
कुमाऊँ के चंदकालीन परगने
(कोटोली, महरूड़ी, भावर और कोटा भावर)
(कुमाऊँ के परगने- चंद राजाओं के शासन काल में)
"कुमाऊँ का इतिहास" लेखक-बद्रीदत्त पाण्डे के अनुसार
कोटोली
यह परगना अब एक छोटी पट्टी है। यहाँ कालीगाड़ का पर्वत बड़ा है। करतियागाड़ नदी है और छोटे-छोटे नाले (गधेरे) हैं। कुमारेश्वर महादेव भी यहाँ हैं। 'इस पट्टी के जिना जाति के सैनिक (सिपाही) पहले से प्रसिद्ध रहे हैं। नेगी वगैरह भी अन्यत्र से आ बसे हैं। यह सारी पट्टी बदरीनाथजी को गूँठ में चढ़ाई हुई है। गोरखों ने गूँठ में चढ़ाई थी। सरकार कंपनी बहादुर ने भी बहाल रखी। इसकी आमदनी से यात्रियों को सदावर्त मिलता था। इस परगने में कोटोली गढ़ किला था, और यहाँ का खस-राजा चंदों के साथ लड़ाई में बहादुरी से लड़ा था, पर मारा गया, और यह परगना चंदों के हाथ आ गया।
महरूड़ी
यह भी एक छोटी-सी पट्टी है। यहाँ के गाँव दूर-दूर हैं । कारण यह है कि आस-पास के परगनों में से दो-दो चार-चार गाँव निकालकर यह पट्टी बनाई गई।
इसीलिये किस्सा भी है कि "जोड़ी-जोड़ी बेर की महरूड़ी।" कालीकुमाऊँ से भो इसकी सरहद मिली हुई है। इस पट्टी के गाँव गागर में, डोल के डाँडे में, बानणी और कालीगाड़ के डाँडों में जगह-ब-जगह हैं।
नागदेव या सर्प देवता की पूजा यहाँ होती है । कई एक बड़े-बड़े पत्थरों के 'ओड्यार' (गुफाएँ) हैं, जिनमें ये देवता स्थापित हैं।
महरूड़ी-कोट नामक किला यहाँ पर था। इस पट्टी का छोटा राजा भी चंदों से लड़ा था, पर मारा गया। महरूड़ी चंद राजाओं के हाथ में आई। यह पट्टी मंदिर केदारनाथ को गूंठ में चढ़ी है। इसकी आमदनी केदारनाथ के यात्रियों को सदावर्त के लिये गोरखा-सरकार ने चढ़ाई थी। अंगरेज सरकार ने भी बहाल रक्खी है।
तराई-भावर
सरहद- पूर्व में टनकपुर की ओर शारदा उर्फ सरयू नदी है, जो इसको नेपाल से अलग करती है । पश्चिम में लालढांग का इलाका तथा फीका नदी गढ़वाल भावर व कुमाऊँ भावर के बीच में हैं। इस ओर कुछ इलाका बिजनौर व मुरादाबाद का भी है। दक्षिण में मुरादाबाद, रियासत रामपुर, बरेली व पीलीभीत के जिले हैं। उत्तर में कुमाऊँ की पर्वत-मालाएँ हैं।
नदियाँ फीका, तुमड़िया, नत्थावाली, ढेला, कोशी, घूघा, डबका, बोर, निहाल, माकड़ा, धीमरी, बैगल पश्चिमी, गौला, धौरा, बैगल पूर्वी, कैलास, देवा, खाकरा, लोहिया, जगबूढ़ा और शारदा। इन नदियों में ढेला व देवा को छोड़ प्रायः सबमें पुल हैं । कोशी व गौला में रेल के बड़े पुल हैं । शारदा में बनबसा के पास बड़ा भारी बाँध है, जिसके ऊपर दोहरा पुल है । शिल्पशास्त्र का अद्भुत नमूना है। काठगोदाम के पास गोला नदी के ऊपर हार्दिगपुल भी देखने योग्य है । यह सिमेंट-कंकर का बना है। नीचे से पानी की नहर है, ऊपर आदमी जाते हैं।
नैनीताल-ज़िला तीन प्राकृतिक हिस्सों में विभाजित है-
(१) पहाड़ी इलाका- इसमें पहाड़ छखाता, धनियाँकोट, पहाड़ कोटा, कोटोली, रौ, चौभैंसी, महरूड़ी और ध्यानीरौ परगने हैं।
(२) भावरी इलाका-इसमें ये परगने है- भावर कोटा, छखाता भावर, चिलकिया और चौभैंसी भावर।
(३) तराई इलाका इसमें ये परगने हैं --काशीपुर, बाजपुर, गदरपुर, खपुर, किछहा (किलपुरी) नानकमता और बिलारी।
तराई की नीची तथा भावर की जल-हीन व रेतीली भूमि के बाद पहाड़ी इलाका आरंभ होना है। १७०० फीट तक भांवर की उँचाई है। उसके ऊपर २-३ बल्कि ४ हजार फीट तक क इल का एक प्रकार की भावरी आबहवा वाला है। प्रायः वही वनस्पति वहाँ पैदा होती है। ४-५ हज़ार के ऊपर फिर वनस्पति बदलती हैं। यहाँ से चीड़ और बाँझ के पेड़ दिखाई देते है। और ये अनन्त पर्वत-मालाएँ-कहीं ऊँची, कहीं नीची, अनेक घाटी, कंदरा, गुफा तथा प्राकृतिक दृश्यों से भरी हुई-हिमालय पर्वत तक चली गई हैं।

पर्वत की जड़ में भाबर है। कहीं-कहीं यहाँ भी छोटी-छोटी ऊँची टिवरियों पर गाँव बसे हैं। इन्हें 'कोरे' कहते हैं। मैदान जगह भावर कहलाती है। यह कामे ऊँची है। यह रामनगर से लेकर टनकपुर तक है। सदियों से पहाड़ों से मट्टी व पत्थर बहकर मैदानों की तरफ़ आते रहे हैं, और नदियों द्वारा कमी कहीं, कभी कहीं जमा किये जाते हैं। नदियों भी अपना बहाव या फाट बारम्बार बदलती रहती हैं। तमाम भावर में गोल गोल बड़े-बड़े पत्थर यत्र-तत्र पाये जाते हैं, जिनसे साफ प्रकट है कि ये पत्थर नदी में लुढ़ककर आये होंगे। भावर में पत्थर, मट्टी व बालू की तहैं एक के ऊपर दूसरी पाई जाती हैं। पानी नहीं मिलता। खोदने पर कठिनाई से कहीं दूर निकलता है। यह खुश्क या सुखी भूमि है। कभी-कभी सारी नदियाँ इसमें लुप्त हो जाती हैं, और वे नीचे तराई में प्रकट होती हैं । यह भूमि बड़े-बड़े वृक्षों व घनी झाड़ियों के जंगलों से भरी है, पर तराई की-सी घास यहाँ नहीं होती। भावरी इलाका १२०० से १७-१८०० फीट तक ऊँचा है। यहाँ पर जंगलों को काटकर तथा नदियों से बड़ी-बड़ी नहरे व गूलें ले जाकर खेती की गई है। खेती अच्छी होती है, पर कई दिनों से लिन्टाना घास या कुरी ने किसानों को परेशान कर रक्खा है। होलम्बरी साहब इसे आफ्रिका से बगीचों की बाढ़ के लिये लाये थे। अब यह तमाम में फैल गई है। काटने व जलाने पर भी नष्ट नहीं होती। भावड़ नाम की लंबी घास यहाँ होती है, जिससे काग़ज़ बनता है, इसी से इसका नाम भावर पड़ा।
भावर की बस्तियाँ
भावर में रामनगर, कोटा, कालाढूंगी, हल्द्वानी, काठगोदाम, चोरगल्या तथा टनकपुर प्रसिद्ध मंडियों हैं।
रामनगर-पहले बस्ती चिलकिया में थी, बाद को कोशी के किनारे रामजी साहब के नाम से १८५० में रामनगर बसाया गया। अच्छी तिजारती मंडी है। यहाँ के दृश्य अच्छे हैं। कोसी से नहर निकालकर ५-७ मील की भूमि आबाद की गई है। यहाँ थाना व छोटी तहसील है। चुंगी याने नोटीकाड एरिया भी है। रेल, तार, डाक सब हैं। फल-फूल विशेषकर पपीते के बगीचे काफ़ी हैं। ऊँचे टीले पर बसा है। नदी व जंगलों का दृश्य बड़ा सुहाबना लगता है। यहाँ से एक गाड़ी-सड़क रानीखेत को जाती है। लकड़ी की तिजारत काफ़ी होती है। जंगलात का दफ़्तर भी है। बदरीनारायण के यात्री यही होकर लौटते हैं। पर्वत जाने का यह पुराना रास्ता है। अँगरेजों के हौज इसी रास्ते कुमाऊँ पर चढ़ी थी।
हल्द्वानो- भावर की मंडियों में सबसे बड़ी है। कुमाऊँ का अब सबसे वड़ा नगर है । सन् १८३४ में ट्रेल साहब ने इसे बसाया। पहले बस्ती मोटा हल्दू में थी। पहले फूस के छप्पर बने थे। १८५० से पके मकान बनने लगे | अब दिन-दिन तरक्की है। रेल, तार, डाक, स्कूल सब है। जाड़ों में नैनीताल के दफ्तर यहाँ आते हैं। १२ हजार से ज्यादा की बस्ती है। यहाँ से अल्मोड़ा, रानीखेत, नैनीताल, भवाली को लारियाँ जाती हैं। भीमताल, मुक्तेश्वर, रामगाड़ को घोड़ों में माल जाता है। जाड़ों के लिये यह स्थान स्वर्ग है। यहाँ जाड़ा कम होता है। नल का पानी आने अब तो बरसात में भी बहुत लोग रहते हैं। तेल का कारखाना भी यहाँ पर है। पं० देवीदत्त जोशीजी ने रामलीला का हाता व मंदिर चंदे से बनाये(सं १८८४-८६)। इसमें संवत् १९७७ में ला० चोखेलाल मुरलीधरजी ने एक सुन्दर भवन बनवाया है। आर्यसमाज-भवन सन् १९०१ में बाबू रामप्रसाद मुख्तार (बर्तमान स्वामी रामानंद) ने बनाया। आर्य-अनाथालय को संवत् १९८५ में श्रीमती त्रिवेणी देवीजी ने बनवाया। सेवा-समिति का सुन्दर भवन चौ० कुन्दनलाल वर्मा ने संवत् १९८० में बनवाया।
एक अँग्रेजी मिडिल स्कूल भी १८३१ में ला० बाबूरामजी के धन से बना। १८८५ में यहाँ टाउन ऐक्ट जारी हुआ। १ फरवरी, १८९७ को यह म्युनिसिपैलिटि बनाई गई पर १६०४ में यह नोटीफाइड एरिया करार दी गई । सन् १९००-१९०१ में १०,१४९) आमदनी थी। अब ४०,०००) से ज्यादा है। पं० वेणीराम पांडेजी ने यहाँ पर सन् १९३२ में शिव का मंदिर बनवाया, जिसका नाम बेणीरामेश्वर है। श्री बचीगौड़ ने सन् १८९४ में धर्मशाला बनवाई तथा संबत् १९५२ में राममंदिर की परिक्रमा भी बनवाई। सनातन धर्मसभा सन १९९०२ में पं० छेदालाल पुजारी तथा पं० रामदत्त ज्योर्तिविदजी के उद्योग से खुली। हल्द्वानी अब काशीपुर से भी बड़ा नगर है।

काठगोदाम रेल का अन्तिम स्टेशन है। पहले यह बमोरी घाटा (दर्रा) कहलाता था। रेल के आने से काठगोदाम कहलाया। यहाँ काठबाँस की चौकी पहले थी। साथ ही लकड़ी का गोदाम (भंडार) होने से यह काठगोदाम कहलाया। रेल २४ अप्रैल सन् १८८४ को आई। पहले हल्द्वानी तक थी, बाद में यहाँ तक लाई गई। अब यह एक छोटी बस्ती है। तार, डाकघर दोनों हैं। भोजनालय व विश्रामालय भी हैं। चुंगी भी है। यह हल्द्वानी का एक हिस्सा है। यहाँ हवा खुब चलती है। यहाँ पर एक बड़ा पुल गौला नदी पर है। वह सीमेंट व कंकड़ का बना है। ३५० फुट लंबा है। मेहराबदार है। उसमें सड़क के साथ गौला-पार भावर को नहर भी जाती है। सन् १९१३-१४ में यह बना था। लार्ड हार्डिंग ने इसे खोला था। उन्हीं के नाम से यह प्रसिद्ध है।
चोरगल्या- चौभैंसी के भावर के लोगों की यह जगह है। यहाँ नंदौर से नहर निकाली गई है और दृश्य यहाँ के बड़े सुहावने हैं। जाड़ों में अच्छी चहलपहल रहती है । पहले यहाँ चोरों के छिपने की जगह थी, इससे चोरगल्या नाम पड़ा।
टनकपर- शारदा (सरयू) के किनारे की मंडी है। जाड़ों में अच्छी बस्ती रहती है। गर्मी व बरसात में बहुत ही कम लोग यहाँ रहते हैं। यहाँ एक बड़ा कुआँ है, जो सिमेंट का बना है। इसमें एंजिन लगा है, और उसी से पीने का पानी ऊपर को खींचा जाता है। इसके पार नेपाल की ब्रह्मदेव मंडी है। जो राजा ब्रह्मदेव कत्यूरी ने बसाई थी। पहले टनकपुर से ३ मील ऊपर भी ब्रह्मदेव मंडी थी, जहाँ पहाड़ के टूटने (पैर पड़ने) से १८८० में टनकपुर बसाया गया। इसका नाम ग्रास्टीनगंज पहले रक्खा था, पर वह चला नहीं। यह काली कुमाऊँ, पिठौरागढ़ तथा कैलास जाने का मार्ग है। यहाँ से थोड़ी दूर में पुण्यागिरिदेवी जी का मंदिर है। यहाँ जाड़ों में गश्ती अस्पताल रहता है। एक राष्ट्रीय औषधालय भी है। नहर के टूटने से लोगों को बड़ा कष्ट है। यहाँ से नेपाल को काफ़ी तिजारत होती है। यहाँ रेल भी है। भोटियों के ऊन बेचने की मंडी भी है।
कोटा भावर या परगना कोटा
सरहद- दक्षिण में तराई, पूर्व में कालाढूंगी, उत्तर में धनियाँकोट, पश्चिम में रामनगर
इसमे दो हिस्से हैं- (१) पहाड़ कोटा (२) भावर कोटा। पहाड़ कोटा किसी कदर ठंडा है। ५-७ गाँवों की पहले एक चकम पट्टी भी थी, पर अब नहीं है। पहाड़ बड़ा यहाँ पर गागर का ही सिलसिला है। इसी पहाड़ से छोटीपोह-सी नदियाँ निकलकर इस परगने में बहती हैं। यथा डबका, बौर, नहाल, भाकड़ा, चहल व कालीगाड़।
देवता- सीतेश्वर, वामेश्वर महादेव है। टीट की देवी व कालिका देवी काजोलेश्वर का नाम सीताबनी भी है। कहते हैं, त्रेतायुग में मर्यादा पुरुषोत्तम महाराजा रामचंद्र की रानी सीता ने यहाँ तपस्या की थी। वह स्थान वाल्मीकि आश्रम भी कहलाता है। पारकोट नाम का किला भी यहाँ पर था। यह परगना लंबा ज्यादा है, चौड़ा कम। कारण यह है कि पिछले दिनों देश का बहुत सा इलाका इसमें शामिल था। चंद-राज्य के अंतिम शासन-काल में देश का हिस्सा इससे अलग हो गया, अतः यह लंबा ज्यादा हो गया, चौड़ा कम।

इन जगहों में बीमारी बहुत होती है। खासकर पहाड़ के आदमी इन जगहों में कठीनाई से रहते हैं। राजाओं के समय जो अपराधी यहाँ आ बसा, वह राजा का ख़ास आसामी गिना जाता था और छोड़ दिया जाता था। यहाँ की बुरी आबोहवा ही उसके लिये काफ़ी सज़ा समझी जाती थी। पहले देशनिकाले की सजा जिसे दी जाती थी, पर भाबर में फेंक दिया जाता था।
कोटा के नजदीक ढिकुली में बहुत पुराने, टूटे-फटे, जीर्ण-शीर्ण खंडहर हैं। यहाँ देवताओं के टूटे मंदिर भी हैं। कुँआ भी है। शायद गूल से उसमें पानी जाता हो। ईंट की बनी ईमारते भी बहुत हैं। इनका कुछ वर्णन ऐतिहासिक खंडों में आवेगा। अब इन जगहों में बड़े-बड़े पेड़ साल, साज, कुसुम, हरक, बहेड़ा व आँवले के खड़े हैं।
कत्यूरी व चंद-राजा दोनों यहाँ जाड़ो में धूप सेकने को आया करते थे। चंद-राजाओं के समय के मद्दल टूटी हालत में हैं । देवीचंद के नाम से देवीपुरा अभी विद्यमान है। यहाँ के मंदिर भी कत्यूरियों के बनाये मंदिरों के से है, अतः स्पष्ट है कि यहाँ कत्यूरी राजाओं के समय भी आबादी रही हो। ठौर-ठौर में यहाँ पुरानी बस्तियों के चिह्न हैं। पहले यहाँ बुक्सा ज्यादा रहते थे, अब तो पर्वती भी बहुत रहते हैं। बुक्सों का वर्णन जाति-खंड में मिलेगा। यहाँ गल्ला खूब पैदा होता है । शाखू उर्फ साल, शीशम, कुसुम, आबनूस, पापड़ी, हल्दू व खैर की लकड़ी दूर-दूर को भेजी जाती है। दवाएँ जैसे हरड़, बहेडा, आँवला, पीपल, रोली, चिरौंजी, छैल छबीला. हंसराज, कपूर, कचरी, चिरायता आदि जंगलों में होते हैं, और देश-देशान्तरों को भेजे जाते हैं। शेर ( Bengal tiger) भी यहाँ काफ़ी होते हैं। जंगली हाथी भी दिखाई देते हैं। हिरन, चीतल, बारासिंघा, सुअर, नीलगाय, भालू , बौंस वगैरह काफी होते हैं।
सीतेश्वर में चंद-राजाओं के समय की गूँठ थी, जो अब जंगलात ने झगड़े में डाल रक्खी है। यहाँ अशोक के वृक्ष भी बड़े सुन्दर हैं। गरम जल के सोते भी सीताबनी के मंदिर के पास हैं। वहीं पर एक जगह का नाम तीन गढ़ है, जो राम के नाम से रामपुर, लछमन के नाम से लछमपुर और भरत के नाम से चैतान कहलाते हैं। यहाँ चीड़ के पेड़ भी हैं। यह स्थान सिद्धों का माना जाता है। उन सोतों से जो नदी निकलती है, उसका नाम पहले कालीगाड़ और चहल कहा जाता है। नीचे वह खिचड़ी नदी कहलाती है। इसके पानी से क्यारी, पत्तापाणी, गैबुवा, बेलपढ़ाव आदि इलाके आबाद हैं।
कमौला-धमौला में भी कहते हैं, पहले राजस्थान था। वहाँ पुरानी टूटीफूटी इमारतें भी हैं। कहते हैं, वहाँ हल चलाने में कभी अशर्फियाँ भी निकली थीं। देचौरी में लोहे की खान थी व कारखाना भी था। चूनाखान से गट्टी का अच्छा चूना देशान्तरों को भेजा जाता था। कालाढूँगी-छोटी-सी बस्ती है। पहले तहसील थी, अब नहीं है। रेल बनने के पूर्व यह मुरादाबाद से नैनीताल जाने का आम रास्ता था। ताँगे चलते थे। ठहरने का प्रबंध भी था।
श्रोत: "कुमाऊँ का इतिहास" लेखक-बद्रीदत्त पाण्डे,
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