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अमृत कलश - कुमाऊँनी श्रीमद्भगवतगीता (सत्रूँ अध्याय)

श्रीमद्भगवतगीता का कुमाऊँनी पद्यानुवाद, Poetic interpretation of ShrimadBhagvatGita in Kumaoni Language, Kumaoni Gita padyanuvad

अमृत कलश - कुमाऊँनी श्रीमद्भगवतगीता

स्व. श्री श्यामाचरणदत्त पन्त कृत श्रीमद्भगवतगीता का कुमाऊँनी पद्यानुवाद

पछिल अध्याय-१६ बै अघिल

सत्रूँ अध्याय - श्रद्धात्रय विभाग


अर्जुन बलाण
शास्त्रै विधि कैं छोड़ी जो जन श्रद्धा सहित यजन करनी।
कृष्ण उनरि ऊ निष्ठा कसि भै, सत रज तम में को जसि भै?।01।

श्री भगवान बलाण
तीन तरह की श्रद्धा हूँ यो सब प्राणिन की स्वाभाविक।
सात्विक राजस और तामसी,इनरा भेद भली कै सुण।02।

हे भारत! सबनै की श्रद्धा संस्कारन अनुरूप हुँ छऽ।
श्रद्धामय छऽ पुरुषश् जेकि जसि श्रद्धा हो ऊ उसै होलो।03।

सात्विक जन देवन कन पुजनी यक्ष राक्षसन राजस जन।
भूत पे्रत की पूजा करनी जो जन ऊँ तामस छन।04।

शास्त्र विहित हैे रहित घोर तप,करनी जो जन मन मौजी।
अहंकार पाखंड देखूणी काम राग लै हमक भरी।05।

केवल अपनो ही शरीर में, अन्तःकरण में मकैं लगै।
दुर्बल करनी, कष्ट पुजूनी, उनरि आसुरी बुद्धि समझ।06।

सबनै को आहार लै ऐसिकै तीन प्रकारै प्रिय लागों।
यज्ञ, दान, तप, लै तीनै विधि, हुनीउनार भेदन कैं सुण।07।

आयु और आरोग्य विवर्द्धक, बल, सुख , प्रीति सहित सुविचार।
सरस स्निग्ध थिर पौष्टिक रुचिकर, सात्विक जन को प्रिय आहार।08।

चरपिर खटृो लूण खुस्याणि को, रुखो तिखो दाहक तन को।
दुःख,शोक औ रोग उपूणी प्रिय आहार राजस जन को।09।

जली काचो नीरस दुर्गन्धित ठंडो बासी बिना रोजी।
जुठ पिठ औ अपवित्र बणी सब भोजन प्रिय तामस भोजी।10।

फल इच्छा है रहित यज्ञ जो विधिवत समाधान मन करि।
करी जानी र्तिव्य समझि शुभ, एस कै समझौ सात्विक भै।11।

फल की इच्छा लक्ष्य बणाई वैभव दंभ देखूणै तैं।
भरतश्रेष्ठ! जो यज्ञ करीनी उनन कैं समझौ राजस भै।12।

सब विधि हीन अन्न दान बिन, मंत्र हीन दक्षिणा विहीन।
श्रद्धा हीन जो यज्ञ करीनी उननै कैं तामस कूनी।13।

शौच सरलता संध्या पूजा, देव विप्र गुरु ाानी की।
ब्रह्मचर्य व्रत और अहिंसा, कायिक तप यो कई गयो।14।

कै कवे चितत दुखूणी नी हो वचन सत्य प्रिय हितकर हो।
पाठ आपण स्वाध्याय हेतु हो, वाचिकतप यै थें कूनी।15।

मन प्रसन्नता और सौम्यता, मौन और मन को निग्रह।
बुद्धि भव की शुद्धि एतूकै, यो मानस तपदकई गयो।16।

जो नर परमोत्तम श्रद्धा धरि तीनैं विधि का तप करनी।
फल की इच्छा बिना योग करि यै तप थैं सात्विक कूनी।17।

आपणै हो सत्कार मान पुज, अतवा दंभ देखूणै तैं,
अथिर औ चंचल तप हूँ जो वी तप थें राजस कूनी।18।

हठ हेकड़ में आपूँ कै पीड़ा दिण हूँ जो तप करी जानी।
दुसरन को विनाश करणा हूँ, ऊ तप तामस समझि लियो।19।

दान करण हूँ दान करी ग्वे, प्रति उपकार नि चाही क्ये।
देश काल औ पात्र विचारी, दी वी दान भयो सात्विक।20।

प्रति उपकारै लक्ष्य करी जो फल मिलणा का मतलब लै।
दिण हूँ दी, पै चित्त दुखी करि, ऐसो दान ही राजस भैं।21।

जब कुपात्र कैं दिईं ’कुथल ’ में अवसर काल विचार बिना।
बिना मान ही तिरस्कार करि, ऐसो तामस दान कईं।22।

ओं तत्सत् यो ब्रह!म निरूपण स्मरण करी जाँ तीन प्रकार।
ब्राह्मण, यज्ञ, वेद की रचना, आदि काल में यै बे भै।23।

ओम् उच्चारण करी जाँ पैली यज्ञ दान तप किया समय।
यै वीलै हो यो विधान कर, वेद ब्रह्मवादी जन लै।24।

तत् कूनी फल त्याग करण हूँ यज्ञ दान तप किया समय।
और लै जो कुछ धर्म कर्म शुभ करनी मोक्ष चाहणी जन।25।

शुभ हुण पर यो सदाचार हूँ ’सत् ’ प्रयोग में ऊनो छ।
और मांगलिक कर्मन हूँ लै ’सत ’ को शब्द कई जाँ छऽ।26।

यज्ञ, दान, तप में स्थिति कै लै ’सत् ’ही नाम दिई जाँ छऽ।
’तत्’ निमित्त जो कर्म करीनी, उनरी थें लै ’सत ’ कूनी।27।

अश्रद्धा लै यज्ञ,दान, तप जे लै ओर करी जाँ छऽ।
’ असत’ कई परलोक न क्ये फल और न क्ये यै लोक हुनो।28।

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