
नंदादेवी मेला - नैनीताल
देवभूमि उत्तराखंड की लोकप्रिय देवियों मां नंदा और सुनंदा का महोत्सव कुमाऊँ अंचल में धूमधाम से मनाया जाता है। यह महोत्सव पूरे एक सप्ताह तक बड़े ही भक्ति-भावना और हर्षोंल्लास के साथ मनाया जाता है। कुमाऊँ अंचल में नन्दादेवी उत्सव का इतिहास काफी पुराना है। प्रचलित मान्यता अनुसार मां नंदा-सुनंदा दो बहनें थीं जिनकी की पूजा-अर्चना के साक्ष्य पुराणों में भी मिलते हैं।
स्थानीय लोक मान्यताओं में मां नंदा को देवी के नवदुर्गा रूपों में से एक बताया गया है। सम्पूर्ण हिमालयी क्षेत्र में मां नंदा को शक्ति की देवी के रूप में भी जाना जाता है और इसी रूप में इनकी पूजा करने का रिवाज भी है। इस अवधि में वैसे तो समूचे उत्तराखंड में मां का यह पवित्र उत्सव हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता हैं। परन्तु कुमाऊँ में विशेष रूप से जहां कहीं पर भी नंदादेवी के मंदिर हैं वहां पर मां नंदादेवी के सम्मान मे काफी भव्य मेलों का आयोजन किया जाता हैं।
कुमाऊँ में मां नंदादेवी मेला सांस्कृतिक विरासत को संजो कर रखे हुए हैं। इस मेले में परंपरा अनुसार मां-नंदा सुनंदा की भव्य प्रतिमाएं बनाई जाती हैं जिनका निर्माण कदली स्तम्भ (केले के वृक्ष के तने) से किया जाता है। उत्तराखंड की लोकगाथा जागर का समावेश भी इस मेले में देखने को मिलता है। मां नंदा-सुनंदा की प्रतिमाओं का स्वरूप उत्तराखंड की सबसे ऊंची चोटी नन्दादेवी के सापेक्ष बनाया जाता है। नन्दादेवी का वास नन्दा पर्वत के शीर्ष पर माना जाता है, जिसका वर्णन स्कंद पुराण के मानस खंड में मिलता है।
नंदादेवी के मेलों में बागेश्वर जिले के कोट में नंदाष्टमी के दिन होने वाला मेला बड़ा ही प्रख्यात है जो 'कोट' की माई के नाम से प्रसिद्ध है। मेले के दौरान अपनी लोक विरासत के कारण मां नन्दा भगवती मन्दिर पोथिंग (कपकोट) अलग ही छठा बिखर रहा होता है। सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा में स्थित ऐतिहासिक नन्दादेवी मंदिर में भी पूरे सप्ताह रंगारंग कार्यक्रम होते रहते हैं।
अल्मोड़ा की ही भांति नैनीताल में भी नंदादेवी मेला आस्था और विश्वास के साथ मनाया जाता है। कहा जाता है कि अल्मोड़ा के लोगों ने जाकर ही नैनीताल में भी इस मेले की शुरुआत की थी। वर्ष १९१८-१९ ई. में स्थानीय लोगों की पहल पर इस त्यौहार को नैनीताल में भी जातीय पर्व के रुप में मनाया जाने लगा। मेले को सुचारु रुप से संचालित करने के लिए श्री राम सेवक सभा द्वारा वर्ष १९३८ में व्यवस्था अपने हाथ में ले ली गयी। वर्तमान में भी इस संस्था के पास मेले की व्यवस्था का सारा कार्यभार है।
नैनीताल में मेले के धार्मिक कार्य कार्यकलाप पंचमी से ही प्रारंभ होते हैं। परम्परा के अनुसार यहाँ भी नंदा-सुनंदा की प्रतिमाओं को कदली स्तम्भों से ही निर्मित किया जाता है। मेले के लिए ब्राह्मण नैनीताल के पास बसे ज्योलीकोट से आते हैं। प्रतिमा बनाने के लिए कदली स्तम्भों का चयन विधिविधान से किया जाता है। तत्पश्चात मल्लीताल में स्थित धर्मशाला में विधि अनुसार चयनित किये गये कदली स्तम्भों के पूजन अर्चन के बाद मेले की गतिविधियाँ प्रारम्भ हो जाती हैं। स्थानीय शिल्पी अपनी प्रतिभा और प्रज्ञा से परम्परानुसार नंदामुखाकृतियाँ निर्मित करते हैं। मुखाकृतियों के आंगिक श्रंगार और उनके आभूषणों से अलंकृत करने के बाद उनका पूजन किया जाता है और प्राण प्रतिष्ठा की जाती है।
नंदादेवी का मुख्य मेला नंदाष्टमी को प्रारंभ होता है। इस दिन महिलाएं मांगलिक परिधानों में सज-संवर कर मां की पूजा के लिए मंदिर प्रांगण में एकत्र होती हैं। मेले के अंतिम दिन डोला उठता है, जिसमें दोनों देवियों के विग्रह रखे जाते हैं। डोले को सजाकर नगर भ्रमण कराया जाता हैं। अंत में देवी प्रतिमाओं का विसर्जन कर दिया जाता है।

मेले को चूँकि महोत्सव का रुप दे दिया गया है, इसलिए विसर्जन होने तक लगातार पूजन, अर्चन चलता है, साँस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं । मेले के अन्तिम दिन परम्परागत रुप से शोभा यात्रा निकाली जाती है । नन्दा माँ की जय जयकार करते हजारों लोग इस शोभायात्रा में सम्मिलित होते हैं। प्रतिमाओं पर अक्षत, पुष्प आदि अर्पित किये जाते हैं। अन्त में पाषाण देवी मंदिर के पास इन देवी विग्रहों को जल में विसर्जित किया जाता है।
मेले के दिनों में सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी किया जाता है जिसमें उत्तराखंड की लोकगाथाओं की धूम रहती हैं। इन गाथाओं के गायक 'जगरिये' मंदिर परिसर में मां नंदा-सुनंदा की गाथा का गायन करते हैं। इस दौरान लोकगायकों की टोलियां नन्दादेवी मंदिर प्रांगण में एकत्र होती हैं। मेले के दौरान दूर-दर से आये लोकगायक, नर्तक अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। कहा जाता सकता है कि यदि किसी को कुमाऊँ की संस्कृति को समझना है तो इसके लिए नंदादेवी मेला देखना जरूरी है।
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