
अमृत कलश - कुमाऊँनी श्रीमद्भगवतगीता
स्व. श्री श्यामाचरणदत्त पन्त कृत श्रीमद्भगवतगीता का कुमाऊँनी पद्यानुवाद
पछिल अध्याय-१४ बै अघिलपन्द्रूँ अध्याय - पुरुषोत्तम योग
श्री भगवान बलाण
जड़ अकाश हूँ तीर हूँ फांग छन, ऐस अविनाशी पीपल छऽ।
छन्द वेद का यैक पात छन, जो यो जाणौ उ वेद जाणौ।01।
तली मली हूँ फांग फैलिया छन सींची गुणन लै विषय कल्लि लागनी।
पाताल जाँ लै जाड़ गैर पुजिया, नर लाक कैं जो कर्मन में बाँधनी।02।
यो रूप यैको जाणि नी सकीनो। न आदि न अन्त न थिति मिलैं कैं।
गैरा जड़न वाल् यै पीपलै कैं विरक्ति रमटेल काटि दे भली कै।03।
तब ऊ परम उच्च पद खोजणों चैं। जाँ पुजि नि ऊना संसार हूँ फिरि।
जाँ बट पुराणो यो फैलियो छ ऽ वी आदि प्रभु की शरण ल्हि छूँ मैं।04।
बिन मान मोहै, आसक्ति जितिया, अध्यात्म ज्ञानी बिना कामना का।
सुखदुख आदिक द्वन्द्वन बै छुटिया, ज्ञानी परम अव्यय धाम पुजनी।05।
सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, कोई लै वाँ प्रकाश नी करि सकना।
वाँ पुजि फिर क्वे लौटन न्हातन, परम धाम ऊ मेरो छ ऽ।06।
जीव लोक में देह में रूणी जीव सनातन अंश मेरो।
मन छे पाँच इन्द्रिन कैं ऊ पगकृति संग लै खैंचि ल्हि छ ऽ।07।
जै शरीर कैं छोड़ी दुसार में जाण लागों जब जीवात्मा।
यो छै कैं ही साथ लिजाँ जस वायु गंध कैं खैंचि लिजाँ।08।
आँखा , कान, त्वचा, रसना औ नाख, पाँच इन्द्रिन द्वारा।
मन युत बैठी जो शरीर मे, सब िवषयन को भोग करौं।09।
देह में रूणीदेह छोडत्र दिणी, भोगणी गुणन में लिपटी कैं।
अज्ञानी अंधा नि देखना, देखनी ज्ञान आँखन वाला।10।
करिदप्रयत्न योगीजन यै कन आत्म ध्यान धरि देखि ल्हीनी।
पर अचेत मन अज्ञानी जन जतन की लै देखि नीं पन्।11।
तेज भरी आदित्य भितरजो, अखिल जगत कैं करौं प्रकाश।
तेज चन्द्रमा में पावक में, मेरा तेज को समझ विकास।12।
धरणि प्रवेश करी प्राणिन कैं, धारण करूँ आपणि उज लैं छॅँ।
पोषण करूँ अन्न औषधि को, स्वयं रसात्मक सोम हई।13।
मैं वैश्वानर अग्नि रूप, हूँ, प्राणि मात्र का देह भितर।
प्राण अपाना साथ रई मैं चार प्रकारा अन्न पचूँ।14।
सबना हृदय में मैं बैठिया छॅँु स्मृति ज्ञान दीं मैं, मैं लाप करिदीं।
सब वेद द्वारा मैं ही विदित छॅँू, मैं वेद विद मैं वेदान्त कर्तां15।
क्षर और अक्षर द्वि प्रकार पुरुष लोक मैं छन अर्जुन!
नाशवान सब प्राणी क्षर औ कूट बसी ऽ अक्षर छन।16।
इनन है उत्तम पुरुष अन्य छऽ परमात्मा जै थें कूनी।
तीनलोक में अनुस्यूत ऊ धारक अव्यय ईश्वर छऽ।17।
मैं क्षर है सर्वथा अलग छूँ अक्षर है लै उत्तम छूँ
यै वीलै मेंलोक वेद में, पुरुषोत्तम विख्यात भयूँ ।18।
मोह रहित ज्ञानी जो मैं कन पुरुषोत्तम कै जाणनो छऽ
वीदसव्रज्ञ भयो नित मैं कन सब भावन बै हे भारत।19।
ऐतुकै गुप्त रहस्य शास्त्र छऽ हे निष्पाप कयो मैं लै।
यै कन जाणी बुद्धिमान हूँ, औ कृतकृत्य हुँछऽ भारत।20।
कृमशः अघिल अध्याय-१६
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