कुमाऊँ के परगने- दानपुर, रामगाढ़ व आगर
(कुमाऊँ के परगने- चंद राजाओं के शासन काल में)
"कुमाऊँ का इतिहास" लेखक-बद्रीदत्त पाण्डे के अनुसार
४२. रामगाढ़ व आगर
यह परगना दो पट्टियों का है-
(१) आगर,
(२) रामगाढ़।
नदियों- रामगाढ़, देवदार खैरनी हैं।
मुक्तोश्वर व मोटेश्वर महादेव यहाँ हैं।
यह परगना और परगनो से बहुत छोटा है। यहाँ का पहले श्रीगजुवा ठींगा नाम का बड़ा जोरदार खस राजा था। उसने राजा भीमचंद को सोते में मार डाला। बाद को यह राजा कल्याणचंद द्वारा मारा गया। तब से यह सारा प्रान्त चंद-राज्य में शामिल हो गया।
इस पट्टी के सब पहाड़ों में लोहा बनाने के कारखाने थे। इससे इस आगर कहते हैं। आगर के मानी पर्वतीय भाषा में लोहे के कारखाने के हैं। इस पट्टी के प्रायः सब पहाड़ों में लोहा पाया जाता है। यहाँ के बाशिंदे आगरी कहे जाते हैं, जिनका काम अक्सर लोहा बनाने का था। अब ये खेती तथा अन्य काम करते हैं।
नथुवाखान, पेउड़ा, लासिंगपानी, सूपी, सतबुंगा, चौखुटा, मजेड़ा, धनाचुली, बुरांसी, पाली, मंडी श्रादि गाँवों के निकट लोहे की खानें हैं। लोहाकोटी नाम का किला यहाँ ऊंचे टीले में है, जो वीरान पड़ा है। यहाँ भी राजाओं के समय युद्ध हुआ था । सतबुंगा पर्वत यहाँ सबसे बड़ा है। आलू यहाँ खूब पैदा होते हैं। रामगढ़ में कई फलों के बगीचे हैं। यह स्थान बड़ा रमणीक है।
४३. दानपुर
दानपुर हिमालय से मिला हुआ है। इसकी सरहदें जोहार, गढ़वाल, पाली, बारामंडल व गंगोली से मिली हुई हैं। रामगंगा व पिंडर नदी के कुंवारी गाँव तक उत्तर में इसकी सरहद है। दक्षिण की ओर शिखर की चोटी तथा हड़बाड़ व सरयू के संगम तक दानपुर कहा जाता है।
पहले दानपुर में दो पट्टियाँ थीं, अब तीन है- मल्ला, बिचला, तल्ला, किन्तु असली दानपुर मल्ला वाला माना जाता है। नाकुरी को भी दानपुर में कहते हैं।
पहाड़- उत्तर में नंदाकोट, नंदादेवी, नंदाखाट, सुन्दर ढुँगा, वणकटिया आदि बड़े-बड़े श्वेत छत्रधारी पर्वत हैं। इनके अतिरिक्त कफीनी कौतेला, धाकुड़ी, चिल्ढा, लोधुरा, किलटोप, गांगुली विनायक ऊँचे-ऊँचे शिखर हैं, जिनकी उँचाई १० से लेकर १३-१४ हज़ार फ़ीट तक होगी। इनके बीच ऊँचे झरनों (जल प्रपातों) का जल मोतीबिंदु की तरह दिखाई देता है। धाकुड़ी, नामिक, लमतारा प्रसिद्ध व रमणीक जंगल हैं। हरे-भरे जंगलों के बीच से नदियाँ बड़े बेग से बहती हुई अजब बहार दिखलाती हैं। परमात्मा की लीला देखकर मनुष्य अवाक हो जाता है, और मन-ही-मन धन्यवाद दियेबिना नहीं रहता।
गरमियों में हजारों की संख्या में गूजर लोग डंगरों को यहाँ लाकर पालते हैं। अब यहाँ के लोग भी जंगलात की-सी सख्ती करने लगे हैं। चराई माँगते हैं। इससे गूजर कम आते हैं।
पिंडारी ग्लेशियर- यहाँ पर पिंडारी, सुन्दर ढुंगा व रामगंगा के ग्लेशियर याने गल हैं। पिंडारी ग्लेशियर संसार के सब ग्लेशियरों से अनुपम समझा जाता है। यहाँ को सुन्दर सड़क बनी है और डाक बँगले भी हैं। इसी से यहाँ जाना सब ग्लेशियरों से सुगम है। यह अल्मोड़ा से ६८ मील है। पिंडारी ग्लेशियर का वर्णन शब्दों में होना कठिन है।
'गिरा अनयन नयन बिनु बाणी' वाली तुलसीदासजी की उक्ति याद आती है। ग्लेशियर के भीतरी भाग में प्रवेश करने से हिम की हज़ारों-लाखों वर्ष की बनी हुई स्वच्छ शिलाएँ मणियों की भाँति चमकती ज्ञात होती हैं। मानो, प्रकृति का "ताजबीबी का रौज़ा” है, जिसकी दीवारों में दरारें आ गई हों। इसी गल को पार कर ट्रेल साहब, जो यहाँ के पहले कमिश्नर थे, जोहार के मरतोली गाँव में गये थे। इससे इसको ट्रेल-पास कहते हैं। बाद को शायद मि० रटलेज ने भी इसे पार किया है। यह ग्लेशियर तीन तरफ़ बर्फ के बड़े पर्वतों से घिरा है। बीच में जो मैदान है, उसे मर्तोलिया पड़ाव कहते हैं। जिससे ज्ञात होता है कि यहाँ पहले रास्ता (Pass) था, जो अब पहाड़ों के गिरने से बंद हो गया। जब पिंडारी को जाते हैं, तो रास्ते में जोहारपानी (ज्वारपानी) व ज्वार नाम के जंगल पड़ते हैं। मल्ला दानपुर में चौड़, हरकोट, धूरकोट, मिकिला, खलमुनी में जो भोटिये रहते हैं, वे पहले पिन्डारी में रहनेवाले कहे जाते हैं। उनके सम्बन्ध अब भी ट्रेल पास को पार कर मरतोली गाँव में होते हैं। इन बातों से स्पष्ट है कि कभी यह स्थान भोटियों से बसा हुआ था।
पक्षी- यहाँ डफी, लुंगा, मुन्याल या हिमालय के मोर होते हैं। डफी, लुंगा संसार के सब पक्षियों की सुन्दरता को चुराकर हिमालय में शरण लेते है। किन्तु यहाँ भी शिकारी इनको मारकर गोश्त खा जाते हैं, और इनके परों से विलायती रमणियों की टोपियाँ सजाई जाती हैं।
जंगली चूहा, जिसे मिरतू कहते हैं, यहाँ बहुत होते हैं। इसकी खाल के गलाबंद ( मफ़लर) बनते हैं।
यहाँ के मूल निवासी दाणू लोग अपने को दानव-देवता समझते हैं। ये कहते हैं, सारे संसार में वर्षा यही बरसाते हैं।
दवाइयाँ- यहाँ भी ज़हर, डो तू, अतीस, भूतकेस, सची, टांटरा आदि-आदि उत्पन्न होते हैं।
वृक्ष- पेड़ों में रागा, चिल्ल, सुराई, सुनेर, देवदार, पांगर, राताचिम्मल, रतपा, बूरुंश आदि होते हैं। भोजपत्र भी यहाँ होता है। इसमें चिटी-पत्री लिखते हैं। इसकी लकड़ी के बर्तन (फरुवे, ठेकी, पाले वगैरह ) बहुत मज़बूत, साफ व हलके बनते हैं । बाँझ भी यहाँ कई किस्म का होता है, जैसे बांज, रियांज, स्यांज, फल्यांट, करौज, खरसू, तिलौंग।
यह भी बर्फ-प्रधान देश है, पर यहाँ से रास्ता तिब्बत को नहीं है। दनपुरिये लोग जोहार के दर्रे (घाटे) से कुछ सौदागरी करते हैं। पर दार्मा व जोहार के बनिस्वत बहुत कम करते हैं। बकरियाँ इस परगने में बहुत पैदा होती हैं। दनपुरिये कुछ बकरियों को अपने लिये रख बांक़ी को जोहारवालों के हाथ बेच देते हैं। हुणियों के साथ इनका व्यापार व आढ़त कुछ भी नहीं है।
दानपुर कोट नामक एक किला था, किन्तु इस समय सिर्फ चोटी बाकी है। दनपुरिये इस किले को अपने मूल-पुरुष दानवों का समझते हैं, और इसी के सामने एक शुमगढ़ नामक गाँव है। उसको शुम्भ दैत्य का किला कहते हैं। यह दैत्य देवीजी से लड़ा था और मारा गया।
जानवर- दानपुर के पहाड़ों में थार, बरड़, कस्तूरा-मृग बहुतायत से होते हैं। काले व सफ़ेद दो प्रकार के भालू पाये जाते हैं। सफ़ेद बाघ भी बर्फानी इलाके में होता है।
यहाँ के लोग वीर होते हैं। वे बाघ, भालू या अन्य जंगली जंतुओं से नहीं डरते। उन्हें ये अनेक प्रकार की तरकीबों से मार डालते हैं। यह लोग सरकारी कर्मचारियों से ज्यादा, जंगली जानवरों से कम घबराते हैं, क्योंकि ये पढ़े-लिखे कम होते हैं। सीधे-सादे होते हैं। चतुर कर्मचारी इन्हें नाना प्रकार से तंग करते हैं। पल्टन में बहुत से दनपुरिये सिपाही हैं।
सेलखड़ी यहाँ बहुत होती है, किन्तु अन्य कोई खान होने की बात सुनने में नहीं आई।
किम्बदन्तियाँ- दानपुर के लोग कहते हैं कि नंदादेवी पर्वत के पश्चिम तरफ ऊँची टिबरी हिमाचल की कव्वालेख के नाम से प्रसिद्ध है। उसमें कव्वों के लाखों पर पड़े रहते हैं। कारण कि उक्त पर्वत कव्वों की काशी कही जाती है। यहाँ कव्वे यदि मरे, तो वैकुंठ को जाते हैं। कहते हैं, जब कव्वा मरने को होता है, तो वह कव्वालेख में चला जाता है। यदि अन्यत्र कोई कव्वा मरा, तो अन्य कोई कव्वा उसका एक पर लाकर कवालेख में डाल जाता है। खाती गाँव से ऊपर मलिया धौड़ा पुल पार कर बांई तरफ़ नंदाकोट की ओर यह पर्वत है।
नंदादेवी के पर्वत में कोई नहीं जा सकता। पहले वहाँ पर जब पूजा करने को पर्वत की जड़ पर जाते थे, तो कहते हैं, बकरे की पूजा कर उसके गले में छुरी बाँध पहाड़ पर 'खदेड़' देते थे। वह चोटी पर जाता था, वहाँ से उसका सिर कटकर पहाड़ पर रह जाता था और धड़ नीचे गिर जाता था। अब कलियुग में ऐसा नहीं होता।
फसलें- धान, गेहूँ यहाँ बहुत कम होते हैं। जौ, मडुवा, फाफरा ज़्यादा होते हैं। लोग सत्तु भी खाते हैं । घी, दही, शहद यहाँ के बहुत मीठे होते हैं। गरमी व बरसात में भौंरे आकर यहाँ पर पर्वतों की अगम्य गुफाओं व कंदराओं ( कफ्फड़ों) में शहद के छत्ते लगाते हैं। वीर दनपुरिये उन दुर्गम्य स्थानों से 'डोको' (कंडियों) में बैठ रस्से बाँधकर शहद निकाल ही लेते हैं।
हिमालय में उत्पन्न होनेवाले नाना प्रकार के जंगली फूलों के केशर का यह शहद बड़ा ही सुगंधित व सुस्वादु होता है।
दानपुर में सबसे अन्तिम गाँव भुनी है। इससे किस्सा है-
"नङ माथी मांसु नै, भुनी मांथी गौं नैं"
नाखून के ऊपर मांस नहीं, भुनी के ऊपर गाँव नहीं।
भुनी के ऊपर हिमालय की दुर्गम दीवारें खड़ी हैं, जहाँ जाना कठिन काम है।
बुक्याल- गरमी व बरसात में यहाँ ८ से १० हजार फुट की उँचाई में हरे-हरे चरागाहों में घोड़े, डंगर तथा भेड़, बकरियाँ स्वच्छंद चरने को छोड़ी जाती हैं। बरसात के अन्त में उनको घर ले आते हैं। इन स्थानों को बुक्यालकहते है। जानवर यहाँ रहने से हृष्ट-पुष्ट हो जाते हैं। यहाँ के चरवाहों को अनवाल कहते हैं। खाती से दवाली तक पिंडर नदी के दोनों तरफ़ ७ मील तक निगाले का घना व हरा जंगल सुंदरता में नंद-कानन से कम नहीं है।
दानपुर में निंगाल बहुत होता है। इसकी क़लमें भी बनती हैं। मसालें (छिलुके) भी अच्छी होती हैं। मोस्टे, डबाके, बल्लम, पिटारे, गोदे, सूप आदि भी बनाते हैं।
दानपुर के लोग घी, शहद, खाले व शिलाजीत बेचते हैं।
यहाँ पर हड़सिल, कपकोट, सलिंग, लोहार खेत तथा शामाधुरा मुख्य स्थान हैं। खारबगड़ में तीनों दानपुरों की सरहद मिलती है। कपकोट सबसे बड़ा गाँव है। सरयू के किनारे मैदान जगह में बसा है। डाकबंगला, डाकघर तथा मिडिल स्कूल यहाँ पर हैं। दूकानें भी हैं। पिंडारी को यही रास्ता है।
देवता- देवता यहाँ के नंदादेवी तथा मूलनारायण उर्फ मुलेणा हैं। कुछ भूत तथा अन्य स्थानीय देवता हैं, जो दाणों कहलाते हैं। जैसे लाल दाणों, धामसिंह दाणों, बीरसिंह दाणों। ये लोग वहाँ के राजा या शूरवीर 'पैके' होंगे, जो उस समय पूजनीय हों और मरकर भी ग्राम-देवता माने गये हैं।
कहते हैं, भगवती ने शुमगढ़ में शुम्भ, निशुम्भ दैत्यों को मारा, इसी से इसका नाम शुमगढ़ है। जब ये दैत्य भागकर गुफा में छिपे, तो भगवती ने शिला तोड़ चक्र से दैत्यों को मारा। वहाँ से खून की धारा बही। अब वह पानी की धारा हो गई है। लाल काई खून-सी ज्ञात होती है। यह गाँव किले की तरह है। यहाँ पांडु-शिला भी है, जिसमें पांडवों के पैरों के चिह्न बताये जाते हैं। वहीं पर अर्जुन ने बाण मारकर ठंडा पानी पीने को निकाला था, जिसको अब 'पिंडर पाणी' कहते हैं।
मेले - (१) वैशाखी पूर्णमासी को भद्रतुंगा के सरयूमूल नामक स्थान में बड़ा मेला होता है। बड़े तीर्थों की तरह यहाँ श्राद्ध व मुंडन भी होता है।
(२) बधियाकोट में नंदादेवी के नाम का मेला लगता है। बदरीनाथ से जब भगवती आई, तो पहला विश्राम यहाँ हुआ ऐसा कहा जाता है।
श्रोत: "कुमाऊँ का इतिहास" लेखक-बद्रीदत्त पाण्डे,
अल्मोड़ा बुक डिपो, अल्मोड़ा,
ईमेल - almorabookdepot@gmail.com
वेबसाइट - www.almorabookdepot.com
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