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अमृत कलश - कुमाऊँनी श्रीमद्भगवतगीता (आठूँ अध्याय)

श्रीमद्भगवतगीता का कुमाऊँनी पद्यानुवाद, Poetic interpretation of ShrimadBhagvatGita in Kumaoni Language, Kumaoni Gita padyanuvad

अमृत कलश - कुमाऊँनी श्रीमद्भगवतगीता

स्व. श्री श्यामाचरणदत्त पन्त कृत श्रीमद्भगवतगीता का कुमाऊँनी पद्यानुवाद

आठूँ अध्याय - अक्षर ब्रह्मयोग


अर्जुन बलाण
हे पुरुषांत्तम! ब्रह्म के भयो? क्ये अध्यात्म कर्म क्ये भै?
को अधिभूत बताओ कस हुँछ को अधिभूत कई जाँ छऽ।01।

मधुसूदन !यै देह मध्य में, क्ये अधियज्ञ कसो हुँछ हो।
अन्त समय में मन संयम करि, कसिक जाणण में ऊँ˜ा तुम।02।

श्री भगवान बलाण
ब्रह्म परम अक्षर छऽ, वी कै जो स्वभाव अध्यात्म कईं।
नम रूप् उत्पन्न करि दिणी, ग्रहण विसर्जन कर्म कईं ।03।

नशवान अधिभूत कईं छऽ जीव पुरुष अधिदैवत छऽ
मैं अधियज्ञ सबन को अधिपति, देहवान में देही वर।04।

अन्त समय में जो मेरो ही स्मरण करी छोड़ी दीं देह
यैमें क्ये सन्देह न्हाति ऊ मेरा भाव में पुजि जालों ।05।

स्मरण करौ जो जस भाव कैं छोड़ि दिं अन्त कलेवर कैं।
भावित है जाँ कौन्तेय! वैं प्राप्त करी ल्हीं वी वीकैं।06।

ये वीलै सब काल सर्वथा मैं कन भज तू कर संग्राम।
अर्पित करि मन बुद्धि मकैं तू, निश्चय आलै मेरा धाम।07।

योगाभ्यास में लागी रई रूँ चित्त जैक कैं कती नि जान।
दिव्य पुरुष कैं पुजि जाला ऊ, पाथ्र नित्य जो कर चिन्तन।08।

अनादि सर्वज्ञ ठुल है ठुलो जो, अणु है मसिण रूप अचिन्तयनीय।
रवि है उज्योल रं अन्यार है परे ऊ धाताा नियन्ता कैं ऊ भजन्छ।09।

जाण बखत ऊ मन कै अचल कै स्वभक्ति लै योगबल कैं लगाई।
प्राणन कैं खैंची भैं बीच ल्यूनी ऊ! दिव्य विभु कैं पाई ल्हिनी हो।10।

वेदज्ञा ज्ञानीइजे अक्षर बतूनी, जै में यती वीतरागी समानी।
इच्छा हूँ जेकी रै ब्रह्मचारी वी तमद मुणी में मैं बतूँछु!11।

सब इन्द्रिन का द्वार बन्द करि, मन को हृदय निरोण करी।
प्राणन कैं मस्तक हूँ खैंची मेरा ध्यान योगी बैठौ।12।

ओम् एक अक्षर उच्चारएा, चिन्तन करौ योग धारण।
ऐसिकै जो तजनी अपनो तन, उततम गति पूनी ऊँ जन।13।

जो अनन्य भाव ले सब िदन सबै बखत कर मेरो भजन।
उनरी तैं मैं पाा्रि सुलभ छेूँ, नित्ययुक्त ऊँ योगी छन।14।

परम सिद्धि कैं पुजी महात्मन, म्ें कन पुजी हुई जो छन।
दुक्खी घर जाँ बार बार मर, पुनर्जन्म ुिरि उनर निहुन।15।

चैद भुवन मय ब्रह्म लोक का सबछन जन्म ल्हिणी अर्जुन!
मैं कन पाई कोन्तेय! पे पुनर्जन्म कभैं नि हुन।16।

एक हजार चतुर्युग को दिन, उसै हजार युगन की रात।
ब्रह्मा का दिन रात पछाणनी महा काल ज्ञानी ऊँ छन ।17।

ब्रह्मा का दिन में अव्यक्त बै नाम रूप् ाब जन्म ल्हिनी।
रात्रि ऊण पर ुिर अव्यक्त में वीं सब प्रलय हइ्र जानी।18।

ऐसिक भूत प्राणी दिनदरातन उदय हुनी औ अस्त हुनी।
रात भई त विवश शे गया दिन में पार्थ! विवश जागनी।19।

यै उदय अस्त है पार एक अणकस्सै भाव सनातन छऽ।
जब सब नाश हुणी प्राणिन का बीच कभैं ले नष्ट नि हुन।20।

वी अव्यक्त थें अक्षर कूनी, वीकै नाम परम गति छऽ।
वीपाई फिरि कभैं नि लौटन परम धाम ऊ मेरो छ।21।

परम पुरुष ऊ पाथ्र! भक्ति लै, पई सकीं अनन्य हई।
जैक भितरयो सब भूत छन, जो सब कैं परिपूर्ण छई।22।

एक काल जै लौटन न्हातन, ओर दुसर जेलौटि जानी।
योगी जन का मरण काल द्वी, भरत श्रेष्ठ! मैं बतुणयूँ!23।

अग्नि ज्योति औ शुक्ल पक्ष हो, म्हैण उत्तरायण को छै।
यै बाट जाणी ब्रह!म है जानी पहुँची हुई ब्रह्मज्ञानी।24।

धुवाँ राज औ कृष्ण पक्ष हो, म्हेण दक्षिणायण का छै।
चन्द्र ज्योति पथ बै जो जानी, ऊँ योगी फिरि लौटि जानी।25।

पाथ्र योइ्र द्वि बाटन पछाणी, यागी मोह में नि पड़नो।
यै वीलै तू सबै काल याँ योग युक्त है रौ अर्जुन।26।

शुक्ल कुष्ण याँ द्वीयै गति छन, जग में चली सनातन बै।
एक मार्ग बट लौटन न्हातन दुसर बटी जै लौटि जानी।27।

वेदाध्ययनको औ यज्ञ तपको दानादि पुण्यन का जो फल बतूनी।
यो ज्ञान पाई सबन कैं पछै दीं अधिन सबन हे योगी पुजी जीँ।28।


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