक् तन धारी।।
जन रंजक वी भंजक खल ब्राता। वेद धर्म रक्षणीं सुणो भ्राता।।
बैर त्यागि उनुँ झुकाओ माथ। प्रनतारति भंजन वीं रघुनाथ।।
दियो नाथ प्रभुकणि वैदेही। भजो राम बिन हेतु सनेही।।
शरण जाई प्रभुलै नि त्यागा। विष्व द्रोह का पाप जकैं लागा।।
जैक नाम छु त्रिताप नसावन। वी प्रभु प्रकट समझ हिय रावण।।
दोहा-
बार बार खुटा पडि़ विनती करनूँ दससीस।
छोडि़ मान मोह मद भजो धैं कोसलाधीश।।39क।।
मुनि पुलस्त्य लै आपु शिष्य हैं कई पठ्यै य बात।
तुरन्त वी मि प्रभु हैं कई पाइ सुअवसर तात।।39ख।।
उ माल्यवंत अति सचिव सयाणां।वीक वचन सुणि अतिसुख माना।।
तात अनुज तुमर नीति विभुषण। हिय धरो जो कौनीं विभीषण।।
शत्रु उत्कर्ष कौंनीं सठ वी द्वियै। दूर करो इनुँकैं क्वे याँ बै।।
माल्यवंत घरहैं ऐगोय फिर। कौंनिं विभीषण हाथ जोडि फिर।।
सुमति कुमति सबुकै हिय रौंनी। नाथ पुराँण वेद यस कौंनीं।।
जाँ सुमति हैं वाँ संपति नाना। जाँ कुमति छु वाँ विपति निदाना।।
तुमार हि कुमति बसी विपरीत। हित अनहित मानछा शत्रु प्रीत।।
कालरात्रि निशिचर कुल केरी। वी सीता पर प्रीति घनेरी।।
दोहा-
तात खुट पकडि़ माँगनूँ धरि दियो म्यर दुलार।
सीता दियो राम कैं अहित नि हल फिर तुमार।।40।।
बुध पुराँण वेद संमत वाणीं। कई विभीषण नीति बखानी।।
सुणनैं दशानन उठ रिसाई। दुष्ट तेरि निकट मृत्यु अब आई।।
ज्यौंनैं सदा सठ म्यार जिआय। शत्रुपक्ष मूरख तुकैंजी भाय।।
क नैं दुष्टा यस को य जग मँजी। भुजबल जैक मींल् जिति न्हैंती।।
म्यर नगर रै तपसियों प्रीती। सठ मिली जा उनुँहैं क नीती।।
यस कैबेर खुट का प्रहारा। नान् भै पड़ुँ खुट बार बारा।।
उमा संत की यै छू बड़ाई। नक करण पै लै करो भलाइ।।
तुम बाबु जसै भलै भ मि मार। राम भजँण हित हल नाथ तुमर।।
सचिव दगाड़ ल्हि नभ बाट् गोय। सबुँकैं सुणाँई कौंण यस भय।।
मोहन जोशी, गरुड़, बागेश्वर। 26-10-2020

................................................................
0 टिप्पणियाँ