कुमाऊँ में कत्यूरी शासन-काल - 17
पं. बदरीदत्त पांडे जी के "कुमाऊँ का इतिहास" पर आधारितवर्तमान में कुमाऊँ का जो इतिहास उपलब्ध है उसके अनुसार ऐसा माना जाता है कि ब्रिटिश राज से पहले कुछ वर्षों (१७९० से १८१७) तक कुमाऊँ में गोरखों का शासन रहा जिसका नेतृत्व गोरखा सेनापति अमर सिंह थापा ने किया था और वह पश्चिम हिमाचल के कांगड़ा तक पहुँच गया था। गोरखा राज से पहले चंद राजाओं का शासन रहा। अब तक जो प्रमाण मिलते हैं उनके अनुसार कुमाऊं में सबसे पहले कत्यूरी शासकों का शासन माना जाता है। पं. बदरीदत्त पांडे जी ने कुमाऊँ में कत्यूरी शासन-काल ईसा के २५०० वर्ष पूर्व से ७०० ई. तक माना है।
वर्तमान समय में कत्युरी साम्राज्य के बारे प्रामाणिक जानकारी नही है, क्योंकि उनका राज्य विभिन्न शाखाओं में विभाजित होकर धीरे-धीरे समाप्त हो गया। जिस सम्बन्ध में पं. बदरीदत्त पांडे जी ने लिखा है कि यदि कत्युरी-वंश का राज्य बराबर चलता रहता, तो उसके वंशज राजाओं का पूरा-पूरा पता चल जाता, किन्तु उनका साम्राज्य खंड राज्यों में विभाजित हो गया।
आगे पांडे जी लिखते हैं कि बाद के राजाओं के प्रत्येक खानदान के वंशजो ने अपने कुटुम्ब के मूल-पुरुष से पुश्तनामा बना लिया। इसी कारण नामों का सिलसिला ठीक नहीं मिलता। खास कत्युरी समाटों की मूल शाखा में से इस समय कोई नहीं। उन राजाओं में से कहते हैं कि एक ने कहा था कि वह अपनी संतान को कलियुग में नहीं रहने देंगे। ऐसा ही हुआ। मूल शाखा छिन्न-भिन्न हो गई, यद्यपि शाखा, विशाखा व प्रशाखाएँ विद्यमान हैं।
पं. बदरीदत्त पांडे जी ने "कुमाऊँ का इतिहास" में लिखा है कि कत्युरियों की ४ वंशावलियों में जो उन्होने दी हैं, उन वंशावलियों में यह आश्चर्य की बात है कि कत्युरी वंश के उन आठ प्रतापी तथा चक्रवर्ती समाटों का ज़िक्र कहीं भी नहीं पाया, जिनके राज्य का विस्तार दूर-दूर था और जिनके ताम्रपत्रों से उनके तेज, राजलक्ष्मी, विद्वत्ता तथा धर्मपरायणता का पता चलता है। लेकिन इसमें संदेह नहीं कि अस्कोट, डोटी तथा पाली-पछाऊँ के पाल, साही तथा मनुराल व रजबार सब कत्यूरी खानदान के हैं । २०० वर्ष से ज्यादा हो जाने के बाद भी चंद राजाओं ने इनको पुराने कत्यूरी खानदान का माना। ऐसा भी कहा जा सकता है कि चंदों ने न तो इनको निकाला, न इनका विनाश किया।
जिस बारे में पांडे जी लिखते हैं कि इसका कारण यह बताया जाता है कि उनका अभिप्राय यह था कि इनसे परिवारिक सम्बन्ध बनाये जायें और इनके वंश की कन्याओं से पाणिग्रहण करें। पर चंदों ने इन सबकी लड़कियाँ तो ब्याही, पर अपनी लड़कियाँ इनको नहीं दीं। चंद वंश के लोग अपनी लड़कियों की शादियाँ अलीगढ़, नेपाल, अनूपशहर, बरेली, कठेरा, अवध आदि स्थानों में करते थे। कत्यरी राजाओं के वंशज डोटी, जुमला आदि स्थानों के वैश्य ठाकुर राजाओं की कन्याओं को ब्याहते थे। अस्कोट के रजबार भी न पालियों के साथ भी विवाह करते हैं, किन्तु अठकिन्सन साहब कहते हैं-"पाली के मनुराल धनी खस राजपूतों के साथ भी संबंध करने लगे हैं।" पाली के मनुरालों के अलावा दुग के कालाकोटी वर्ग के राजपूत भी अपने को कत्यूरी खानदान का बताते हैं।
कत्यूरियों के अवसान तथा चंदों के आगमन के समय कुमाऊँ-राज्य छोटे-छोटे राज्यों में बँटा हुआ था। कत्यूरी खानदान के इन छोटे-छोटे राजाओं के अतिरिक्त फल्दाकोट तथा धनियाँकोट एक खाती राजपूत के अधिकार में थे, जो अपने को सूर्यवंशी कहते थे। चौगर्खा पड्यार राजा के अधिकार में था, जिसकी राजधानी पड्यारकोट में थी। गंगोली परगने में मणकोटी राजा थे। यह नेपाल में पिउठण से आये थे और अपने को चंद्रवंशी राजपूत कहते थे। फिर चंदों से हारकर ७-८ पुश्त राज्य कर वहीं को चले गये, जहाँ उनके वंशज अब तक विद्यमान हैं। कोटा, छखाता व कुटौली खस राजाओं के अधिकार में आ गये। सोर, सीरा, दारमा, अस्कोट, जोहार, सब डोटी-सामाज्य में शामिल किये गये।
जब कुमाऊँ से सूर्यवंशी समाटों का भाग्य-सूर्य छिप गया, और ठौर-ठौर में छोटे-छोटे मांडलिक राजा हो गये, तो लोगों ने कहा कि कुमाऊँ का सूर्य छिप गया है। सारे कुमाऊँ में रात्रि हो गई है। पर चंदों के आने पर लोग कहने लगे कि कुमाऊँ में रात्रि हो गई थी, क्योंकि सूर्य छिप गया था, पर इतना अच्छा हुश्रा कि अब चाँदनी हो गई यानी चंद्रवंशी राजा आ गये। अंधकारमय धरती में फिर से उजियाला हो गया।
१७. पं० रामदत्त त्रिपाठीजी का वर्णन
पं. बदरीदत्त पांडे जी आगे लिखते हैं कि उपर्युक्त वर्णन लिखने के बाद हमको पं० रामदत्त त्रिपाठी द्वाराहाट की बनाई एक छोटी पुस्तिका मिली। उसकी बातें सूक्ष्म में यहाँ पर हम अपनी भाषा में उद्धृत करते हैं:-
- विक्रम संवत् से १३० वर्ष पूर्व यहाँ पर धर्मराज युधिष्ठिर के संवत् २६१४ के लगभग (विक्रम संवत् से पूर्व ३०४४ वर्ष तक धर्मराज का संवत् भारत में प्रचलित था) कूर्माचल में जट्र व जाट जाति के लोग राज्य करते थे। इनकी सन्तान अब बोहरा या बोरा कोई-कोई विष्ट भी कहे जाते हैं।
- पुराकालीन संवत् २९१४-२९५० के बीच यहाँ पर भारद्वाज गोत्रीय क्षत्रिय दाणू कुमेरसेन का राज्य था। इनकी राजधानी कोटलगढ़ और टंकणापुर में थी। अन्यत्र खैरागढ़, पिठौरागढ़, नानकमता आदि स्थानों में भी छावनी, कोतवाली, तहसील आदि थीं।
- परगना दानपुर में इसी कुमेरसेन को दाणू देवता के रूप में पूजते हैं। उसमें नवान्न व नई ब्याई हुई गौ महिषी का दूध चढ़ाकर तब आप काम में लाते हैं।
- इस राजा की आमदनी एक लाख रुपये की थी। अन्न का भाव रुपये का ढाई मन था।
- राजा ने अपना महल गोमती के किनारे वहाँ पर बनवाया, जहाँ आज कल सरकारी अस्पताल है। इनको शिकार का शौक था। इसीसे ८१ वर्ष की अवस्था में इनकी मृत्यु २९५० संवत् (धर्मराज) में दानपुर में हुई।
- उनके उत्तराधिकारी रणजीतसिंह उर्फ रणधीरसिंह हुए। उन्होंने बैद्यनाथ के ऊपर रणचूलाकोट में नगर व महल बनवाया।
- संवत् ३००० वर्ष पूर्व सूर्यवंशीय क्षत्रिय समाट वासुदेव की संतान राजा श्रासन्तिदेव ने ५०० पदाति तथा १० अश्वारोही सेना लेकर रणचूलाकोट पर चढ़ाई की। नरसिंह देवता के शाप के अनुसार वह जोशीमठ से कत्यूर को आये।
- इधर राजा रणधीरसिंह को स्वप्न हुआ कि उनका बैरी पश्चिम से आ रहा है। उसके आने पर राजा रणधीरसिंह ने कहा कि वह राक्षसयुद्ध, कुक्करयुद्ध अथवा कपटयुद्ध नहीं करना चाहते। वह मल्लयुद्ध-नामक धर्मयुद्ध करेंगे, ताकि रिआया को दुःख न हो, और दोनों की हार-जीत पर राज्य का फैसला हो।
ईमेल - almorabookdepot@gmail.com, वेबसाइट - www.almorabookdepot.com
0 टिप्पणियाँ