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बातें पहाड की - आशीर्वाद और बधाई

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बातें पहाड की - आशीर्वाद और बधाई

लेखक: विनोद पन्त 'खन्तोली'

पहाडों में धन्यवाद जैसा कोई शब्द नही होता था। किसी ने एहसान या मदद कर दी तो उसके बदले कहा जाता है- तुमर भल हैजौ, तुमर नानतिन बची रून, तुमार खुटन कान् ले झन बुडो।  अगर एहसान ज्यादा ही हुवा तो कहेगे- तुमरि एकै एकैस पांचै पंचैस हैजौ, जै जै कारी हैजौ।  बाद में जब धन्यवाद शब्द चला तो शुरु में लोग मजाक में कहते- हैगोय यो धणियोंपात रूण दिओ, के बात नि भै।

अब बात करते हैं मिठाई की, मिठाई का मतलब गुड होता था। लोग कहा करते थे, पास हैगो बल तुमर च्योल, गूड खिलाओ! यहां भी जवाब में धन्यवाद नही कहा जाता था, कहते- होय हैगो पें तुमार आशीर्वादैलि, घर आया एक आंगू पिठ्या लगै ल्हिजाया और गूड ले खै जाया। हर खुशी के मौके पर गुड बाटा जाता था और बधाई देने आये ब्यक्ति या महिला को पिठ्या (टीका ) भी लगाया जाता। कई बार अगर दोपहर या शाम को लोग बधाई देने किसी के घर जाते तो वहां पिठ्या लगता। तो वापस जाने पर रास्ते में लोग पूछते कि- कि बात बड चर-बर पिठ्या लगै राखौ। चर बर मतलब लम्बा चौडा गहरा, वह बताता, अरे फलाने का नाती हुवा है, वहां गया था।

इससे एक बात और होती कि लोगों को धीरे धीरे ये खुशखबरी मिल जाती। लोग अपने आप बधाई देने निकल पडते, बधाई देने को "भलि भट्यूण" कहते थे। बधाई भी प्रचलन में नही था, बधाई के लिए प्रयुक्त होता - भल भै तुमर नाति हैगो, भल भै तुमर च्योल पास हैगो, भल भै तुमर च्योल क ब्या ठरी गो। जवाब वही होता.., होय यो सब तुम लोगनक आशीर्वाद छ। कल्पना कीजिए बधाई है, धन्यवाद की जगह जब इन आत्मीयता वाले शब्दों का प्रयोग होता होगा तो कितना सुख कितने अपनेपन का अहसास होता होगा।

किसी के पास होने पर, लडका-लडकी होने पर, बच्चो की शादी तय होने पर, शादी हो जाने पर, नौकरी लगने पर, जनेऊ होने पर, किसी का लापता सदस्य पुन: घर वापसी पर भलि भट्याने का प्रचलन था। वो भी उसके घर जाकर इसके लिए कुछ अच्छे वार तय थे, शनिवार, मंगल भलि भट्याने के लिए वर्जित थे। घर वाले भी अनुमान लगाते कि आज मंगल है कोई नही आएगा फलां काम निपटा लो या आज भल वार छ, मैंस भल भट्यूण आल आज घरै रया। सब लोग साथ में जब भल भट्याने आते तो चाय की केतली पूरे दिन के लिए रौन पर चढ जाती। घर के सारे सदस्य आवभगत में लग जाते, महिलाऐ भीतर चाय पानी पीती, बडे बुजुर्ग आये होते तो उनके लिए ह्वाक चिलम में तम्बाकू कोयले सज जाते..। मुझे याद है कि मेरा बेटा शनिवार की रात को पेदा हुवा था अगले दिन रविवार को हमारे यहां बधाई देने वालों का ताता लग गया और ईजा ईतनी व्यस्त हो गयी कि पूरे दिन खाना नही खा पाई।

एक बात और होती जिसके यहां परिवार छोटा हो महिला एक ही हो तो वहां पर भल भट्याने आई महिलाए मदद भी करती थी। जैसे चाय बना देना, प्रसूता के लिए कुछ पका देना, गायों को पानी देना। क्योकि घर की गृहणी तो मेहमानो को पो-पिठ्या लगाने, गूड बाटने में ही लगी रह जाती। यहीं पर अगर किसी के घर बाल बत्चा हुवा हो तो घर की मुखिया गृहणी भलि भट्याने आई महिलाओँ को शाम को आकर गीत गाकर जाने का न्योता भी दे देती व यहीं पर दुण-आँचव के कुछ पैसे और एक कागज की पुडिया में घर के लिए गुड दे दिया जाता। बडे बुजुर्ग जवान लोग चर्चा करते, नामकरण में कदु आदिम खवाला, हमार हात क काम बताया, क्वे नानतिनै हात ले जवाब भेज दिया। उसके हम बीच बीच में आते रूल, आज की तरह नही होता कि पार्टी कब दे रबे हो, शाम को कहां मिलोगे, तब ये चीजे निषेध थी।

तब एक परम्परा और थी, किसी कन्या के जन्म के बाद लडका हो गया तो उसकी लडकी को शकुन्नी समझा जाता और उसकी पीठ पर गुड की भेली फोडी जाती। यदि परिवार में बार दिनी बिरादरी में नजदीकी रिश्तेदारी में, एकसाथ दो बच्चे नामकरण की अवधि तक भी हो गये तो उन बच्चों को औ-छौ कहा जाता था। बाद में एक छोटा सा प्रोह्राम करके उनके कपडे धागुले वगैरह आपस में बदले जाते और इस कार्यक्रम को औ-छौ बाटना कहा जाता था। यह कुछ कुछ दो समधनों के समद्योड कार्यक्रम जैसा ही समझिये।

मुझे तो लगता है कि हमारे बुजुर्गों ने जिस प्रकार ये रीति-रिवाज बनाये होगे उनका मकसद यही रहा होगा कि लोगों की आपस में आत्मीयता बढे, एक दूसरे के मदद की भावमा आये और सभी एक दूसरे की खुशियों को अपना समझकर साझा करें। आज के व्यस्त समय में कुछ कोशिश कर हम इन परम्पराओ को जीवित रख सकें तो क्या ही अच्छा हो।  आजकल तो हम यह कहकर पल्ला झाड लेते हैं कि फलां ने मुझे बताया थोडी, मुझे बुलाया ही नही.., मैं क्यों जाऊ.. या रास्ते में मिला था बधाई दे तो दी।

विनोद पन्त' खन्तोली ' (हरिद्वार), 02-09-2021
M-9411371839
विनोद पंत 'खन्तोली' जी के  फ़ेसबुक वॉल से साभार
फोटो सोर्स: गूगल 

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