
कुमाऊँ के परगने - कत्यूर परगना
(कुमाऊँ के परगने- चंद राजाओं के शासन काल में)"कुमाऊँ का इतिहास" लेखक-बद्रीदत्त पाण्डे के अनुसार
कत्यूर
इस परगने की सरहद इस प्रकार है- पूर्व में सरयू, पश्चिम में बारामंडल, दक्षिण में दानपुर तथा उत्तर में गढ़वाल व पाली पछाऊँ हैं।
पहाड़- पहाड़ इस में जगथाण का धुरा तथा गोपालकोट हैं।
नदियाँ- गोमती और गरुड़ गंगा हैं।
यहाँ पर कुछ जगह देश की तरह मैदान है। वहाँ गरमी व बरसात में ताप-ज्वरों (Malaria) की बीमारी फैलती है।
किले यहाँ पर गोपालकोट तथा रणचुला हैं। गोपालकोट (९०५०') में कत्यूरी-राजाओं का खज़ाना रहता था। चंदों के समय फौज रहती थी। अब तो गोपालकोट नाममात्र का किला है, इस समय यहाँ पर पहाड़ ही पहाड़ हैं। रणचुला अभी तक विद्यमान है। यह बड़ी सुन्दर जगह में है। यहाँ से मल्ला व बिचला कत्यूर का तथा सर्प की तरह घूमनेवाली गोमती नदी का दृश्य बड़ा ही मनोहर दिखाई देता है। यह रणचुला-किला नगर के ऊपर है। सूर्यवंशी कत्यूरी राजारों की राजधानी यहाँ थी। नाम उस नगर का कार्तिकेयपुर उर्फ करबीरपुर था, जो बिगड़ते-२ कत्यूर हो गया। टूटे हुए मकान व देव-मंदिर यहाँ बहुत हैं। राजा की ग्राम कचहरी का दृश्य भी टूटा-फूटा पड़ा है। अब इस शहर को तैलीहाट तथा शेलीहाट कहते हैं। इन दो हाटों के बीच में गोमती नदी बहती है। मंदिरों की कारीगरी देखने योग्य है और देवताओं की सूरतें भी एक से एक साफ़ सुथरी बनी हुई हैं। इसी शहर के सामने दक्षिण की तरफ़ को एक पक्का तालाब भी बना था, जो इन दिनों मिट्टी से दब गया है। प्राचीन नगर के पूर्व की तरफ़ गोमती के किनारे बैजनाथ नामक शिवमंदिर है। इसके आगे एक बड़ा कुंड है, जिसमें हरिद्वार के ब्रह्मकुंड की तरह मछलियाँ देखने में आती हैं।

कहते हैं कि पुराने ज़माने में जहाँ पर अब कत्यूरी लोग खेती करते हैं, चार मील से कुछ ज्यादा लंबा-चौड़ा तालाब था। वह तालाब टूट गया। तब से वहाँ पर खेती तथा आबादी हुई। अब भी गौर से देखने में आता है कि नीचे की ओर दो बड़े-बड़े पाषाण दोनों ओर खड़े हैं। इन्हीं के बीच के पत्थरों को तोड़कर संभव है, तालाब निकल पड़ा हो। इस तालाब के भीतर की ज़मीन गरम है। यहाँ भी पहले कहते हैं कि लोगों को देश-निकाले की सज़ा दी जाती थी। जो यहाँ आकर बसा, वह राजा का आसामी कहा जाता था। उसे फिर कोई और सज़ा न होती थी। इन्हीं लोगों से शुरू में यहाँ की ज़मीन आबाद कराई गई थी।
इस परगने में तीन पट्टियाँ हैं, जो अब मल्ला, तल्ला व बिचला कत्यूर के नाम से पुकारी जाती हैं।
बागीश्वर- बागीश्वर नाम का प्राचीन शिव मंदिर तल्ला कत्यूर में सरयू तथा गोमती के किनारे है। इसे कत्यूरी राजाओं ने बनवाया था। पुराने लोग तो कहते हैं, बागीश्वर 'स्वयंभू' देवता हैं, यानी स्वयं प्रकट हुए, किसी के स्थापित किये नहीं हैं। इस मन्दिर के दरवाजे में एक पत्थर रखा है, जिसमें ८ पुस्त तक की कत्यूरी राजाओं की वंशावली खुदी है। इस मन्दिर में जो जमीन चढ़ाई गयी है, उसकी वह सनद है। इसका सविस्तार वर्णन अन्यत्र किया गया है। कार्तिक पूर्णिमा, गंगा-दशहरा व शिवरात्रि को छोटे मेले तथा उत्तरायणी को बड़ा मेला लगता है। यहाँ पर अच्छा बाजार है। डाक बँगला है। मिडिल स्कूल है। उत्तरायणी को चारों ओर के लोग आते हैं। हुणियाँ (तिब्बती लामे या खंपे) जोहारी, शौके, दरम्याल, गढ़वाली, दनपुरिये, कुमय्ये, देशी सौदागर सब आते हैं। यहाँ पर ऊनी माल कम्बल चुटके, दन, पंखियाँ, पशमीने, चँवर, कस्तूरी, शिलाजीत, गजगाह, निरबीसी नमक, सुहागा, कपड़ा, जंबू, गंद्रायनी, मेवे, पान, सुपारी आदि-आदि की तिजारत होती है। प्रायः सब सामान हमेशा मिलता है। गरमी में लोग कम रहते हैं। इधर-उधर चले जाते है। यहाँ से नौ मील पर कांडा भी उत्तम स्थान है। यहाँ भी मिडिल स्कूल है।

कुली-उतार-आन्दोलन
बागीश्वर धार्मिक ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय तथा स्वराज्य-आंदोलन का भी केन्द्र सन् १९२१ से रहा है। सन् १९२१ में ब्राहाण क्लब चामी के बुलावे से राष्ट्रीय नेता श्री हरगोबिन्द पन्त, लाला चिरंजीलाल तथा राष्ट्रीय सेवक श्री बदरीदत्त पांडे प्रभृति सजन बागीश्वर पहुँचे। वहाँ एक लाल टूल में ये शब्द लिखे थे- "कुली-उतार बंद करो।" राष्टीय नेताओं ने तमाम में नगर-कीर्तन किया। लोगों को बातें समझाई। कुमाऊँ के प्रायः सब लोगों को नौकरशाही सरकार ने कुली बना रखा था। वे मनमाने दामा पर बोझ ले जाने को बाध्य थे। मना करने पर दंडित होते थे। सरकारी कर्मचारी उन्हें तंग करते थे।
वहाँ ४०,००० लोगो ने नेताओं के कहने से सत्याग्रह किया। गंगाजल उठाकर प्रतिज्ञा की कि अब वे कुली कहलावेंगे, न जबरदस्ती बोझ ले जायेंगे। २१ अँगरेज़ अफ़सर थे, जिनके नेता डिप्टी कमिश्नर वहाँ थे। कुछ पुलिस भी थी। नेताओं को सरकार गिरफ्तार करना चाहती थी। कहते हैं, गोली चलाने की भी बात थी, पर फोजी अफसरों ने लोगो के ऐक्य तथा साहस को देखकर तथा अपने पास गोली-बारूद कम देख जिलाधीश को ऐसा करने से मना किया। जिलाधीश ने नेताओं को गिरफ्तार करने धमकी दी, पर नेता दृढ़ रहे, और लोग भी अटल रहे। वो कुप्रथा तीन दिन के सत्याग्रह में दूर हो गई। कोई भी उपद्रव नहीं हुआ। सब काम शांति-पूर्वक हो गया। तमाम देश चैतन्य हो गया। नौकरशाही लाख प्रयत्न करके हार गई। अन्त में सबल लोकमत के सामने उसे झुकना पड़ा। सत्याग्रह का ऐसा सफलीभूत उदाहरण संसार के इतिहास में हो कहीं मिलेगा। वह दृश्य देवताओं के देखने योग्य था।
इसी की बधाई देने को सन् १६२६ में महात्मा गांधी बागीश्वर गये, और वहाँ देशभक्त मोहन जोशी द्वारा संस्थापित स्वराज्य-मंदिर की नींव डाली। पश्चात् आप लगभग १५ दिन तक कत्यूर व बौरारौ के बीच कौसानी के डाक-बँगले में रहे।
सन् १९२१ के बाद बागीश्वर में कुछ-न-कुछ राष्ट्रीय आन्दोलन होता रहा है। श्रो मोहन जोशीजी के उद्योग से सन् १९३३ में एक जबरदस्त स्वदेशी-प्रदर्शनी हुई।
खांने- जगथाण गाँव के निकट लोहे की खान है। गौल पालड़ी व खरही में ताँबे की भी खाने हैं।
कत्यूर में, राजधानी के अंत होने के बहुत दिनों बाद तक, कहते हैं, पुराने समय का गड़ा हुआ धन व बर्तन यत्र-तत्र मिलते थे। इसी कारण लोग नौले, चबूतरे तथा पुराने खंडहरों को खोदते थे। अब ये मंदिर सुरक्षित हैं। सब से पुराने कुमाऊँ के सूर्यवंशी खानदान के कत्यूरी राजा यहीं राज्य करते थे। यह भी कहा जाता है कि उनका राज्य-विस्तार खस, हूण, किरात, बंग, द्रविड़ आदि देशों में भी था। पश्चिम में कत्यूरी राजाओं की राज्य-सीमा कोट कांगड़े तक, पूर्व में सिक्खिम तक और दक्षिण में रोहिलखंड तक थी। यह बात अँगरेज़ी लेखकों ने भी स्वीकार की है।
यहाँ पर किसी चोटी का नाम चित्तौरगढ भी बताया जाता है। वहाँ पर उस देश के राजाओं के प्रतिनिधि महल बनाकर रहते थे। राजधानी का नाम कार्तिकेयपुर था।

गरुड़ गंगा के किनारे टीट में एक बदरीनाथ का मंदिर है। गरुड़, टीट, बैजनाथ तथा डंडोली में छोटी बस्तियां हैं। गरुड़ के पास की नै बस्ती में गांधीजी को मानपत्र दिया गया था। यहाँ से गढ़वाल तथा बागीश्वर को रास्ता जाता है। गरुड़ एक मोटर भी जाती है।
श्रोत: "कुमाऊँ का इतिहास" लेखक-बद्रीदत्त पाण्डे,अल्मोड़ा बुक डिपो, अल्मोड़ा, ईमेल - almorabookdepot@gmail.com
वेबसाइट - www.almorabookdepot.com
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