'

विस्मृत होती कुमाऊँ की लोककलाऐं

कुमाऊँ की लोककलाऐं, extincting kumaoni folkart,kumaoni culture,folk art of kumaon, kumaon ki lokkala,kumaoni culture

हमारी कुमाऊँ की विस्मृत होती लोककलाऐं

(आलेख: डा. नागेश कुमार शाह)

कुमाऊं में किसी भी मांगलिक कार्य के अवसर पर अपने-अपने घरों को लोक कलाओं से सजाने की परंपरा है । इसमें वह प्राकृतिक रंगो जैसे गेरू (लाल मिट्टी) एवं बिस्वार (पिसे हुए चावल के घोल) से विभिन्न आकृतियां बनाया करते हैं । दीपावली के अवसर पर कुमाऊं के घर-घर एपण से सज जाते हैं । घरों को आंगन से घर के मंदिर तक ऐपण देकर सजाया जाता है । लोक कला की इस स्थानीय शैली को ऐपण कहा जाता है । उत्तराखंड के कुमाऊं संभाग की प्रसिद्ध लोककलाएं अनेक रूप में दर्शायी जाती हैं जोकि प्रमुख रूप से ऐपण (धरातलीय चित्रकला), थापा (दीवालीय चित्रकला), पट्टा (कागज व वस्त्रीय चित्रकला), डिकर (मृदा कला) आदि हैं । कुमाऊँ में किसी भी मांगलिक कार्य के अवसर पर अपने घरों को ऐपण द्वारा सुशोभित करने की प्राचीन परंपरा है । ऐपण महिलाओं के द्वारा मांगलिक कार्यों में बनायी जाती है । ऐपण में आलेखित जियोमेट्रिक पैटर्न और अन्य आकृतियाँ विभिन्न धार्मिक मान्यताओं से प्रेरित हैं।

कुमाऊँ में ऐपण व भित्ति चित्रकला परम्परा शाह (साह)-चौधरी लोगों व ब्राह्मणों में अपने विकसित स्वरुप तथा सांस्कृतिक कार्यकलापों से जुड़ी हुई है। 

आधुनिकीकरण के नाम पर लोगों का शहरों में बसने से और संयुक्त परिवार के अभाव से इस पारंपरिक लोक कला तेजी से ह्रास हो रहा है । बहुत दुःख होता है यह जानकर कि उत्तराखंड के बाहर पल-बड़ रही अनेक युवा पीढ़ियों के बच्चे तो ऐपण शब्द से भी अनजान हैं।
 
जिन आलेखनों या चित्रों की रचना कागज में की जाती है उन्हें पट्टा कहते हैं।  इसमें गंगा दशहरा के द्वार पत्र, जन्माष्टमी का पट्टा, दशहरे का पट्टा, मांगलिक अवसर पर घर के मुख्य दरवाजों में लगे पत्र, ज्यूतमांत्र आदि आते हैं। ध्यान देने योग्य बात यह है कि नवरात्रि पूजन के दिनों में दशहरे का पट्टा केवल साह चौधरी लोग ही बनाते हैं।

ऐपण:
कुमाऊँ में ऐपण व भित्ति चित्रकला परम्परा शाह (साह)-चौधरी लोगों व ब्राह्मणों में अपने विकसित स्वरुप तथा सांस्कृतिक कार्यकलापों से जुड़ी हुई है । ऐपण कला में विवाह चौकी, लक्ष्मी चौकी, शिवचौकी सहित कई चौकियां व कई डिजाइन प्रसिद्ध हैं । शाह व ब्राह्मणों द्वारा बनाए गए ऐपणों में एक स्पष्ट अन्तर यह है कि ब्राह्मण गेरु से धरातल का आलेपन कर विस्वार से सीधे ऐपणों का आलेखन करते हैं परन्तु साह व चौधरी लोगों के वहाँ विस्वार में थोड़ी सी हल्दी डालकर उसे हल्का पीला अवश्य किया जाता हैं । उच्चकुलीन ब्राह्मणों में भी बिस्वार में हल्दी डाल दी जाती है और पीली आभा युक्त ऐपण बनाए जाते हैं । साहों में धरातलीय आलेखन ब्राह्मणों के समान ही होते हैं परन्तु इनमें भिप्ति चित्रों की रचना की ठोस परम्परा है।

दीपावली में बनाए जाने वाले ऐपण में मां लक्ष्मी के पैर घर के बाहर से अन्दर की ओर को गेरू लगे धरातल पर विस्वार से बनाए जाते है । दो पैरों के बीच के खाली स्थान पर गोल आकृति बनायी जाती है जो धन का प्रतीक माना जाता है । पूजा कक्ष में भी लक्ष्मी की चौकी बनाई जाती है । ऐपण में लहरों, फूल मालाओं, सितारों, बेल-बूटों व स्वास्तिक चिन्ह की आकृतियां भी बनाई जाती हैं । हालाकि अब पारंपरिक गेरू एवं बिस्वार से बनाए जाने वाले ऐपण की जगह सिंथेटिक रंगो से भी ऐपण बनाने लगे है । कंप्यूटर के प्रचलन के बाद तो अब इनके बने बनाएं स्टिकर्स भी बाजारों में उपलब्ध हैं पर ये सब हमारी पारंपरिक रूप से बनाई जाने वाली ऐपण का स्थान नहीं ले सकती हैं और न ही उन्हें रिप्लेस कर सकती हैं  । ये मैं इस कारण लिख रहा हूं कि जिन घरों में सिंथेटिक पेंट या स्टिकर्स आदि प्रयुक्त होते हैं वहां भी घर के कुछ स्थानों व द्याप्तथान में शकुन के लिए पारंपरिक ऐपण भी बनाए जाते हैं । हाथों से आलेखित ऐपण का कोई मुकाबला नहीं । हां आज के दौर में समय की कमी व अन्य व्यस्थताओं की वजह से लोग शार्ट कट रास्ता जरूर खोज लेते हैं पर उनमें वो रौनक व आभा का अभाव रहता है ।
साहों व ब्राह्मणों के ऐपणों व भित्ति चित्रों (लिख थाप या थापा) में अनेक प्रकार के प्रतीक व लाक्षणिक अन्तर दृष्टिगोचर होते हैं । 
नाता/थापा/लिख थाप (भित्ति चित्र) -  
थापा श्रेणी में चित्रांकन दीवालों होता है । साह-चौधरियों में थापा का निर्माण व मान्यता विशिष्ट है । ये भित्ति चित्र दो अवसरों पर बनाये जाते हैं । एक चैत (चैत्र) मास में व दूसरा असोज (अश्विन) के महीने में । नातों का रेखांकन केवल रस्या (भोजन कक्ष) में किया जाता है । थापा भी ऐपण का एक प्रकार है जो रस्या की दीवार पर गेरू की पृष्ठभूमि में बिस्वार से आलेखित किया जाता है । इनमें अंगुलियों की पोरों से लक्ष्मी-नारायण आकृतियां उकेरी जाती हैं जो पवित्रता, धन-धान्य के द्योतक हैं । थापों के मध्य में धान की बालियों के प्रतीक चिन्ह अंकित किए जाते हैं । यह दो प्रकार से बनाये जाते हैं (अ) अल्मोड़ा शैली (ब) बागेश्वर शैली।

साहों में धरातलीय आलेखन ब्राह्मणों के समान ही होते हैं परन्तु इनमें भिप्ति चित्रों की रचना की अनूठी परम्परा है जोकि दीवार में आलेखित किए जाते हैं जिन्हें थापा या लिख थापा भी कहा जाता है । थापा में चित्रांकन दीवालों में होता है पर यह शैली ब्राह्मणों में नहीं पाई जाती है । 

पट्टा:
जिन आलेखनों या चित्रों की रचना ड्राइंग शीट्स (कागज) में की जाती है उन्हें पट्टा कहते हैं । इसमें गंगा दशहरा के द्वार पत्र, जन्माष्टमी का पट्टा, दशहरे का पट्टा, मांगलिक अवसर पर घर के मुख्य दरवाजों में लगे पत्र, ज्यूतमांत्र आदि आते हैं । नवरात्रि पूजन के दिनों में दशहरे का पट्टा केवल साह लोग ही बनाते हैं।

साहों व ब्राह्मणों के ऐपणों में सबसे बड़ा अन्तर यह है कि ब्राह्मणों में चावल की पिष्ठि निर्मित घोल द्वारा धरातलीय अल्पना अनेक आलेखन प्रतीकों, कलात्मक डिजाइनों, बेलबूटों में प्रकट होती है । ऐपणों में एक स्पष्ट अन्तर यह है कि ब्राह्मण गेरु मिट्टी से धरातल का आलेपन कर चावल के आटे के घोल से सीधे ऐपणों का आलेखन करते हैं परन्तु साहों के यहाँ चावल की पिष्टि के घोल में हल्दी डालकर उसे हल्का पीला अवश्य किया जाता हैं तभी ऐपणों का आलेखन होता है।

कुसुमी पिछौडा:
रंगवाली पिछौड़ा उत्तराखंड के कुमाऊं संभाग का एक परम्परागत परिधान है जिसको कोई विशेष धार्मिक एवं सामाजिक उत्सव जैसे परिणय, यज्ञोपवीत, नामकरण संस्कार व तीज-त्यौहार आदि में ओढ़ा जाता है । यह परिधान कुमांऊ की परम्परा को जीवन्त बनाए हुए है और यह यहाँ की सांस्कृतिक पहचान के रूप में मजबूती से जुडा़ हुआ है । रंगवाली पिछौड़ा महिलाओं द्वारा ओढ़ना कुमाँऊनी परिणयोत्सवों में अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि ये शगुन के साथ-साथ वहाँ की विशिष्ट परम्पराओं का भी द्योतक होता है।

उम्र की सीमा से परे रंगवाली पिछौड़ा को कुमाऊं की हर एक महिला, चाहे वो नवयौवना हो या फिर बुज़ुर्ग, द्वारा विशिष्ट अवसर पर ओढ़ा जाता है । शादी-शुदा महिलाओं में इस परिधान का एक विशेष अभिप्राय होता है और यह उनकी सम्पन्नता, उर्वरता और पारिवारिक ख़ुशी का प्रतिरूपण करता है।

विवाहोत्सव में विवाहित स्रियों के लिए विशेष प्रकार की ओढ़नी जिसे कुसुमी पिछौड़ कहा जाता है सारे कुमाऊँ में प्रचलित है परन्तु इनके निर्माण व रंगों के संयोजन साह व ब्राह्मणों में विशिष्ठ है । साह व चौधरी लोगों के कुसुमी पिछौड़े अपने विशिष्ट रंगों व उनके संयोजन तथा साथ ही पिछोड़े के केंद्र स्थल निर्माण के कारण सर्वश्रेष्ठ समझे जाते हैं । ब्राह्मणों के कुसुमी पिछौड़े के आलेखन व रंग (आभा) तथा साहों के कुसुमी पिछौड़े के रंगों के प्रयोग तथा केन्द्र के आलेखन प्रबल लाक्षणिक अन्तर स्पष्ट करते हैं । अब तो मिल द्वारा रेडिमेड पिछौड़ी भी बाजार में मिलने लगी हैं । आजकल पिछौड़ा के बॉर्डर्स को अतिरिक्त साज़-सज्जा देने हेतू बेल-बूटेदार कपड़ों या फूलदार आकृति से अलंकृत किया जाता है साथ ही उनमें एक्सक्लूसिव लुक देने के लिए अतिरिक्त साज़-सज्जा जैसे ऊपरी भूषणों युक्त फूलदार आकृति, विभिन्न किस्मों की छँटाई, ज़री वर्क, मनके या सितारों आदि से भी विभूषित किया जाने लगा है । कुछ महिला इंटरप्रूनर (जैसे चम्फावत की श्रीमती मंजू टम्टा) इस क्षेत्र में बहुत अच्छा कार्य कर रही हैं और रंगवाली पिछौड़ा को एक वैश्विक पहचान देने में जुटी हैं । वर्तमान में रंगवाली पिछौड़ा के प्रतिरूप पॉवरलूम निर्मित या कहिये कि डुप्लीकेट ने मार्किट में अपनी घुसपैठ बनायीं हुई हैं । आजकल की तीव्र भागम-भाग वाली ज़िन्दगी में लोगों के पास समय की कमी के चलते विवशतः उन्हें इन रंगवाली पिछौड़ा के प्रतिरूप से ही काम चलाना पड़ रहा है । इस रंगवाली पिछौड़ा के प्रतिरूप से काम तो चल जाता है पर इससे वो निखार नही आता जो कि परम्परागत हस्त-निर्मित परिधान में दिखाई पड़ता है।

रंगवाली पिछौड़ा का प्रचलन सिर्फ और सिर्फ कुमाऊं में ही है और बाह्य लोग इससे अनभिज्ञ होते हैं हांलाकि बाहरी लोगों को यह विशिष्ट परिधान बहुत लुभाता और आकर्षित करता है।

पिछले दस एक वर्षों से बने बनाये ऐपण स्टिकर की उपलब्धता के कारण भी ऐपण को घरों में खुद बनाने के प्रचलन में पिछले कुछ वर्षों में काफी गिरावट आई है।

अगर यह सिलसिला जारी रहा तो वह दिन आ सकता है जब इस लोक कला की धरोहर, इससे जुड़ी भावनाएं और सांस्कृतिक मान्यताओं को आगे बढ़ाने के लिए कोई नहीं होगा।

इसलिए कुमाऊँ की इन शानदार विरासत और धार्मिक महत्व के शिल्प को सहेजने और पुनर्जीवित करने की जरूरत है।

अभी भी अनेक महिलाएं हैं जो कुमाऊँ के इस प्राचीन कला को बचाने के लिए समर्पित हैं और आवश्यक प्रयासों में लगी हुईं हैं।  हालाकि कुमाऊं से बाहर कुछ कलात्मक और रचनात्मक महिलाएं कुमाऊं की इन अमूल्य धरोहरों को जीवित रखने के लिए दृढ़ संकल्पित हैं।  ये सब हम सभी के लिए प्रेरणादायी है।

डा. नागेश कुमार शाह जी की फेसबुक पोस्ट से साभार

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ