
राजुला मालूशाही-भाग १
लोकधुनों पर आधारित कुमाऊँ की अमर प्रेम कथा।।प्रस्तुतकर्ता: कैलाश सिंह चिलवाल
राजुला मालूशाही की अमर प्रेम कथा जिसको स्वर्गीय गोपाल बाबू गोस्वामी जी ने अपनी लोकधुनों में पिरोकर हम और हमारी आगामी पीढ़ियो के लिए संजोया है।
मैने उनकी कैसेट सुनी थी और बचपन में मेरी ईजा ने भी ये कथा मुझे अनगिनत बार सुनाई थी।
आप लोगो के साथ इस 'विरासत' को शेयर करने का एक छोटा सा प्रयास है, सभी एडमिन सैपो से आज्ञा लेना चाहता हूँ और पहले ही माफीनामा भी लिख रहा हूँ " मैं कोई सिद्धहस्त लेखक नही हूँ, एक स॔सकृति प्रेमी की हैसियत से जितना मुझे पता है, उतना आप तक शेयर कर रहा हूँ"।।
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भाई-बैड़ियो, दिदी-भूलियों जरा लगाया ध्यान,
कथा सूणूनो आज तमूकै, भली'क लगाया कान।
उत्तराच॔ल य देवभूमि में सूर्यव॔श का राजा,
आई कूनी अयोध्या बै पैलिक जोशीमठा,
फिर यो तैलीहाट गरूण में अंत समय बैराठा।।
लखनपूर में किला बनायो र॔गीली गिवाणा,
कन्नरपूर में पैदा भैई,
तब राजा मालूसाई ( मालूशाही)।।
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चाँचरी--
सुफल फलिया हो--ओ-ओ<
भूमी का भूमिया देबो,
तुम छाया करिया,
नौ लाख कत्यूरिया देबो---ओ
मैं तुमैरी सरणा -ओ,
न्याय करिया ---देबो--ओ--ओ।।
जैकारा-जैकारा देबो तुम्हार दरवारा,
माँता जियाराणी देबो, नौ लाख कत्यूरा
जैकारा जैकारा देबो तुम्हरी बैराठा,
जैकारा-जैकारा देबो रंगीली गिवाणा--आ--आ।।
(राजा मालूशाही के पिता का नाम राजा पृथ्वीपाल था, नौ लाख कत्यूरी उनके सैनिक थे, बैराठ-र॔गीली गिवाण जो बर्तमान द्वाराहाट-चौखुटिया क्षेत्र है, ये उनकी राजधानी थी।)
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लोककथा-: मित्रो!! लोककथा का शाब्दिक अर्थ है' समकालीन लोगो द्वारा कही गयी कथा, इसमें बहुधा कोई लिखित साहित्य या प्रमाण कम ही मिलते है, और यूँ ही ये कथाएँ कह- कह के पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तान्तरित होती रही है, ऐसा मेरा विचार है ,जो गलत भी हो सकता है।
----आब् रे! एक बार कुम्भ'क पर्व नौणा,
राजा पृथ्वीपाल राणि ज्यूक संगा,
ग्याया हरिद्वारा घाटा--आ
वा मिलौ सुनपात सेठ--अ
भोट'क व्योपारी--ई--ई
गागुंली सेठाणी संग,
छियो बे-औलादी।।
राजा स॓ग सेठ ज्यू कि सौ-सलाम है छौ,
राजा ज्यू धै 'सुनपात् ' दु:ख-सुख कौ छौ,
सुण बेर सेठ दु:ख दुखी भाया राजा,
तब सुनपात् कूछों ,सुणों मेरी बाता,
चेलि मेरी हैली जबू ,समधी है जूलो,
आपणी यौ मितरामी अमर करूलो।।
भली बात् भली बात् कौनी पृथ्वीपाला,
राणी सेठाणी कैड़ी लगा 'पेट' पिठ्या,
तब हाथ जोड़ी, विदा ,हैगो सुनपाता,
फौज बाटि लागि तब ,राजा की बैराठा--आ--आ-हो---हो---ओ---हो।।
(एक बार कुम्भ के पर्व पर राजा पृथ्वीपाल सपत्नी हरिद्वार ग॔गास्नान के लिए गये थे, वहां उन्हैं भोट का व्यापारी, जिनका नाम सेठ 'सुनपात्' था ,मिले। सेठ जी अपनी सेठाणी 'गागुंली' के साथ आये थे। दुआ-सलाम के साथ-साथ बातचीत में पता लगा कि सेठ की कोई सन्तान नही थी और इस कारण बहुत दुखी भी।
सुनपात सेठ राजा और रानी की स्नेहिल बातो से प्रभावित होकर कहता है कि,"यदि भगवान के आशिर्वाद स्वरूप उन्हैं पुत्री प्राप्त हुई तो उसका व्याह राजा जी के घर मे ही सुनिश्चित होगा अर्थात वे आपस में समधी बन जाएगें। और इसी प्रण के साथ सेठानी को 'पेट-पिठ्या' ( गर्भावस्था में गर्भस्थ शिशु को रोली का टीका लगाकर शादी से पूर्व मंगनी की रश्म पूरा करना) लगा दिया गया। तत्पश्चात राजा अपने सैनिको के साथ अपनी राजधानी 'बैराठ' के लिए चल पड़े।)
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जै ईष्ट देव 'गोल् ज्यू।।
कैलाश सिंह ' चिलवाल'
बनौड़ा भैषड़गाँव सोमेश्वर अल्मोड़ा।
वर्तमान स्थान: गुड़गाँव, लखनऊ।

फेसबुक ग्रुप कुमाऊँनी शब्द सम्पदा से साभार
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छायाचित्र काल्पनिक तथा प्रतीकात्मक है, इसका कथा से कोई सम्बन्ध नही है।
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