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शेर सिंह बिष्ट, शेरदा अनपढ़ - कुमाऊँनी कवि 14

कुमाऊँनी कविता-बसन्त, शेरदा की कविता, poem in Kumaoni lanagugae by Sherda Anpadh on spring season, Sherda ki kavita

शेरदा अनपढ़ का गीत "बसन्त.."

शेरदा 'अनपढ' ने अपनी कविता "बसन्त" में पहाड़ों में वसंत ऋतु के सौंदर्य बड़े ही सुन्दर ढंग से व्यक्त किया है।  शेरदा के प्रकृति चित्रण में लोकतत्व और लोकभाषा का स्पर्श अद्भुत संवेदना को उत्पन्न करता है।  कुमाऊँनी भाषा में उनकी यह कविता/गीत उनके काव्य रचना को देश के श्रेष्ठ कवियों की  रचना की श्रेणी में रखता है।  कुमाऊँनी भाषा में ऐसी सुंदर रचना शायद ही कोई और आपको देखने को मिले-

छै रै बसन्त, है रै फूलों में बात,
कौंई गईं दिन राँडा, बौई गईं रात
छै रै बसन्त, है रै फूलों में बात!

अलग्वाजैकि कुरकाति लगूनईं बण गोरूना ग्वाव
थोऊँ दगै ह्योव लगूनई, हाङ-भिड़-कनाव!

मखमली उज्याव घुरी रौ ग्यूँ-मसूरै सार
बालाडाँ गलाड़ जामि गईं पिङवा दनकार!
सुरबुरी बयाव लगूना डान-काना बै धात!

कौंई गईं दिन यारो, बौई गईं रात
छै रै बसन्त, है रै फूलों में बात!

रस भरी फव मारनईं फाङा बै मुन्याव
घुघुत-घिनौड़ मानई घुन-घुना उछ्याव!
जड़नौ पराण पँगुरि रौ, टुकिनौं तराण
स्यूणा किलकारि मानईं मनखियाक सिराण!

अकाव हूँ टुक्याव मानई द्वि खुट द्वि हाथ
कौंई गईं दिन राँडा, बौई गईं रात!

छै रै बसन्त, है रै फूलों में बात!
बोट-डाव भिड़-कनाव स्यूनि गाडी भै रई
डान-कान लै हरि-पिङ्गाव टोपि पैरिभेर चै रईं!
मौ जै पाणि में बौं जै खेलनई खेत-स्यार-सिमार
नागुलि-भागुलि खुण्टि ओहरि काटनईं उगार!
चौंरी बाछी डौंरि खेलनै गौन-गयाठ
कौंईं गईं दिन यारो बौई गईं रात!
छै रै बसन्त, है  रै फूलों में बात!
बसन्ती बादव रनकार बरसनईं बेसुद
ब्योलि जै धरती है रै रङ में निझुत
हाव के अङाव हालिबेर इवाड़ गानईं पात
ज्यूनि के अङाव हालिबेर नीन गाड़नै रात!
सरगैकि परि हैगे धुई माटिक थात
कौईं गईं दिन भागी! बौई गईं रात!
छै रै बसन्त, है रै फूलों में बात।

बसन्ता अमर है जै तू उपकार करि गै है
आपुण खून गाड़िबेर धरती माङ भरी गै है
जग कैं तू जितै गै है आपूँ के लै हारिबेर
आपूँ गाड़ वार रैछै दूनी पार तारिबेर!
दुनियै जिबड़ी में छू तेरि सतै बात
त्यार गुण-गीत गैनईं म्यार दिन-रात!
छै रै बसन्त, है रै फूलों में बात!

सुनिए, शेरदा 'अनपढ' की कविता "बसन्त" स्वयं शेरदा के स्वर में -


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