'

चंदकालीन कुमाऊँ - काली कुमाऊँ परगना

कुमाऊँ का इतिहास-चंदकालीन समय में काली-कुमाऊँ परगना-History of Kumaun-Kali Kumaun, Kumaun ka Itihas

कुमाऊँ के चंदकालीन परगने-काली कुमाऊँ

(कुमाऊँ के परगने-चंद राजाओं के शासन काल में)
"कुमाऊँ का इतिहास" लेखक-बद्रीदत्त पाण्डे के अनुसार

इस परगने की हदबंदी इस तरह है - पूर्व में काली नदी।  उत्तर में सोर, गंगोली, व सरयू नदी। पश्चिम की तरफ ध्यानीरौ। दक्षिण में लधिया नदी।
पटियाँ-रेगह, गुमदेश, सुई, विसंग, चार पाल, तल्लादेश, पाल बिलौन, सिपटी, गंगोल, अस्सी, फड़का, वालसी।
पुरानी दन्त-कथा सतयुग में इस परगने में देवताओं का वास था।  पीछे दानव व दैत्य (राक्षस) रहने लगे।  रामायण से ज्ञात है कि त्रेतायुग में जब श्रीरामचंद्रजी ने लंका में रावण व कुम्भकर्ण को मारा, तो कुम्भकर्ण का सिर कूर्माचल में फेंका इसलिये कि वहाँ राक्षसों की जगह है।  विचार यह था कि सिर को वहाँ फेंकने से पानी बहुत होगा, जिसमें दानव वगैरह डूब मरेंगे।  कहते हैं कि ऐसा ही हुआ।

कुमाऊँ का इतिहास-चंदकालीन समय में काली-कुमाऊँ परगना-History of Kumaun-Kali Kumaun, Kumaun ka Itihas
लोहाघाट का एक दृश्य

तत्पश्चात् द्वापर के अन्त व कलिकाल के प्रारंभ में जब कृष्णावतार हुआ, तो पांडवों ने तमाम जगत् में दिग्विजय का डंका बजाया। उस समय, कहते हैं, उनकी लड़ाई यहाँ क्षत्रियों से हुई थी। यह बात लगभग ५००० वर्ष की है।  यह भी कहते हैं कि हिडिम्बा राक्षसी से उत्पन्न भीमसेन का पुत्र घटोत्कच्छ, जो महाभारत में कर्ण के हाथ मारा गया था, यहीं का रहनेवाला था।  अतः उसकी मृत्यु के बाद भीमसेन ने उसकी यादगार में एक मंदिर चंपावत के पास बनाया। वहाँ पर उसने कुम्भकर्ण की खोपड़ी फोड़ डाली, जिससे गंडकी उर्फ गिड़या नदी बह निकली।  बाद चंपावत से पूर्व १ मील के फ़ासले पर, फुंगर फहाड़ में, घटोत्कच्छ का मंदिर बनाया, जिसको इस समय 'घटकू देवता' कहते हैं।  उसके नीचे १ मील पर हिडिम्बा रानी के वास्ते महल (मंदिर) बनाया।  वह अब तक प्रसिद्ध है। यह भी कहते हैं कि घटोत्कच्छ (घटकू) देवता पर चढ़ाये बकरे का खून पानी मिला हुआ पहाड़ के भीतर-ही-भीतर होकर हिडिम्बा के मकान से प्रकट होता है।  वहाँ लाल-लाल पानी निकलता है।  शायद हरताल या लाल मिट्टी की खान हो।  घटकू उर्फ घटू देवता के नाम से बत्तियाँ जलाने से पानी नहीं बरसता।

इस परगने का पुराना नगर सुई पट्टी में था, जहाँ अब देवदार के वृक्षों का वन है, और उसके भीतर सूर्यदेवता का मंदिर अब तक विद्यमान है।  यह सूर्यवंशी राजाओं का बनाया हो।  इस पहाड़ की तलेटी में बाद को अगरेजों ने लोहाघाट बसाया, जहाँ पहले कम्पनी-राज्य के समय फौज भी रहती थी।  जब मई में नगर बसा था, तो चंपावत में घना जंगल था। बाद में चपावत के पश्चिम तरफ़ नगर बसा, और वहाँ पर रावत कौम के राजा ने दोणकोट नाम का किला भी बनाया।  इस नगर के भग्नावशेष अब भी कोतवाल-चबूतरा व सिंगार-चबूतरा कहलाते हैं । इस दौणकोट के रावत राजा की संताने अभी पट्टीतल्ला देश गाँव सल्ली में और गुमदेश में रहती हैं।  सोमचंद राजा ने दोणकोट उजाड़कर चंपावत बसाया। अँगरेजों ने यहाँ नगर न बसाकर लोहाघाट को आबाद किया।  चंपावती नदी के किनारे होने से चंपावत नाम पड़ा।  इसमें राजा सोमचंद ने राजबुंगा नाम का किला बनाया।  यहाँ आजकल तहसील का दफ़्तर है।  सबसे पुराना किला कोटौलगढ़ है, जिसको कहते हैं कि बाणासुर दैत्य ने अपने लिये बनाया था।  जब वह विष्णु से न मारा गया, तो महाकाली ने प्रकट होकर उसे मारा।

कुमाऊँ का इतिहास-चंदकालीन समय में काली-कुमाऊँ परगना-History of Kumaun-Kali Kumaun, Kumaun ka Itihas
बाणासुर का किला

सुई को श्रोणितपुर भी कहते हैं। लोहा नदी उसी दैत्य के लोहू से निकली।  वहाँ की मिट्टी, कुछ लाल, कुछ काली है।  कहा जाता है कि दैत्य के खून से वह ऐसी हुई। और भी सुईकोट, चुमलकोट, चंडीकोट, छतकोट, बौनकोट किले कहे जाते हैं, जो खंडहर के रूप में हैं।  ये छोटे-छोटे मांडलीक राजाओं द्वारा बनाये गये थे। खिलफती जहाँ अखिलतारिणी देवी हैं और वाराहीदेवी जिसको 'दे' भी कहते हैं, इसी पहाड़ पर हैं।  वाराही देवी देवीधुरे में हैं। हिंगना व चंपावती देवी भी विद्यमान हैं।  देवीधुरा में श्रावणी को मेला होता है।  चंपावत के पूर्व की तरफ बड़ा ऊंचा पर्वत है, जिसमें क्रान्तेश्वर महादेव हैं।  यही कूर्मपाद भी हैं।  इसे कानदेव भी कहते हैं । पहाड़ की सलामी में मल्लादेश्वर महादेव भी देवदार के जंगल के भीतर हैं।  पश्चिम की तरफ़ हिगंलादेवी का तथा सिद्ध का ऊँचा डाँडा है। यहाँ नृसिंह देवता का मंदिर है, जो सिद्ध के नाम से प्रसिद्ध है। चंपावत में बालेश्वर का मंदिर तथा बावड़ी देखने योग्य हैं।  अन्य मंदिर ताड़केश्वर, बनलेख, हरेश्वर, मानेश्वर, डिप्टेश्वर, ऋषेश्वर, रामेश्वर, पचेश्वर आदि हैं।  मायावती यहाँ पर बड़ी सुन्दर तपोभूमि है।  यहाँ स्वामी विवेकानंद द्वारा स्थापित रामकृष्ण-मिशन का मठ है।  यह प्रान्त बड़ा ठंडा है।  यहाँ का जलवायु बड़ा हितकर है।  यहाँ की बोली सबसे प्यारी लगती है। यहाँ की नदियाँ लधिया, गिडकी (गीड़िया), लोहावती तथा चंपावती हैं। कई जंगल भी यहाँ के बहुत घने हैं।

कुमाऊँ का इतिहास-चंदकालीन समय में काली-कुमाऊँ परगना-History of Kumaun-Kali Kumaun, Kumaun ka Itihas
चम्पावत का बालेश्वर मंदिर

इतिहास - काली कुमाऊँ के बीच सुई या दौणकोट में बसनेवाला राजा ध्यानीरौ व चौभैंसी का भी मालिक होता था, तो भी उसके नीचे प्रत्येक पट्टी का नेता एक पट्टीदार भी होता था, जिसका काम मालगुजारी तथा राजा की आज्ञानुसार चलना था।  चंद-राजा के समय इनका पद बूढ़ा, सयाना या कमीन कहा जाने लगा। फुंगर व चौकी के बौरे अपने को यहाँ का सबसे पुराना बाशिंदा या 'थातवान' बताते हैं। जाड़ों में गेहूँ बोकर यहाँ के लोग कदीम से भावर को जाते रहे हैं।

'दस दशैं बीस बगवाल, कु मुँ फुल भाँग भँगवाल।'
यह किस्सा था। अब लोग भावर कम जाने लगे हैं।  पहाड़ी कागज़ यहाँ मुद्दत से बनता आया है।  राजा के समय खतेड़ा गाँव की चरस मशहूर थी।  फोर्ती गाँव से नित्य राजा के लिये तीतर शिकार को जाते थे। गोस्नी से हरा धनिया जाता था। कलरव्वाण का 'चोता' यानी मूली, चौमाल के 'पिनालू' (घुइयाँ), सुई के 'गावा' पाड़ास्युँ का दही, मछियाल के गेहूँ व नारंगी, सालम से बासमती आदि चीजें राजा के लिए जाती थी। अब भी ये पदार्थ उन प्रांतों के प्रसिद्ध हैं।

श्रोत: "कुमाऊँ का इतिहास" लेखक-बद्रीदत्त पाण्डे,
अल्मोड़ा बुक डिपो, अल्मोड़ा, ईमेल - almorabookdepot@gmail.com
वेबसाइट - www.almorabookdepot.com

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ