
कुमाऊँ की पारंपरिक वैवाहिक रस्में
पारंपरिक रस्मेंलेखक: भुवन बिष्ट
देवभूमि की परंपराएं सदैव महान रही हैं, लेकिन पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से समाज में आजकल नैतिकता का जो पतन हो रहा है, उसे आज विवाह आयोजनों में भी देखा जा सकता है। पूर्व में शादियों में अनेक परंपराऐं प्रचलित थी, किन्तु आज ये परंपराएं विलुप्त होती जा रही हैं पूर्व में शादियों में पारंपरिक वाद्ययंत्रों का विशेष महत्व होता था। इसके साथ ही परंपरा के अनुसार मस्थगोई (संदेशवाहक) अथवा ममचहोई (मुसकलों) का भी अपना एक विशेष स्थान होता थो उस समय गांव के एक विशेष बुजुर्ग अनुभव वाले व्यक्ति को तथा एक सहायक को ममचहोई या संदेशवाहक बनाया जाता थो ममचहोई (मुसकलों) शादि की तिथि से पहले दिन दुल्हन के घर जाकर बारात आने की सूचना देते थे तथा वहां की व्यवस्थाओं के बारे में जानकारी भी लेते थे इन्हें विशेष रूप से एक पीले कपड़े में जिसे दुनर कहा जाता था एक तरफ उड़द की दाल और दूसरी तरफ गुड़ की भेली की पोटली (दुनर) देकर दुल्हन के घर एक दिन पहले भेजा जाता था।
ये कंधे में दुनर तथा हाथ में मिट्टी की बनी शगुनी ठेकी जो दही से भरी होती थी और ऊपर से हरी सब्जियां रखी होती थी, लेकर जाते थे और इनके साथ एक शंख बजाने वाला सहायक होता था जो शंख की ध्वनि से अपने आने की सूचना देते थे। ममचहोई बारातियों की संख्या आदि की जानकारी दुल्हन पक्ष को देते थे और फिर शादि के दिन दूल्हा पक्ष को दुल्हन के घर में होरही व्यवस्थाओं की जानकारी देते थे परंतु आज शादियों में आधुनिकता के कारण ममचहोई की भूमिका भी समाप्त होते जा रही हैं अब मात्र औपचारिकता के लिए कुछ ही बारातों में देखे जाते हैं। पहले शादियों में नगाड़े निशाणो के साथ मशकबीन (बिनबाजे) का खूब प्रचलन था,लेकिन यह परंपरा अब समाप्त हो चुकी है। आधुनिक पीढ़ी बिनबाजे को अपनी शान के विपरीत समझती है।
आज इनका स्थान डीजे, कैसियो, आधुनिक कानफोडूं ढोल बैण्ड बाजों ने ले लिया है। जिससे इनका अस्तितव समाप्त होने को है। पूर्व में विवाह समारोह रात में होते थे किन्तु आजकल अधिकांश दिन की शादियां होती हैं। विवाह में धूल्यार्घ (धूलर्ग) रस्म का भी अपना विशेष महत्व है धूल्यार्घ का अर्थ सूर्य अस्त होने का समय भी है, पहले बारातें दुल्हन के घर सूर्य अस्त होते समय पहुंचती थी, इसलिए इसे धूल्यार्घ भी कहा जाता है। किन्तु आज शराब एंव असुरक्षा के बढ़ते प्रचलन से अधिकांशतः शादियां दिन में ही होने लगी हैं। आधुनिक विवाह में जयमाला कार्यक्रम को भी जोड़ दिया गया है।
पूर्व विवाह समारोहों में दूल्हा दुल्हन के सिर पर मुकुट जिनमें भगवान राम सीता गणेश आदि देवी देवताओं के चित्र बने होते थे पहनाये जाते थे किन्तु अब इनका स्थान सेहरा ने ले लिया है पहले दूल्हा द्वारा धोती कुर्ता फिर पैंट कोट पहना जाता था किन्तु अब शेरवानी पहनावे ने इनका स्थान ले लिया है। शादियों में पूर्व में मंगल गीत गाने के लिए गांव की विशेष दो महिलाएं जो (गितार) कहलाती थी, विवाह में मंगल गीत गाती थी। किन्तु आजकल वह परंपरा भी आधुनिकता की भेंट चढ़ चुकी है मंगलगीत में देवताओं का आह्वान एंव मंगलमयी जीवन के लिए कामना की जाती थी। पूर्व में गांवों की शादियों में खाने की व्यवस्था गांव वाले सभी मिलजुलकर करते थे, और जमीन पर बैठकर पत्तलों में प्यार से खाते थे शादियों के लिए मिलकर घों एंव बाखलियें को सजाया जाता था किन्तु आज शादियां भी पारंपरिक घरों में न होकर बैंकट हाल, मैरिज होम , होटलों में समपन्न होने लगी हैं। कुमांऊ संस्कृति में विवाह उत्सवों में 'आंछत फरकैण रस्म व मंगलगीतों का अपना एक विशेष महत्व है।

देवभूमि उत्तराखंड के कुमाऊँ की वैवाहिक परंपराओं में अक्षत (चावल) के द्वारा स्वागत अथवा पूजन का भी अपना एक विशेष महत्व है,इसे कुमाऊँ में अनेक स्थानों पर कुमांऊनी भाषा में (आंछत फरकैण) अथवा अक्षत के द्वारा मंगलमयी जीवन के लिए भी कामना की जाती हैं, पारंपरिक घरों में होने वाले विवाह समारोंहों में 'आंछत फरकैण' एक महत्वपूर्ण रस्म व परंपरा है, इसके लिए वर अथवा वधू पक्ष के परिवार की महिलायें माता, ताई, चाची, भाभी को विशेष रूप से इस कार्य के लिए आमंत्रित किया जाता है, वे पारंपरिक परिधानों रंगवाली पिछौड़ा, व पारंपरिक आभूषणों से सुशोभित होकर इस कार्य को करती हैं, आछत फरकैण में पांच, सात, नौ, ग्यारह या इससे अधिक महिलायें भी यह कार्य कर सकती हैं।
दुल्हे के घर में बारात प्रस्थान के समय भी इन महिलाओं द्वारा अक्षतों से मंगलमयी जीवन की कामना की जाती है, तथा दुल्हन के घर पहुंचने पर दुल्हन के परिवार की महिलाओं द्वारा दूल्हे का अक्षतों से स्वागत किया जाता है।
फिर विदाई के समय भी दुल्हन के घर में वर वधू दोनों का अक्षत फरकैण से स्वस्थ एंव मंगलमयी जीवन के लिए सभी द्वारा अक्षतों के माध्यम से मनोकामना की जाती है, दल्हे के घर में बारात पहुंचने पर वर पक्ष के महिलाओं जो की आछत फरकैण के लिए आमंत्रित होती हैं वे दुल्हा तथा दुल्हन का घर में प्रवेश से पहले आंगन में आछत फरकैण की परंपरा व रस्म अदायगी की जाती है, इसमें सभी महिलाओं द्वारा दोनों के जीवन की खुशहाली व मंगलमयी जीवन की कामना की जाती है, अक्षत (चावल) को शुद्ध, पवित्रता, सच्चाई का प्रतीक भी माना जाता है इसको तिलक के साथ अथवा देव पूजा व वैवाहिक समारोहों में आंछत फरकैण के रुप में भी उपयोग किया जाता है।
इस रस्म और मंगलगीत का भी अनूठा संबंध है, शादियों में पूर्व में मंगल गीत गाने के लिए गांव की विशेष दो महिलाएं जो (गितार) कहलाती थी, विवाह में मंगल गीत गाती थी किन्तु आजकल यह परंपरा भी आधुनिकता की भेंट चढ़ चुकी है। मंगलगीत में देवताओं का आहवाहन एंव मंगलमयी जीवन के लिए कामना की जाती है, मंगलगीत में पूर्वजों के साथ साथ सभी देवी देवताओं से पावन कार्य को भली भांती पूर्ण करने के लिए प्रार्थना की जाती है, मंगलगीत गाने वाली विशेष महिलाओं को दुल्हा एंव दुल्हन पक्ष की ओर से विशेष उपहार व मान सम्मान प्रदान किया जाता है, किन्तु आज शादियां भी पारंपरिक घरों में न होकर बैंकट हाल, मैरिज होम, होटलों में समपन्न होने लगी हैं।
आधुनिक विवाह समारोहों में शराब का अत्यधिक प्रचलन देखने को मिलता है। आज विकास के लिए आधुनिकता भले ही आवश्यक हो किन्तु हमें अपनी परंपराओं, संस्कृति, सभ्यता को संजोये रखने के लिए सदैव प्रयासरत रहना चाहिए। पिछौड़े का विशेष महत्व होता है लेकिन आज आधुनिक परिधानों में यह भी अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत है। आजकल विवाह समारोहों में दहेज का प्रचलन बढ़ता जा रहा है जो चिंतनीय एंव समाज के लिए घातक है। आधुनिक विवाह समारोहों में शराब का अत्यधिक प्रचलन देखने को मिलता है। आज विकास के लिए आधुनिकता भले ही आवश्यक हो किन्तु हमें अपनी परंपराओं, संस्कृति, सभ्यता को संजोये रखने के लिए सदैव प्रयासरत रहना चाहिए।


प्रतिपक्ष संवाद अप्रैल, 2018
..........भुवन बिष्ट

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