उत्तराखण्ड की पहचान कुमाऊँनी गीत - बेड़ू पाको बार मासा
(यह कुमाऊँ से सम्बन्धित सबसे पुराने ब्लॉग्स में से एक Kumauni Culture पर सबसे पहली पोस्ट है)
वर्तमान में इस गीत को उत्तराखंड राज्य के प्रतिनिधि लोकगीत के रूप में जाना जाता है तथा भाषा की सीमा से परे इसके बोल उत्तराखंड के बाहर के लोगों को भी उत्तराखंड की पहचान कराते हैं। अगर कही पर भी उत्तराखंड की संस्कृति और संगीत का कार्यक्रम होगा तो ऐसा हो ही नहीं सकता की इस गीत के बोल आपको नहीं सुनाई दें।
नरैण! काफल पाको चैत, मेरी छैला–(२)
रुण-भुण दीन आया–(२)
नरैण! पूजौ मेरो मैत, मेरी छैला–(२)
अल्मोड़े की नन्दा देवी–(२),
नरैण! फूल चड़ोनी पाती, मेरी छैला–(२)
बेड़ू पाको, बारो मासा–(२),
काफल पाको चैत, मेरी छैला–(२)
बेड़ू पाको, बारो मासा–(२),
नरैण! काफल पाको चैत, मेरी छैला–(२)
नैनीतालै की नन्दा देवी–(२),
नरैण! फूल चड़ोनी पाती, मेरी छैला–(२)
बेड़ू पाको, बारो मासा–(२),
नरैण! काफल पाको चैत, मेरी छैला–(२)
तेरी खूटी को काना बूड़ो–(२)
नरैण! मेरी खूटी की पीड़ा, मेरी छैला
नरैण! मेरी खूटी में पीड़ा, मेरी छैला
बेड़ू पाको, बारो मासा–(२),
नरैण! काफल पाको चैत, मेरी छैला–(२)
अल्मोड़े की लाल बजारा–(२),
नरैण! पाथरै की सीढ़ी, मेरी छैला–(२)
आपूं खानी, पान सुपारी–(२)
नरैण! मैंको दिनी बीड़ी, मेरी छैला–(२)
बेड़ू पाको, बारो मासा–(२),
नरैण! काफल पाको चैत, मेरी छैला–(२)
श्री बृजेन्द्र लाल साहा
यो तनरो गीता, मेरी छैला–(२)
बेड़ू पाको, बारो मासा–(२),
नरैण! काफल पाको चैत, मेरी छैला–(२)
इस गीत के प्रारम्भिक बोलों का शाब्दिक अर्थ है कि बेड़ू फल बार मास (वर्जित माह अर्थात सावन भादो) में पकता है और काफल (एक पहाड़ी फल) चैत्र माह में पकता है। चैत्र माह में मौसम सुहावना हो जाता है और इस माह में नववधुएं अपने मायके में रहती हैं तो नायिका कह रही है की सुहावने मौसम में मुझे मेरे मायके छोड़ दो।
यह गीत श्री बिजेंद्र लाल साह जी द्वारा १९५२ में रचित माना जाता है। माना जाता है हम इसलिए कह रहे हैं क्योंकि हमारी जानकारी के अनुसार जो हमने कुमाऊँ के पुराने बुजुर्गों से प्राप्त की है, यह एक पारम्परिक लोकगीत है तथा १९५२ से पूर्व में भी प्रचलन में था। लगता है की स्व. साह जी द्वारा इसे संकलित कर लिपिबद्ध किया गया है तथा स्व. साह जी एवं स्व. मोहन उप्रेती जी द्वारा पर्वतीय कला केंद्र के माध्यम से इसे देश विदेश में प्रचारित किया गया। आज भी यह गीत मानक रूप में आपको नहीं मिलेगा तथा पारम्परिक रूप से सुनने पर आपको इसके कई रूप/वर्जन देखने को मिल जाते हैं। वैसे इस विषय में हम कोई विवाद उत्पन्न नहीं करना चाहते और ना ही इससे श्री बिजेंद्र लाल साह जी के कुमाऊँनी संस्कृति, साहित्य और कला में योगदान की किसी भी तरह से धूमिल करने का प्रयास है।
बिजेंद्र लाल साह जी और मोहन उप्रेती जी
मित्रो कृपया सुने उत्तराखण्ड राज्य की पहचान बन चुके कुमाऊनी गीत को स्व. गोपाल बाबू गोस्वामी जी के स्वर में :-
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