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अमृत कलश - कुमाऊँनी श्रीमद्भगवतगीता (नौवूँ अध्याय)

श्रीमद्भगवतगीता का कुमाऊँनी पद्यानुवाद, Poetic interpretation of ShrimadBhagvatGita in Kumaoni Language, Kumaoni Gita padyanuvad

अमृत कलश - कुमाऊँनी श्रीमद्भगवतगीता

स्व. श्री श्यामाचरणदत्त पन्त कृत श्रीमद्भगवतगीता का कुमाऊँनी पद्यानुवाद

पछिल अध्याय-०८ बै अघिल

नौवूँ अध्याय - राजविद्या राजगुह्य योग


श्री भगवान बलाण
गोपनीय अति, तुकैं सुणूँ यो, दोष देख्णिया न्हातै, तब।
अनुभव सहित ज्ञान यो जाणी मुचित होलै पापन है सब।01।

अति पवित्र अति उत्तम विद्या, गुप्त राज द बड़ो महान।
धर्मयुक्त, प्रत्यक्ष फल दिणी करण सहज पै अविनाशी।02।

न्हाति परंतप! जन पुरुषन की श्रद्धा चढ़ी धर्म रथ में।
मकैं नि पै ऊँ घुमनै रूनी यै संसार मृत्यु पथ में।03।

सारे जगत में मैं भरियो छूँ! निज अव्यक्त मूर्ति द्वारा।
मैंमें अटकी छन सब प्राणी पर मैं वाँ कैं ज्ञिथत न्हाँतूँ।04।

चमत्कार देख मेरो योग को मैं में स्थ्ति लै कैकी न्हाँ।
धारण पोषण करि असंग रूँ यद्यपि मैं उत्पन्न करूँ।05।

जस अकाश में महावायु यो सब जाग छऽ औ सब जाग जा
उस यो अखिल भूत प्राणी लै मैंमें स्थित छनँ,ऐसो समझ।06।

कौन्तेय! कल्पान्त समय सब मेरी प्रकृति में लीन हुनी।
कल्प आदि मेंउनैं सबन्को में ही फिर सेसृजन करूँ ।07।

वश में करि मैं आपणि प्रकृति कें बार बार रचना कर दीं।  
जड चेतन यौं सबै विवश छन, सारै प्रकृति का वश में छन।08।

अर्जुन! उनरा कर्मन की तैं, मैं हूँ कोई बन्धन न्हा।
उदासीन जस मैं बैठी छूँ, अनासक्त उन कर्मन थें।09ं।

मेरा सन्मुख प्रकृति करैं यो रचना जगत चराचर की।
हेतु यैछ् कौन्तेय! विश्व जो, आवागमन में घुमनै रूँ।10।

मैं नर तन को आश्रय ल्ही छूँ मूढत्र अवज्ञा करनी जो।
परम भाव यो जाणन न्हातन, म्ें ही भूत महेश्वर छूँ।11।

आशा व्यर्थ व कर्म व्यर्थ सब, व्यर्थ ज्ञात ऊँ भ्रष्ट विवेक।
प्रकृति आसुरी और राकसी, मोहाछन्न तामसी छन।12।

किन्तु महात्मा जन हे अर्जुन! दैवी प्रकृति करी आश्रय
छन अनन्य मन भजनी मैं कन, जाधी आदिदेव अव्यय।13।

नित्य निरंतर मेरो कीर्तन, मेरी तैं दृढ़ व्रत धरनीं।
भक्ति साथ द्वि जोड़ी हाथ नित योग ध्यान मेरो करनी।14।

क्वे फिरि ज्ञान यज्ञ लै मेरो करनी पूजा उपासना।
क्वे अभेद क्वे भेद भावलै, बहु विध मैं सर्वतोमुखी। ।15।

क्रतु मैं छूँए मैं यज्ञ स्वधा मैं, और महौषधि मैं ही छूँ।
मैं छूँ मंत्र आज्य लै मैं छूँ, म्ेंई हुताशन, हुत मैं छूँ।16।

पिता जगत को माता धाता औ पितामह लै मैं छूँ।
ज्ञेय पवित्र ओंकार में, ऋक यजु साम सबै मैं छूँ।17।

गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी मैं छूँ मैं निवास, मैं शरण सुहृद।
उत्पत्ति, प्रलय, और स्थिति मैं छूँ, मैं निधान मैं अव्यय बीज।18ं।

तपणी मैं छूँ, मैं जल खैंचूँ, मेघ रूप वर्षूं मैं ही।
अमृत और मृत्यु मैं अर्जुन! सत मैं छूँ, मैं असत् लै छूँ।19।

वेदन पढ़नी सोम पी पाप छोड़ी, मैं थें बै जो रूा बट स्वर्ग चानी।
सुरेन्द्र का लोक पुज् िपुण्य जोड़ी, देवन दगै दिव्य भेगन कैं पानी।20।

वाँ ऊँ भोगी स्वर्ग लोकन में जाई, पुण्यक्षय भै मृत्यु लोक हूँ आई।
तीनै वेदन का यज्ञ यागादि ल्यायी, ऊनी जानी कामना काम पाई।21।

जो अनन्य भाव लै मेरा पूजन चिन्तन ध्यान करूँ।
नित्य युक्त ले भक्त चितत को, योग क्षेम मैं स्वयं करूँ।22।

अन्य देवता भक्त हईं जो उनरी तैं श्रद्धा धरनी।
ऊ ले छऽ काकैन्तेय मेरी पुज, किनु अविधि पूर्वक करनी।23।

सब प्रकार का यज्ञन ही मैं भोक्ता मैं स्वामी छूँ।
मेरो तत्व नि जाणना वीलै, उच्च लोक है पतितै हूँ ।24ं।

देव उपासक देवन मिलनी, पितर हुनी पितरन पुजणी।
मेरा भक्त मिलि जानी मैं में, भूत हुनी भूतन पुजणी।25।

पात, फूल, फल औ जल केवल मैं कन जे लै अर्पण हूँ।
भक्ति भव ले दिई सबै कुछ, प्रेम सहित मैं ग्रहण करूँ।26।

जे करछे जे भोग लगूँ छै, पूजा होम दान अर्जुन!
जस ल ैतप व्रत पाठ करन्छै, ऊ सब कर मेरा अर्पण।27।

शुभ औ अशुभ फलन है ऐसिकै, कर्म बन्ध है मुक्त होलै।
योग औ सन्यास युक्त मन मकैं प्राप्त करि मुक्त होलैं ।28।

सब की तैं छूँ मैं एकनससे, न्हातन राग द्वेष मैं में।
जो मैं भजनी भक्ति भाव ले, मैं उन में रूँ ऊ मैं में।29ं।

यदि अत्यन्त दुराचारी लै, मैं कन भजौ अनन्य हई।
ऊ लै साधु जसो समझण चैं, वीक ठीक ही निश्चय छऽ।30ं।

जल्दी ही धर्मात्मा है जाल् पूर्ण शान्ति वी कैं मिलि जालि।
यो तू निश्चय जाणि ले अर्जुन! मेरा भक्त को नाश नि हुन।31।

अर्जुन! मेरो आश्रय ली जन, यदि ऊँ पाप योनि लै छन।
स्त्रीजन वैश्य ओ शूद्र तक मेरो परम पद पाइ गेछन।32।

फिरि के कूण पुनीत ब्राह्मण, और भक्त राजर्षिन को।
करि अनित्य सुख रहित लोक में, मेरो भजन रात दिन हो।33।

मैं में मन धर मेरो भक्त हो, मेरी पूजा मकैं प्रणाम।
मेरा परायण, मेरी शरण हो, मैं में होलो तेरो धाम।34।

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