
राजुला मालूशाही-
कुमाऊँनी लोकधुनो पर आधारित एक अमर प्रेमकथा।--क्रमश: पिछले भाग-१ से आगे-- भाग-2
मित्रो!! पिछले अंक मे कथा राजुला शौक्याण और मालूशाही के माँता पिता के बीच हरिद्वार के घाट पर हुई पहली मुलाकात तक हमने सुनी थी।गंगा स्नान और तीर्थाटन ( जो आज भी हम उत्तरांचल वासियों के लिए किसी 'यज्ञ' से कम नही) के पश्चात सेठ सुनपात शौक,गांगुली सेठाड़ी,बैराठ के राजा जी, रानी जियाराणी, अपने-अपने घर लौट गये।
---उससे आगे-----'
दिना बीता, बीता रे बरसा,
या मालू जनमा, वा राजुला---आ--आ
भूली ग्यैया 'कौला रे कराणा',
स्वरग न्है ग्यैया पृथ्वीपाला---आ---आ।।
( जी हाँ! गांगूली सेठाड़ी को जो' पेट पिठ्या'लगा रखा था, दोनों पक्षो ने मित्रता का जो प्रण हरिद्दार की पावन धरती मे लिया था---उस कौल कराण को भूल गये।)
आहा!!
दिन दुगुड़ी पै, रात चगुड़ी पै, राजुली शौक्याणा,
सोलहवा बरस लागो, हैगे भरी ज्वाना,
भेकुएँ सीकैड़ी कैसी, सुन'क जैसी खामा,
भर-ज्वान् हैई गोछ मालूशाही राजा---आ---आ
हे---हे----।।
(राजुला ने ज्यूँही जीवन के सोलहवे सावन में कदम रखा,उसके असीम सौन्दर्य की छटा सम्पूर्ण भोट इलाके में फैल गयी,जिसे देखो वही राजुला की सुन्दरता का बखान करता फिरता--कोई उसकी छरहरी काया की तुलना 'भेकुए सीकैड़ि'से करता तो कोई उसके रूप की तुलना 'स्वर्ण-जड़ित 'आभूषणो से)
---सामाजिक परमपरानुसार ही राजुला के पिता ने भी उसके लिए योग्य वर की तलाश शुरू कर दी थी (स्मरण रहे--सोलह साल पुराने 'कराण' को सुनपात् सेठ भूल चुके थे)---
राजुली की मांग-चांग माल भोट हैगे,
'कालूशौक'हैणी जब राजुली मांगि है---आ--।।
---'''----''----------------------
तर्ज :विरह:-
तब् एक राता, हो मेरा ईष्टा,
कैसी माया है छ हे मेरा देबा,
स्वैणा-रथो माजा राजुली-मालू,
कूनी यैसी बाता, हमारा माँ-बाप
हमरी मांगी-चांगी हरिद्वारा घाटा,
करी हैछी पैली आपसी माजा--
आपसी माजा--आ---आ।।
---मित्रो!!
कहते है ना कि भगवान के घर देर है,अन्धेर नही--बस ,उल्लिखत' एक सपने' ने ही राजुला-मालूशाही की अदभुत प्रेमकहानी को एक नया मोड़ दे दिया---
-------------- -------------
ओ नीना खुली गेछो रामा,
खुला बिसी डाना रे,
आपणा ईजु'क सामणी,
करू डाड़ा-डाड़ा रे---ए--ए
काको मालू छ, चेली राजूली,
स्वेणा बाता वे, साच नी हुनी,
सेठाड़ी कू छ यैसी बाता---आ--आ।।
(राजुला सपने का पूरा दृष्टान्त अपनी माँ को बताती है,और कहती है कि ," उसे कालूशौक से व्याह नही रचाना है,जब वर्षो पहले ही राजुला-मालूशाही का मिलन ईश्वर ने तय कर दिया था तो फिर क्यों 'सपने' वाले सच को झुटलाया जा रहा है"।।)
--------------------------------
---गम्भीर चिन्तन और पीढ़ा की मन:स्थिति मे राजुला सोचती है कि' जिस माँ ने उसको नौ महीने अपनी कोख में रखा, अपना स्तनपान कराया,सोलह की दहलीज पर लाकर खड़ा किया--जो माँ उसके ह्दय के स्पन्दन तक को महसूस कर सकती है, उसे आज क्या हो गया है??, और कहती है ,"नही-नही, माँ !! राजुला -मालू का मिलन ईश्वरीय 'मनसूबा' है- देवता ही इन प्रेमियो का मिलन निश्चित करेगें और उसी समय 'भोट 'छोड़कर निकल पड़ती है--
------------------'-'--------
-(तर्ज;रूमा झूमा बरखा लागी----)
गरजण बरसण लागो अगाशा,
असाड़-सौड़ै अन्यारी राता,
मन में लागी मालू आगा,
कसी पुजनू, कूछ बैराठा,
बासनी स्याऊ और बिरावा---
डरनि-डरनि लागि रै बाटा,
भूत-पिरेता भालू छै बागा,
बाट-घाटा मे जहरीला नागा,---
भुखै-तिसै पुजिगे तब,
रात खुलड़ा बागशेरा नाथा।।(बागनाथ जी)
------'------''-----------------
क्रमश:------------ बागनाथ जी से विनती और बागनाथ जी ने क्यो श्राप दिया????
कैलाश सिंह ' चिलवाल'
बनौड़ा भैषड़गाँव सोमेश्वर अल्मोड़ा।
वर्तमान स्थान: गुड़गाँव, लखनऊ।

फेसबुक ग्रुप कुमाऊँनी शब्द सम्पदा से साभार
कैलाश सिंह 'चिलवाल' जी की फेसबुक प्रोफाइल पर विजिट करें
छायाचित्र काल्पनिक तथा प्रतीकात्मक है, इसका कथा से कोई सम्बन्ध नही है।
0 टिप्पणियाँ