
बाँज (ओक)
लेखक: शम्भू नौटियालउत्तराखंड में बांज सदा हरित वृक्ष है जिससे जलस्रोतों की सुरक्षा में इसकी उपादेयता है व बहुमुखी उपयोग एवं ग्रामीण क्षेत्रों की गतिविधियों से जुड़े रहने के कारण अन्य पेड़ों की तुलना में ईधन व वर्षभर हराभरा रहने के के कारण चारा जैसे आवश्यक साधन उपलब्ध कराने की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। पर्वतीय क्षेत्रों की भूमि में नमी रखने, जल संसाधनों की पूर्ति करने, मिट्टी के कटाव को रोकने एवं उसकी खनिजों से गुणवत्ता बढ़ाने में बांज के पेड़ का उल्लेखनीय योगदान है। बांज की विभिन्न प्रजातियाँ 1200 मीटर से लेकर 3500 मीटर की ऊंचाई के मध्य स्थानीय जलवायु, मिट्टी व ढाल की दिशा के अनुरुप पायी जाती हैं।
प्रकृति ने उत्तराखंड की पर्वतीय अंचल की विभिन्न ऊँचाईयों
में पांच प्रकार की बांज की प्रजातियां मनुष्य को प्रदान की हैं जिनका
मनुष्य अपनी दैनिक गतिविधियों, पशुओं के भोजन, कृषि यंत्रों, मकान निर्माण,
ईधन आदि महत्वपूर्ण कार्यों के लिए व्यापक रूप से उपयोग करता आ रहा है। ये
पांच प्रजातियाँ हैं-
1- फलियाट, हरिन्ज बांज (क्विरकस ग्लोका)
2- रियाज, सांज बांज (क्विरकस लानीजिनोसा)
3- बांज (क्विरकस इनकाना)
4- तिलन्ज, मोरू, तिलोंज बांज (क्विरकस फ्लोरीवण्डा)
5- खरसू या खरू बांज (क्विरकस सेमेकारपोफोलिया)
इन पांचों प्रजातियों की लकड़ी बहुत कठोर होती है। खरसू व तिलोंज(मोरू) की
लकड़ी इतनी कठोर होती है कि उसे ओजारों से काटना व चीरना तक कठिन होता है।
बांज की लकड़ी टिकाऊ व मजबूत होती है। इसकी लकड़ी का घनत्व 0.75 ग्राम
प्रति घन सेंटी मीटर होता है तो यह अति मजबूत और सख्त होती है इस पर फफूंदी
और कीटों का असर नहीं होता है न इसके जोड़ उखड़ते, न ही लकड़ी फूलती और
नमी से सड़ती है। यह उत्तराखंड का हरा सोना कहा जाता है।

उत्तराखंड के पर्यावरण,खेती- बाड़ी, समाज व संस्कृति से गहरा ताल्लुक रखने वाला बांज एक ऐसा अति उपयोगी जाना पहिचाना बृक्ष है जिसकी उपयोगिता अन्य बृक्षों से अधिक है। हमारे उत्तखण्ड में एक पर्यावरणीय गीत भी प्रचलित है ”बाँजै की जड़ियों को ठंडो पाणी ” और यह तथ्य भी है की इसकी सूखी चौड़ी पत्तियों का आवरण जहां जमीन को धूप की गर्मी से बचाता है वहीं बरसात के पानी को तेजी से बहने से रोकता है तो पानी को जमीन के अंदर जाने का अधिक समय मिलने से बारामासी धारे पंदेरे ठन्डे पानी का सुलभ और मन लुभावन स्रोत थे। आज के अनुसंधानकर्ताओं का मानना है कि बांज के पेड़ काटने से न केवल वन समाप्त हुए हैं वरन् इसका दुष्प्रभाव इन वनों में पाये जाने वाले बहुत से महत्वपूर्ण जीव जन्तुओं (जैसे भालू, काकड़, घुरड़, सुअर, थार, बाघ इत्यादि) व पेड़ पौधों पर भी पड़ा है और ऐसा अनुमान है कि जीव- जंतुओं व पौधों की कई प्रजातियाँ या तो लुप्त हो चुकी हैं या लुप्तप्राय हैं। इसके अतिरिक्त जल के स्रोतों का अभाव, जो एक व्यापक समस्या के रूप में बढ़ती जा रही है, निश्चित रूप से बांज व इसकी प्रजातियों के विनाश का ही परोक्ष परिणाम कहा जा सकता है।

बांज के पेड़ के फायदे-
1. घिजाली (ओखली कुटनी) बांज की ही लकड़ी के बनते हैं, घिजंली या
गंज्याली पहाड़ी जीवन से जुड़ा ऐक एसा हथियार है जिसके बिना धान की कुटाई
नहीं की जा सकती यह चक्की का काम करती है ।
2. इसकी हरी पत्तियां पशुओं
के लिये पौष्टिक होती हैं। बांज की पत्तियों के लिऐ पहाड़ की नारियां दूर
दूर जाकर इसे अपने पशुओं का चारा बनाती हैं घर के नजदीक का बांज बरसात ओर
ठण्ड के दिनो में चारा के लिऐ प्रयोग किया जाता है।
3. इसके तने के
गोले से हल का निसुड़ सब से अधिक पसंद किया जाता है। बांज के तने से बनाया
गया नसुड़ बहुत मजबूत होता है इसलिऐ पहाड़ो मे इसका प्रयोग बहुत जादा
मात्रा मे होता है।
4. इसकी सूखी पत्तियां पशुओं के बिछावन लिये उपयोग
की जाती हैं, पशुओं के मल मूत्र में सन जाने से बाद में इससे अच्छी खाद बन
जाती है.
5. ईंधन के रुप में बांज की लकडी़ सर्वोतम होती है, अन्य
लकडी़ की तुलना में इससे ज्यादा ताप और ऊर्जा मिलती है इसकी बारीक कैडिंया
जल्दी जलती हैं ओर बड़ी लकड़ी आराम से जलती है। इस बांज के तने से बना
कोयला दांत मंजन के काम मे भी लाया जाता है यही नहीं इस कोयले पर सैकी हुई
रोटी टेस्टी होती है।
6. बांज की लकड़ी के राख में दबे कोयले जो सुबहः
चूल्हा जलने क लिय अंगार देते हैं जो पहाड़ी जीवन मे आग जलाने जैसे कष्ट से
बचाती हैं
7. ग्रामीण काश्तकारों द्वारा बांज की लकडी़ का उपयोग खेती
के काम में आने वाले विविध औजारों यथा कुदाल,दरातीं के सुंयाठ, जुवा,
जोल-पाटा के निर्माण में किया जाता है।
8. पर्यावरण को समृद्ध रखने में
बांज के जंगलों की महत्वपूर्ण भूमिका है। बांज की जड़े वर्षा जल को अवशोषित
करने व भूमिगत करने में मदद करती हैं जिससे जलस्रोतो में सतत प्रवाह बना
रहता है बांज की लम्बी व विस्तृत क्षेत्र में फैली जडे़ मिट्टी को जकडे़
रखती हैं जिससे भू कटाव नहीं हो पाता.
9. बांज की पत्तियां जमीन में
गिरकर दबती सड़ती रहती हैं,इससे मिट्टी की सबसे उपरी परत में हृयूमस
(प्राकृतिक खाद) का निर्माण होता रहता है।
10. बांज का बृक्ष बड़ा ही
छांवदार होता है इसकी छांव मे बैठने पर ठंडक महसूस होती है। बांज की जड़ी
का पानी शुद्ध होता है। क्योंकि यह लंम्बी दूरी तक फैली हुई रहती हैं बांज
के बृक्ष पर होने वाले लिक्वाल औषधीय गुणो से भरपूर होता है।

बाँज के वनों का का संरक्षण-
बांज के पेड़ व बांज के वनों को बचाने हेतु निम्न कदम प्रभावी हो सकते हैं-
1- बांज के पेड़ को जहाँ तक हो सके सुरक्षित रखें क्योंकि एक विकसित बांज
का पेड़ बनने में लगभग 100 वर्ष लगते हैं। बांज के पेड़ के अलावा इसके
समीप उगने वाले पेड़ो की ऐसी प्रजातियाँ भी होती है जो 10-15 साल में बड़े
पेड़ का आकार धारण कर लेती है और बांज की अपेक्षा इन्हें काटने से बांज के
वनों में विशेष अन्तर नहीं आता। इससे इन्हें काटेगें तो हमारी आवश्यकता
तो पूरी होगी ही साथ ही में बांज का वन सुरक्षित रहेगा।
2- बांज का
वृक्ष किसी भी दशा में नहीं काटा जाना चाहिए या सिर्फ पुराने, सड़े, सूखे
पेड़ो को ही काटें । नये तथा अविकसित बांज के पेड़ों को विकसित होने का
अवसर देना चाहिए।
3- बांज के पेड़ों से चारा प्राप्त करने के लिए
पत्तियों को ही काटना चाहिये और छोटी-छोटी शाखाओं को फिर बढ़ने के लिए छोड़
दें। यह देखा जाता है कि चारे के लिए कभी-कभी पेड़ो को बिल्कुल नंगा कर
दिया जाता है। यह अवैज्ञानिक विधि है। जहाँ तक हो सके बहुत अल्प मात्रा में
केवल पत्तियां काटें।
4- पेड़ो का कटान नियन्त्रित हों। किसी भी
जंगल/स्थान से सारे वृक्ष न काटें जायें। केवल घने वनों के बीच के मृत
अथवा मृतप्राय पुराने या सूखे वृक्षों का ही कटान हों।
5- ईधन के लिए गैस अथवा नये आधुनिक साधनों का इस्तेमाल हों तो बांज के अमूल्य वन बचे रह सकते हैं।
6- जहाँ तक हो सके लकड़ी से बने कृषि यंत्रों के स्थान पर लोहे से बने एवं आधुनिक कृषि यंत्रों का उपयोग करना चाहिए।
7- आज की बढ़ती आबादी के साथ-साथ कृषि क्षेत्रों के विस्तार व फलों के बगीचों की वृद्धि को रोका जाना चाहिए।
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