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अग्नेरी देवी, चौखुटिया - महाभारत काल की राष्ट्रीय धरोहर

अग्नेरी देवी, चौखुटिया - महाभारत काल की राष्ट्रीय धरोहर, Agneri Devi temple, Chaukhutiya, Chaukhutiya ka Maa Agneri Devi Mandir, mahabharatkalin mana jata hai

🔥अग्नेरी देवी, चौखुटिया - महाभारत काल की राष्ट्रीय धरोहर🔥

कुमाऊं क्षेत्र के उपेक्षित मन्दिर -3 (शोध लेख)
(लेखक: डा.मोहन चन्द तिवारी)

चौखुटिया से लगभग 0.5 कि.मी.दूर जौरासी रोड,रामगंगा नदी के तट पर धुदलिया गांव के पास स्थित अग्नेरी देवी का का प्राचीन मन्दिर कत्यूरी कालीन इतिहास की एक अमूल्य धरोहर है। देवभूमि उत्तराखंड की पावन भूमि में बसी रंगीली गेवाड़ घाटी की कुमाऊंनी लोकसाहित्य और संस्कृति के निर्माण में अहम भूमिका रही है। यहां के प्रसिद्ध दर्शनीय स्थलों में कत्यूर की राजधानी लखनपुर,गेवाड़ की कुलदेवी मां अगनेरी का मंदिर, रामपादुका मन्दिर,मासी का भूमिया मंदिर विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। ‘राजुला मालूशाही’ की प्रेमगाथा के कारण भी बैराठ चौखुटिया की यह घाटी ‘रंगीली गेवाड़’ के नाम से प्रसिद्ध है।

यहां अग्नेरी देवी के मन्दिर में लगने वाला चैत्राष्टमी का मेला कुमाऊं का एक प्रसिद्ध मेला माना जाता है। यहां अपनी मनौतियों   को पूर्ण करने हेतु देश विदेश से श्रद्धालुजन माँ अग्नेरी के दरबार में पहुंचते हैं।

जहां तक इस अग्नेरी देवी के प्राचीन इतिहास का सम्बन्ध है,लोकश्रुति के अनुसार दुनागिरि पर्वत के सामने 'पाण्डुखोली' नामक स्थान में पाण्डवों ने अपने अज्ञातवास के दिनों को बिताया था। कौरवों को जब उनके अज्ञातवास का पता चल गया तो वे 'कौरवछिना', जिसे आजकल 'कुकुछिना' कहते हैं, वहां तक उनका पीछा करते हुए पहुंच गए। परन्तु देवी दुनागिरि की कृपा से सुरक्षित रह कर 'पाण्डुखोली' में पाण्डवों ने कुछ समय तक वास किया।

उसके बाद कौरवों की सेना से बचते हुए पाण्डवों ने 'मत्स्यदेश' (मासी) की राजधानी विराट नगरी की ओर प्रस्थान किया। वर्त्तमान में महाभारत के मत्स्यदेश की पहचान मासी से और विराट नगरी की पहचान गेवाड़ घाटी स्थित बैराठ नगरी से की जा सकती है। इसी 'बैराठ' क्षेत्र में आज चौखुटिया नगर बसा है। उत्तराखण्ड के प्राचीन इतिहास के जानकार महात्मा हरनारायण स्वामी जी ने महाभारतकालीन विराट नगर की देवी को चौखुटिया स्थित 'अगनेरी देवी' माना है। दुनागिरि के निकट रामगंगा के किनारे आज भी इस विराट नगरी के प्राचीन पुरातात्त्विक अवशेष देखे जा सकते हैं। यहीं पर नदी के किनारे कीचक घाट भी है जहां भीम ने कीचक का वध किया था। कत्यूरी राजा आसन्ति वासन्ति देव का यहीं राज-सिंहासन भी था।

 महाभारत के विराट पर्व में वर्णित  'दुर्गास्तोत्र' दुनागिरि क्षेत्र में शक्ति पूजा के उत्तराखण्डीय स्वरूप पर प्रकाश डालने वाला एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक साक्ष्य है। इस स्तोत्र की फलश्रुति से ज्ञात होता है कि देवी के आशीर्वाद से ही पाण्डवों ने महाभारत के घनघोर युद्ध में कौरवों को पराजित करके अपने खोए हुए राज्य को पुनः प्राप्त किया था।

'बैराठ' देवी का स्वयं कथन है कि जो भी इस स्तोत्र का पाठ करेगा वह धन-धान्य, सुख-सम्पत्ति से युक्त होगा और सब प्रकार की बाधाओं से मुक्त होकर उसके सभी मनोवांछित कार्य सिद्ध होंगे। देवी ने पांडवों को भी आशीर्वाद देते हुए कहा कि मेरी कृपा प्रसाद से तुम सब पाण्डवों को विराट नगर में रहते हुए कौरव जन अथवा वहां के निवासी पहचान नहीं पाएंगे-
"इदं स्तोत्रवरं भक्त्या 
शृणुयाद् वा पठेत वा । 
तस्य सर्वाणि कार्याणि 
सिद्धिं यास्यन्ति पांडवाः।।" 
मत्प्रसादाच्च वः सर्वान् 
विराटनगरे स्थितान्। 
न प्रज्ञास्यन्ति कुरवो 
नरा वा तन्निवासिनः।। 
-विराटपर्व,दुर्गास्तोत्र,33-34
महाभारत काल के समय धर्मराज युधिष्ठर ने अपने भाइयों के साथ विराट नगरी में पहुंच कर सर्वप्रथम इस नगर की कुल देवी और वैष्णवी शक्ति 'दुर्गा' के दर्शन किए और अपनी सुरक्षा की कामना से दुर्गा देवी की स्तुति की। महाभारत के विराटपर्व का  संस्कृत के 35 श्लोकों में रचित दुर्गास्तोत्र पांडवों के द्वारा उनके अज्ञातवास के समय की गई वैष्णवी शक्ति दुर्गादेवी की ही स्तुति है। कालान्तर में इसी बैराठ देवी को स्थानीय मान्यता के अनुसार कत्यूरी राजाओं की कुल देवी या 'अग्नेरी देवी' के रूप में जाना जाने लगा।
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मैंने सन् 2002 में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'दुनागिरी महिमा' में जन सामान्य की जानकारी हेतु विराटदेवी की स्तुति के रूप में इस महाभारतकालीन 'दुर्गास्तोत्र' का भाषानुवाद सहित मूल संस्कृतपाठ परिशिष्ठ भाग के रूप में प्रस्तुत किया है और इसके महाभारतकालीन ऐतिहासिक महत्त्व पर भी वहां विस्तार से प्रकाश डाला है।

महाभारतकालीन इस 'दुर्गास्तोत्र' में धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने भाइयों के साथ देवीदर्शन की कामना से सर्व प्रथम नमन पूर्वक वरदायिनी, कृष्णस्वरूपा, कुमारी, बह्मचारिणी,सूर्य के समान रक्तवर्णा, पूर्णचन्द्र के समान मुख वाली आदि विविध प्रकार के स्तुतिवचनों से वहां विराट नगर की कुलदेवी दुर्गा का स्तवन किया है -
"नमोऽस्तु वरदे कृष्णे कुमारि ब्रह्मचारिणि।
बालार्कसद्दशाकारे पूर्णचन्द्रनिभानने।।" 
                     -विराटपर्व, दुर्गास्तोत्र,7
इस देवी का शक्तिपूजा के उद्भव व विकास के इतिहास की दृष्टि से भी विशेष महत्त्व है। उत्तरवर्ती काल में ब्रह्मा,विष्णु और महेश इन त्रिदेवताओं की शक्तियों का क्रमशः ब्राह्मी, वैष्णवी और शैव (शिवा) शक्तियों के रूपों में स्वतंत्र रूप से विकास हुआ और उनकी रूपाकृति में भी अंतर पाया जाने लगा। किन्तु महाभारत कालीन दुर्गादेवी का यह स्तोत्र इस दृष्टि से विलक्षण है कि इसमें महाशक्ति के तीनों स्वरूपों का एकसाथ प्रतिनिधित्व होने के कारण इस आराध्य देवी को जहां एक ओर चतुर्भुजी वैष्णवी कहा गया है तो दूसरी ओर दुर्गति से तारने वाली  दुर्ग रक्षिका दुर्गा के रूप में भी इसका स्तवन किया गया है-
"दुर्गात् तारयसे दुर्गे तत् त्वं दुर्गा स्मृता जनैः। कान्तारेष्ववसन्नानां मग्नानां च महार्णवे।।" 
                  - विराटपर्व, दुर्गास्तोत्र,20
अर्थात् हे दुगे ! दुर्गति से तारने के कारण लोग आपको 'दुर्गा' नाम से पुकारते हैं। जो लोग घनघोर जंगलों में भटक गए हों, महासागर में डूबने के कगार पर हों अथवा चोर-डाकुओं के चंगुल में फंस गए हों उन सब संकटग्रस्तों की आप ही एकमात्र शरण हो।

2 जनवरी, 2002 को मेरे द्वारा चौखुटिया क्षेत्र के पुरातात्त्विक सर्वेक्षण के दौरान 'लखनपुर के कत्यूर' के लेखक एवं इस क्षेत्र के प्रतिष्ठित इतिहासकार डॉ.लक्ष्मण सिंह मनराल से मुलाकात करने का मौका मिला तो उन्होंने मुझे यहां कत्यूर राजाओं की कुलदेवी के रूप में पूज्य अग्नेरी देवी के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी देते हुए बताया कि यह देवी आग्नेय कोण में होने के कारण 'अग्नेरी देवी' कहलाती है। पहले इस मंदिर के गर्भगृह में कत्यूरी राजाओं द्वारा काषाय पाषाण से निर्मित दुर्गादेवी की आदमकद मूर्ति विराजमान थी। किन्तु सन् 1970 में वह मूर्ति चोरी हो जाने के बाद यहां सन् 1971 में नई मूर्ति की स्थापना की गई। उन्होंने बताया कि सन् 1905 में कुमाऊं के सन्त सीताराम बाबा जी ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार किया था। उस समय कार्तिक की पूर्णमासी की रात को मन्दिर प्रांगण में बहुत बड़ा मेला भी लगता था और श्रद्धालुजन प्रातः रामगंगा में स्नान करके देवी की पूजा अर्चना करते थे। मनराल जी ने यह भी महत्त्वपूर्ण जानकारी दी कि कत्यूरी राजा परम वैष्णव थे और उनके काल में यहां पशुबलि नहीं दी जाती थी किन्तु चन्द राजाओं के काल में यहां बलिप्रथा शुरू हुई। उसके बाद यहां हरनारायण स्वामी जी का पदार्पण हुआ तो उन्होंने यहां बलिप्रथा रोकने के लिए विशेष प्रयास किया।
  
चौखुटिया एक ऐतिहासिक नगरी-
चौखुटिया अल्मोड़ा जिले के द्वाराहाट खंड में स्थित रामगंगा घाटी का एक प्राचीन ऐतिहासिक शहर भी है। जैसा कि 'चौखुटिया' नाम से ही पता चलता है कि कुमाऊंनी में 'चौ' का शाब्दिक अर्थ है चार और 'खुट' का अर्थ है पैर। इसका तात्पर्य है कि 'चौखुटिया' में चार अलग-अलग दिशाओं के लिए पैर यानी मार्ग हैं- एक अल्मोड़ा के लिए, दूसरा रामनगर के लिए, तीसरा कर्णप्रयाग के लिए और चौथा तड़गताल के लिए। इस नगर को अल्मोड़ा और द्वाराहाट राजधानी नगरों से भी अधिक बार मुस्लिम आक्रमणकारियों का सामना करना पड़ा। कभी फिरोज तुगलक की फौज से लड़ना पड़ा तो कभी रुहेलों के आक्रमणों को झेलना पड़ा,जिसके कारण इस क्षेत्र के प्राचीन मन्दिरों,स्मारकों और देवी-देवताओं की मूर्तियों को नष्ट कर दिया गया अथवा उन्हें खंडित कर दिया गया।

2016-17 में  बक्रेश्वर मन्दिर के निकट ग्रामीण जनों द्वारा एक धर्मशाला की खुदाई के दौरान चौखुटिया में 9वीं शताब्दी ईस्वी पूर्व के लघु मंदिरों का एक समूह मिला है।
(अर्पिता चक्रवर्ती, "नाइन्थ सेंचुरी टेम्पल्स फाउंड इन अल्मोड़ा डिस्ट्रिक्ट" ,18 दिसंबर 2016,टाइम्स ऑफ इंडिया, अल्मोड़ा ।
वास्तुकला की बनावट की दृष्टि से इन मंदिरों का निर्माण लगभग 9000 साल पहले निर्धारित किया गया है।
("अल्मोड़ा में भूगर्भ में स्थित 9 हजार साल पुराने शिव मंदिर",हिंदुस्तान टीम (हिंदी में), हल्द्वानी : लाइव हिंदुस्तान, 21 अगस्त 2017)
कुछ मंदिरों में छत नहीं थी, लेकिन मंदिरों के अंदर शिवलिंग अभी भी बरकरार थे।  इन लघु मंदिरों को एक बड़े मन्दिर समूह का हिस्सा बनाकर संरचित किया गया था।
पुरातत्त्व विभाग ने यद्यपि इन मंदिरों को पांडवकालीन नहीं माना है, किन्तु इतना तो स्वीकार किया है कि ये नौंवीं-दसवीं शताब्दी के कत्युरी कालीन मन्दिर हैं।
अग्नेरी देवी, चौखुटिया - महाभारत काल की राष्ट्रीय धरोहर, Agneri Devi temple, Chaukhutiya, Chaukhutiya ka Maa Agneri Devi Mandir, mahabharatkalin mana jata hai

वस्तुतः बैराठ नगरी की राजधानी रही लखनपुर क्षेत्र में पुरातात्विक महत्त्व की एक अनोखी सुरंग भी मिली है,जिसके अंदर पुरानी सीढि़यां, रोशनदान, देवी-देवताओं की मूर्तियां एवं पाषाण की दीवार पर कई अन्य आकृतियां उकेरी हुई हैं। माना जा रहा है कि यह सुरंग बारहवीं शताब्दी में कत्यूरी राजाओं द्वारा निर्मित की गई थी। तब यहां लखनपुर नामक स्थान में उनकी राजधानी हुआ करती थी। सुरंग का पता कुछ दिन पूर्व उड़लीखान-आगर मनराल सड़क निर्माण के दौरान लगा। कहते हैं कि पूर्व में यह सुरंग करीब डेढ़ किमी लंबी थी, जो सीधे कत्यूरी राजवंशी राजाओं की राजधानी लखनपूर को जोड़ती थी। लेकिन समय बीतने के साथ ही सुरंग का दायरा भी सिमटते गया, तो आज भी 40-50 मीटर लंबी है। इसके दो मुहाने हैं। स्थानीय लोग बताते हैं कि इस भू-भाग में इस तरह की कई और सुरंगें भी हैं,जो अब बंद हो गई हैं।

लखनपुर के आठवीं-नौवीं शताब्दी के मन्दिरों में अनेक देवी-देवताओं की मूर्तियों व खंडहरों के मिलने से पुष्टि होती है कि कत्यूरी शासकों द्वारा अपने शासन काल के दौरान यहां अनेक गुफा-सुरंगें बनाई गई होगी, जिनका सामरिक एवं धार्मिक दृष्टि से भी विशेष महत्त्व रहा था। विशेष ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि ये गुफाएं पर्वत शिखर से रामगंगा नदी तक पहाड़ खोदकर बनाई गई थीं। राम गंगा नदी के किनारे पूर्व में बनाए गए अनेक मुहाने अब बंद हो गए हैं।

बीते दिनों लखनपुर की पहाड़ी में उड़लीखान से आगर मनराल सड़क के निर्माण कार्य के दौरान भी एक अनोखी सुरंग मिली। कहते हैं कि पूर्व में यह सुरंग करीब डेढ़ किमी लंबी थी,जो सीधे कत्यूरी राजवंशी राजाओं की राजधानी लखनपूर को जोड़ती थी। लेकिन समय बीतने के साथ ही सुरंग का दायरा भी सिमटते गया, तो आज भी वह 40-50 मीटर लंबी है और इसके दो मुहाने हैं। प्रतीत होता है कि कत्यूरी राजाओं द्वारा जल आपूर्ति आदि दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए इन सुरंगों का निर्माण किया गया होगा।

इस क्षेत्र के जाने माने इतिहासकार, 'लखनपुर के कत्यूर' के लेखक और चौखुटिया के पूर्व ब्लॉक प्रमुख रहे डा. लक्ष्मण सिंह मनराल के अनुसार बैराठ नगरी में कत्यूरी राजाओं की एक शाखा ने दीर्घकाल तक यहां राज किया था और लखनपुर उनकी राजधानी रही। उसके अवशेष आज भी यहां मौजूद हैं। उन्होने पहाड़ी में कई सुरंगें बनाईं,जिनका उपयोग रामगंगा नदी में स्नान करने और वहां स्थित नौलों और जलाशयों से पानी लाने के लिए किया जाता था।

चौखुटिया महाविद्यालय के असिसटेंट प्रोफसर (इतिहास), डा.प्रभाकर त्यागी के अनुसार उड़लीखान गांव के पास 12वीं शताब्दी के आसपास निर्मित ये सुरंगें कई पौराणिक और प्राचीन इतिहास के पहलुओं को समेटे हुए हैं। इस क्षेत्र में इस प्रकार की और भी कई सुरंगें हैं, कई के मार्ग तो कई के मुहाने बंद हो गए हैं।

क्षेत्रीय पुरातत्व इकाई अल्मोड़ा के संज्ञान में भी ये सुरंगें हैं। क्षेत्रीय प्रमुख डॉ.चंद्र सिंह चौहान द्वारा इन सुरंगों के सम्बन्ध में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (एएसआई) नई दिल्ली को पत्राचार द्वारा जानकारी भी दी गई किन्तु आज तक एएसआई ने इन महत्त्वपूर्ण अवशेषों के अध्ययन संरक्षण की दिशा में कोई ठोस प्रयास किया हो इसकी जानकारी नहीं है।

 दरअसल,अग्नेरी देवी शक्तिपीठ से स्पंदित यह रामगंगा और गेवाड़ घाटी का क्षेत्र रामायण और महाभारत काल से ही प्रसिद्ध राजधानी नगर के रूप में विकसित क्षेत्र रहा है। इन अति प्राचीन सुरंगों का यदि पुरातात्त्विक दृष्टि से अध्ययन और सर्वेक्षण किया जाए तो कुमाऊं क्षेत्र व कत्यूरीकालीन  प्राचीन इतिहास के कई अज्ञात और अनसुलझे पहलुओं से भी पर्दा उठ सकता है। 
सन्दर्भ संकेत-
● डा. लक्ष्मण सिंह मनराल, 'लखनपुर के कत्यूर',1996
● उमराव सिंह नेगी,"चौखुटिया के लखनपुर में मिली एक पौराणिक सुरंग," जागरण समाचार,8 फरवरी,2021
● डा.मोहन चन्द तिवारी,'दुनागिरी माहात्म्य'.उत्तरायण प्रकाशन,2002
के कत्यूरी राजाओं 
● अर्पिता चक्रवर्ती, "नाइन्थ सेंचुरी टेम्पल्स फाउंड इन अल्मोड़ा डिस्ट्रिक्ट" ,18 दिसंबर 2016,टाइम्स ऑफ इंडिया, अल्मोड़ा ।
● "अल्मोड़ा में भूगर्भ में स्थित 9 हजार साल पुराने शिव मंदिर",हिंदुस्तान टीम (हिंदी में), हल्द्वानी : लाइव हिंदुस्तान, 21अगस्त 2017
● सभी सांकेतिक चित्र गूगल से साभार

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