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'राजुला मालूशाही' भाग-6


राजुला मालूशाही-
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कुमाऊँनी लोकधुनो पर आधारित एक अमर प्रेमकथा।

प्रस्तुतकर्ता: कैलाश सिंह चिलवाल
--क्रमश: भाग-5 से आगे- अंतिम भाग-6
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दगणियों नमस्कार!! भाग-5 में हंमूल देखौ कि कसि-कसि आफत भुगुति बेर 'राजुलि' जोहार बटी 'लखनपुर 'रंगीलि बैराठ' पुजि।
भाग-6 शुरू करण हैं पैली भाग पाँच'क वृतान्त देखि ल्हिनूं पैं----

मालू अचेत पड़ा था, राजुला की लाख विनती,उसकी अस्रुधारा, उसके ह्दय का रूदन भी मालू को सचेत' नही कर पाए। अन्तत: 'म्यार् भाग फुटा' अर्थात इसको अपना दुर्भाग्य समझ राजुला मालू के सिरहाने तलाक यानि की चिट्ठी लिखकर छोड़ देती है। जिसमें उसने अपने संघर्ष एवम 'आत्मीय प्रेम का व्यौंरा देते हुए 'मालू' को चेतावनी दे दी," अगर जीवित माँ का पुत्र होगा तो अपनी नौ लाख कत्यूरी सेना के साथ पूरी राजसी साजो-सामान के साथ 'जोहार' आ जाना और पूरे 'बोज-भरम' के साथ मुझे ब्याह के लखनपुर 'रंगीली बैराठ' ले आना।
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अब उससे आगे की कथा----

राजुलि का 'तलाक' यानि चिट्ठी पढ़कर मालू बेचैन हो जाते हैं और अपने सिपह-सलारो की आपातकालीन बैठक बुलाकर यह निर्णय लेते हैं कि 'उन्हैं जोहार जाना ही होगा'।।

गीत:
कानों में मुनाणा पैरी भगवाई लुकुड़ा
सौक्याणा मूलुक हैणी बाट् लागी फौजा,
जै मैया जै गुरू कूनै नौ लाखs कत्यूरा,
पुजि ग्याया मेरा प्रभु 'घिनौड़ी का खेता --आ-आ

( नौ लाख कत्यूरी सेना के साथ जोगी के भेष में 'मालू' जोहार के घिनौड़ी खेत पहुँच जाते हैं, जोगियों की इस जमात को देख 'सुनपात'को शक हो जाता हैं कि कुछ न कुछ दाल मे काला जरूर हैं)

सुनपाता देखि रामा जोगि की जमाता
समझी गो भौतै भाई कत्यूरों कि चाला
दूत भेजि हैछौ तब माल्ला रे सौक्याणा
हुँणियां ऐ गीना भौतै, युद्ध हैगो रामा,
जादू-टोना छायी गोछौ'घिनौड़ी का खेता--आ--आ--हे--हे।।

मंत्रोच्चार: जादू-------
ऊँ सरस्वति माँता को नमस्कार
गुरू पिता गुरू माँता कू नमस्कार
त्रिकाल देवी छैकाल देवी कू नमस्कार
दूध कू छलकायूं जल कूं छलकायूं
फूल चढ़ाऊं चाँण- बाँण को काट्यूं
छल काटूं, बल काटूं,
गाढ़ को गध्यार को डाना 'क
सब चांण बांण मुठि में बाँधू। ऊं--ऊं।
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(हुँणियां नरेश विक्खीपाल के साथ 'बोक्साणी' विधा (जादू) के एक से बढ़कर एक 'तांत्रिक' थे, जो 'दुश्मन'को पशु-पक्षी बनाकर उसकी हत्या तक कर देते थे।-----)

'जागर' शैली में देखिए----

घिनौड़ी खेता रे,हवना है गोछौ,
माट् रे ऊड़ाछौ,दिना रे छिपि गो।

"क्वे चलू छौ यसी विधा--
दिन छिपि जाछौ,
"क्वे फुँकनी यौस मंत्र--
घाम लागि जांछौ,--अ--आ--हो--।।

( मालूशाही ये अजीबो गरीब करतब देखकर विचलित हो जाते हैं, स्मरण रहे कत्यूरी सेना के साथ 'गुरू गोरखनाथ' भी थे जिनके पास 'दैवीय शक्तियों का भ॔डार तो था ही, साथ में'बोक्साणी' विधा की कांट भी)


तब गुरू खुटा पड़ी, राजा मालूसाई
विनती करू छौ--औ--ए--हा--ए--।

गुरू जी 'पंछी'बनाओ,
मी राजुली दिखाओ,
मेरि राजुली दिखाओ।।

(नीचे की प॔क्तियों को सांकेतिक रूप में समझिएगा)

ओ--ओ--
बिराई उच्छयाव मारी,
मारि है 'घूंघुता'रे--ए
'राजुली'नजर पड़ी,
'घुघूता' ऊपरा रे---ए
'बिराई' का गिचां बटि-
लुटि है 'घुघूता'रे--ए--

( समझ तो गए होंगे आप लोग-- "युद्धक्षेत्र में मालू की कत्यूंरी सेना 'दुश्मन' को युद्ध में परास्त करने के लिए सक्षम थी, परंतु उनके 'जादू टोने' का जवाब उसी 'विधा' में देकर ही 'राजुला- मालू' का मिलन संभव था"। अतएव गुरु गोरखनाथ की 'विधा' के फलस्वरूप मालू को 'घुघुत' बना दिया जाता हैं, जैसे ही बिल्ली 'घुघुत' को मारने के लिए मुँह में दबाती हैं तुरंत राजुला उसको छुड़ा लेती हैं।)

ओ--रणभूमि मैजा गुरू जी कै तबा
घुट-घुटि बांटुली लागि गेछौ आबा---आ--आ,
रणभूमि बैठी तब गुरू कैनी जापा
भेजि हैलौ 'जादु' तब राजुली महला रे--ए--ए।।
'घुघुती'क रूप मैजी 'मालू' निरदोषा,
मारौ गुरू'ल मंत्र जब 'घुघुती' ऊपरा
'मालूसाई' ज्यून हैगो, एगो ऊकै होसा।।

( इस प्रकार मालू को घुघुत बनाना, बिल्ली का उसको पकड़ना, राजुली का उसको छुड़ाना--ये सारी कवायद मालू को जीवित रखने के लिए की गयी। मालूशाही ने अपनी कत्यूरी सेना के पराक्रम और गुरू गोरखनाथ जी के आशिर्वाद से 'हुँणो' को पराजित कर 'राजुला' से ब्याह रचाया और नंगार-निसांण, गाजे बाजे के साथ पूरी धूम धाम से ' ड्वल् कास् के' बैराठ वापस आ गये।)
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श्रंगार (रस)गीत::

मालू अपनी राजुला के 'अप्रितम' रूप और उसके श्रंगार को देखकर गा रहे हैं-----

"जतुक भली देखीणै'कि
ऊतुक भलौ छ तेरो दिल
मेरि पराणी उड़ि जांछौ
देखि त्यौरौ च्यूनि'क तिल।।

कान् पैरी री त्विल मुनाड़ा
गाव् पैरी रौ गलोबन्द,
मालुसाई बर्यात ल्यै रौ
राजुलि!! है जैयै रजामंद।।

रंगीली बैराठ् जब--
'राजूलि'क आलौ ड्वल्
ब्योलि देखै है भाजि आला
दाद् बचिया दिदि बचूलि।।
पै दाद् बचिया दिदि बचूलि।।।
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इति श्री।। कथा समाप्त हो गयी 'दगणियों, प्रेमकथा तो 'जोहार'से प्रारम्भ होकर--बैराठ--जोहार--अंत में 'बैराठ'आकर खत्म हुई,लेकिन फेसबुक में सुनाने का काम 30 अक्टुबर को शुरू किया था आज 10 दिसम्बर को खत्म हुआं।
"आभार 'आपु सब दगणियों'क ,म्यर काम सूड़ूण छी, पैं हुंगुर दीणी आपु भाया हो"।।

जिस प्रकार हिमालय अपनी जगह तटस्थ रूप से खड़ा हैं,उसी भांति ये प्रेम गाथा 'मेरे पहाड़'के मन मस्तिष्क मे सदा रहेगी, कभी विस्मृत नहीं होगी, पीढ़ियां आएंगी जाएंगी।।

जय माँता जियाराणी
जय नौ लाख कत्यूरी देबो
जै ईष्ट देव 'गोल् ज्यू।।
कैलाश सिंह ' चिलवाल'
बनौड़ा भैषड़गाँव सोमेश्वर अल्मोड़ा।
वर्तमान स्थान: गुड़गाँव, लखनऊ।
छायाचित्र काल्पनिक तथा प्रतीकात्मक है, इसका कथा से कोई सम्बन्ध नही है।

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