
शेरदा की कविता "को छै तू?"
शेरदा की एक बहुत ही लोकप्रिय और शायद उनकी अपनी भी सबसे ज्यादा प्रिय रचना है, "को छै तू?"। यह रचना साहित्यिक दृष्टि से भी कुमाऊनी भाषा की बहुत ही उत्तम रचना मानी जानी चाहिये। इस रचना को पढ़कर तो शायद कोई भी यह विश्वास नहीं कर सकता कि शेरदा कभी विद्यालय तक नहीं गये। श्रगार रस की ऎसी कोई दूसरी रचना कुमाऊँनी भाषा में आपको शायद ही पढ़ने को मिले। कुमाऊँनी भाषा में एक कविता के माध्यम से उपमाऒं का ऎसा प्रभावी प्रयोग तो हिन्दी के धुरंधर कवियों की भी किसी एक ही रचना में मिलना लगभग असम्भव प्रतीत होता है:-
को छै तू?
भुर-भुर उज्याव जसि, जानि रतै ब्याण
भिकुवे सिकड़ी कसि, उडी जै निसाण
खित करनै हंसण, और झऊ करनै चाण
क्वाठन कुत्काई जै लगुं, मुखौक बुलाण
मिसिरि है मिठि लागिं, क्ये कार्तिकि मौ छे तू
पूषैकि पाल्युंग जसि, ओ खड़्यूनि को छै तू
दै जसि गोरि उजई, और बिगौत जै चिटि
हिसाऊ किल्मोड़ि कसि, मणि खट्ट मीठि
आँखै कि तारि कसि, आँख में रै रीटि
ऊ देई फुलदेई है जैं, जो देई तू हिटि
हातै पातै हरै जैं छै, क्ये रूड़ि द्यो छै तू
सूर सूरि बयाल जसि, ओ च्यापणि को छै तू
जांलै छै तू देखिं छै, फ़ांग फूल पात में
और नौणि जै बिलै रै छि, म्यर दिन रात में
को फूल अंग्वाव हालूं, रंग जै सबुं में छै
न तू क्वे न मैं क्वे, मैं तू में तू मैं में छै
तारुं जै अन्वार हसैं, धार पार जो छै तू
ब्योलि जै डोलि भितेर, ओ रूपसि को छै तू
उतककै चौमास देखि छै तू, उतकै रूड़
सुनुकि साबवि देखि छै तू, उतकै स्यूड़
कभिं हर्याव चढ़ि, और कभिं पूजिं च्यूड़
गदुवौक झाल भितेर, ओ ईजा तू काकड़ि फूल्यूड़
भ्यार बै अनारै दाणि, और भितेर बै स्यो छै तू
नौ रत्ति बावन त्वालैकि, ओ दाब्णी को छै तू
ब्यूंज में क्वाठम रैं छै, और स्वीणा में सिराण
नरै लगै भेलि लगै, मन में दिशाण
शरीराक माटैक म्यर, त्वी छै तराण
जाणि को जुग बटि, जुग जुगै कि पछ्याण
साँसों में कुत्कनै हैं, अरे सामणि जै क्ये छै तू
मायादार माया जसि, ओ हंसणी को छै तू
भिकुवे सिकड़ी कसि, उडी जै निसाण
खित करनै हंसण, और झऊ करनै चाण
क्वाठन कुत्काई जै लगुं, मुखौक बुलाण
मिसिरि है मिठि लागिं, क्ये कार्तिकि मौ छे तू
पूषैकि पाल्युंग जसि, ओ खड़्यूनि को छै तू
दै जसि गोरि उजई, और बिगौत जै चिटि
हिसाऊ किल्मोड़ि कसि, मणि खट्ट मीठि
आँखै कि तारि कसि, आँख में रै रीटि
ऊ देई फुलदेई है जैं, जो देई तू हिटि
हातै पातै हरै जैं छै, क्ये रूड़ि द्यो छै तू
सूर सूरि बयाल जसि, ओ च्यापणि को छै तू
जांलै छै तू देखिं छै, फ़ांग फूल पात में
और नौणि जै बिलै रै छि, म्यर दिन रात में
को फूल अंग्वाव हालूं, रंग जै सबुं में छै
न तू क्वे न मैं क्वे, मैं तू में तू मैं में छै
तारुं जै अन्वार हसैं, धार पार जो छै तू
ब्योलि जै डोलि भितेर, ओ रूपसि को छै तू
उतककै चौमास देखि छै तू, उतकै रूड़
सुनुकि साबवि देखि छै तू, उतकै स्यूड़
कभिं हर्याव चढ़ि, और कभिं पूजिं च्यूड़
गदुवौक झाल भितेर, ओ ईजा तू काकड़ि फूल्यूड़
भ्यार बै अनारै दाणि, और भितेर बै स्यो छै तू
नौ रत्ति बावन त्वालैकि, ओ दाब्णी को छै तू
ब्यूंज में क्वाठम रैं छै, और स्वीणा में सिराण
नरै लगै भेलि लगै, मन में दिशाण
शरीराक माटैक म्यर, त्वी छै तराण
जाणि को जुग बटि, जुग जुगै कि पछ्याण
साँसों में कुत्कनै हैं, अरे सामणि जै क्ये छै तू
मायादार माया जसि, ओ हंसणी को छै तू
शेरदा अनपढ़ के काव्य की विशेषता समाज से जुड़े विषयों पर उसी की भाषा के माध्यम से सरल हास्य और व्यंग्य उत्पन्न करअना है। समाज की असमानताओं पर व्यंग्य करती उनकी एक बहुत ही सुन्दर कविता है जिसे प्रो. शेर सिंह बिष्ट जी ने शेरदा अनपढ़ संचयन में संकलित किया है, जिसका शीर्षक है "तुम और हम":-
तुम और हम
तुम भया ग्वाव गुसैं,
हम भयां, निगाव गुसैं।
तुम सुख में लोटि रया,
हम दुःख में पोति रया।
तुम हरि काकड़ जस।
हम सुकि लाकड़ जस!
तुम आज़ाद छोड़ि जत्ती(भैसा) जस,
हम गोठ्याई बाकर जस।
तुम स्वर्ग हम नरक,
धरती में धरती असमानौक फरक।
तुमार थाईन सुनुक रुवाट,
हमारि थाईन टुवाटै टुवाट।
तुम धौकवे चार खुश,
हमरि जिबई भितेर मुस।
तुम तड़क भड़क में,
हम बीच सड़क में।
तुम सिंहासन भै रया,
हम घर घाट, हैं भै लै रया।
तुम भया ग्वाव गुसैं,
हम भयां, निगाव गुसैं।
तुम सुख में लोटि रया,
हम दुःख में पोति रया।
तुम हरि काकड़ जस।
हम सुकि लाकड़ जस!
तुम आज़ाद छोड़ि जत्ती(भैसा) जस,
हम गोठ्याई बाकर जस।
तुम स्वर्ग हम नरक,
धरती में धरती असमानौक फरक।
तुमार थाईन सुनुक रुवाट,
हमारि थाईन टुवाटै टुवाट।
तुम धौकवे चार खुश,
हमरि जिबई भितेर मुस।
तुम तड़क भड़क में,
हम बीच सड़क में।
तुम सिंहासन भै रया,
हम घर घाट, हैं भै लै रया।
शेरदा ‘अनपढ़’ के कवि जीवन और रचनाओं के बारे में हम आगे के भागों में भी पढ़ते और जानते रहेंगे।
(पिछला भाग-४) ...................................................................................................................(कृमश: भाग-६)
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