
अमृत कलश - कुमाऊँनी श्रीमद्भगवतगीता
स्व. श्री श्यामाचरणदत्त पन्त कृत श्रीमद्भगवतगीता का कुमाऊँनी पद्यानुवाद
पछिल अध्याय-१५ बै अघिल
सोलूँ अध्याय - देवासुर संपद विभाग योग
श्री भगवान बलाण
अभय हृदय मन शुद्धि साथ में, ज्ञान योग में रति मति हो।
दान दमन स्वाध्याय यज्ञ तप धर्माचरण सरल गति हो।01।
सतय अहिंसा बिना क्रोध हो, त्याग शान्ति बिना छल.व्याज।
दया सबन हूँ विषय अलोलुप, मृदु अचपल, कुकर्म की लाज।02।
तेज, क्षमा, धृति, शुद्धि अंग की द्रोह नि हो, अति मान नि हो।
यो देही सम्पत्तिवान का जन्मजात गुण छन भारत।03।
दम्भ, दर्प, अति मान, क्रोध छल, दुव्रिनीत कटु कुटिल वचन।
मोह औ अज्ञान पाथ्र यों, सबै आसुरी सम्पत्ति छन।04।
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देवर सम्पत्ति मोक्ष देऊणी, बन्धन कर आसुरी दुसर।
तू लै अर्जुन दैवी सम्पत्ति ल्ही जन्मी छे फिकर नि कर।05।
द्वी प्रकार को नर स्वभाव हूँ द्याप्त एक और दुसर असुर।
भलि कै दीं दैवी गुण सब, आब आसुरी पार्थ! सुण ल्हे।06।
क्ये करणी, क्ये अकरणीय छऽ कुछ नी मानन आसुरी जन।
न शौच नै आचार ठीक क्ये, न सत्य उन में हूँ छऽ कती।07।
जग असत्य छऽ निराधार छऽ मालिक ईश्वर क्वे न्हाती।
आपण आफी यो बणी हुई छऽ खै पी मौज करण हूँ छऽ।08।
ऐसी धारणा अवलंबन करि आत्म विनाशी, अविवेकी।
जनअहित करणी क्रूर कर्म करि, जग विनाश हूँ पैद हुनी।09।
पुरे नि पड़नी तृष्णा जकड़ी दम्भ म ान मद में अकड़ी।
मोह में फँसी अशुभ निश्चय का कुत्सित कर्मन कैं करनी।10।
क्ले अपार चिन्ता तृष्णा में मरण काल जाँ लै फँसिया
काम भोग ही परम रुचिर छन, यै निश्चय मन में धँसिया।11।
बँधी सैकड़ों आशा ज्यौड़न काम क्रोध में भरी हुई।
काम भोग हूँ दौड़ धूप सब, अन्यायी धन संचय हूँ।12।
ऐतुक मनोरथ पूर्ण है गया, अघिल यतुक यो पूर्ण करुँल।
ऐल ऐतुक यो कमैं हैलौ धन अब भविष्य में कतुककमूल।13।
इन शत्रुन को नाश करि हालो, ऐतुक रइ्र छन नाश करण।
ईश्वर मैं छूँ, भोगी मैं छूँ, महाउपुरुष बलवान सुखी।14।
मैं कुलीन धनवान ठुलो छूँ, को छऽ अन्य समान मेरा।
यज्ञ दान मैं करूँ, सुखी रूँ ऐस अज्ञान विमोहित छन।15।
कतुक भाँति छन भ्रमित चित्त जो मोह जाल में फँसी हुई।
काम भोग में दत्तचित्त यों, घार नरक में जै पड़ला।16।
अहम्मन्य ओ कुटिल घमंडी मान और मद में मातिया।
नाम हुणी बस यज्ञन करनी, सब िवधि हीन दम्भ भरिया।17।
काम क्रोध बल दर्प फूलिया आपणै अहंकार डुबिया।
अपना औ परदेह में मेरा निदक और द्वेष करणी ।18।
क्रूर अशुभ करणी विद्वेषी निदक नराधमन कै मैं।
यैसंसार में सदा आसुरी पाप योनि में खेड़नै रूँ।19।
जन्म जन्म ऊँ मूर्ख आसुरी योनिन में पड़नै रूनीं।
मके। नि पूना कौन्तेय! तब, छुटनी और अधम गति हूँ।20।
तीन द्वार छन नरक उज्याणी, नाश करि दिणी जीवन को।
काम क्रोध औ लोभ य वीलै, इन तीनन कैं तजणों चैं।21।
अंधकार इन तीन द्वार है, जो नरबचि जानी कौन्तेय!
आत्म श्रेय का छिलुक जगूनी पुजनी भलिक परम गति हूँ।22।
जो जन शास्त्र विधिन कैं छोड़ी जस मन ए उस कर्म करौ।
क्ये पुरुषार्थ प्राप्त नी हुनकें, न सुख मिलौ, न शुभ गति हूँ।23।
शास्त्र प्रमाण त्वील मानणों चैं कार्य अकार्य जाणण की तैं।
जाणी शास़ विधान लोक में कर्म करण हूँ भलो भयो। 24।
कृमशः अघिल अध्याय-१७
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