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'न्योली' पहाड़ के लोकगीतों की एक अनुपम विधा


"'न्योली' पहाड़ के लोक साहित्य/लोकगीतों की एक अनुपम विधा"
लेखक: श्री चन्द्रशेखर तिवारी

'न्योली' पहाड़ के लोक साहित्य/लोकगीतों की एक अनुपम विधा है।  प्रायः इसकी रचना दो पंक्तियों अथवा कहीं-कहीं चार पंक्तियों में भी मिलती है।  आम जन-मानस के सुख-दुख, प्रेम, विरह, संयोग के साथ ही जीवन- दर्शन के तमाम बिम्ब इन न्योली गीतों में मिलते हैं।  वस्तुतः न्योली को लोकगीतों की एक धुन विशेष अथवा खास तर्ज माना जाता है। उत्तराखंड के कुमाऊं अंचल में न्योली गायन की परंपरा देखने को मिलती है।  अल्मोड़ा जनपद के रीठागाड़ पट्टी के लोकगायकों की गायी न्योली खाशी प्रसिद्ध मानी जाती रही है।

सरगा में बादल फाटो, ओ, धरती पड़ी हवा
काली में सफेदी ऐगी, फूलि गयी बावा
सैन-मैदान काटि गो छा, आब लागो उकावा
दिन धो काटण है गई, यो बूढ़ी अकावा
(भावार्थ : यानी आसमान में बादल लगे और धरती में हवा बहने लगी।मेरे काले बालों में सफ़ेदी छाने लगी और शरीर में बुढापा आने लगा। जिंदगी का आरामदायक/समतल हिस्सा तो जवानी में काट दिए,बुढापे में अब जिंदगी के कठिन/उकाल भरे दिन काटने मुश्किल हो गए हैं)

गोल पात तिमिली को लंबो केली पात
भगवाने लै माया रची, दिन रचो और रात
चार वर्ण बनाया पर द्विये छन जात
नर बनायो, नारि बनाई यो द्विने छन जात
(भावार्थ : तिमिल के पत्ते गोल होते हैं, केले के पत्ते लंबे। भगवान ने माया रच कर दिन और रात बनाये।  समाज में चार वर्ण तो चले आ रहे है पर असल में भगवान ने यहां दो ही जाति बनायी हैं एक नर और एक नारी।)

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