
कुमाऊँ का प्रमुख लोकपर्व "घ्यूँ त्यार" या "ओलगिया"
(घ्यूँ-संग्रांत, घृत संक्रांति, ओल्गी संक्रांति या सिंह संक्रांति भी कहा जाता है)सौर मासीय पंचांग के अनुसार सूर्य एक राशि में संचरण करते हुए जब दूसरी राशि में प्रवेश करता है तो उसे संक्रांति कहते हैं। सूर्य एक वर्ष में बारह राशियों में विचरण करता है और इस तरह वर्ष में बारह संक्रांतियां होती हैं। भारतवर्ष में इन संक्रांति पर्व से ही हिन्दू कैलेण्डर के बारह माहों की शुरुआत भी होती है और संक्रांति पर्व को शुभ दिन मानकर विभिन्न त्योहार मनाये जाते हैं। विशेषत: उत्तराखंड राज्य के कुमाऊँ अंचल में हर माह का आरम्भ किसी ना किसी लोकपर्व (संग्रांत या संक्रांति पर्व) से होता है जिसमें ऋतु पर्व व कृषि पर्व भी शामिल हैं। समाज द्वारा पर्वों को साथ-साथ मनाया जाना हमेशा से यहाँ की एक विशिष्ट पहचान रही है। इसी क्रम में यहां प्रचलित हिंदू विक्रमी संवत की भाद्रपद मास की पहली तिथि (एक पैट या एक गते) को घ्यूँ-त्यार या घृत-संक्रांति, ओल्गी संक्रांति या ओलगिया के रुप में मनाई जाती है।
कुमाऊँ में घ्यूँ-त्यार के सम्बन्ध में ऐतिहासिक तथ्य
घ्यूँ-त्यार को घृत संक्रान्ति और सिंह संक्रान्ति के साथ ही ओलगी या ओलगिया संग्रांत भी कहा जाता है। अगर घ्यूँ-त्यार के इतिहास के बारे में जानकारी करें तो कुमाऊँ में ऐतिहासिक रूप से इसे चंद राजवंश की परंपराओं से भी जोड़ा जाता है। कहा जाता है कि चंद शासनकाल में घ्यूँ-त्यार के प्रजा द्वारा अपने व्यवसाय से सम्बंधित उत्तमोत्तम वस्तुएं राज दरबार में भेंट-उपहार स्वरूप ले जाते थे। शिल्प कला से जुड़े दस्तकार, जैसे लोहार, दरजी, जुलाहे व बढ़ई आदि लोग अपनी कारीगरी तथा दस्तकारी की वस्तुऐं तथा कृषि व गृह कार्यों में उपयोगी उपकरण जैसे हल, दनेले, कुदाल व दराती जैसे उपकरणों के साथ ही बर्तन तथा बिंणाई जैसे छोटे वाद्य यंत्र राज दरबार की भेंट करते थे। कृषि व पशुपालक लोग मौसमी साग-सब्जियां, फल-फूल, दही-दूध व अन्य लोग मिष्ठान्न तथा पकवान जैसी वस्तुएं राज दरबार में भेंट स्वरूप ले जाते थे। इसके एवज में प्रजा जन धन धान्य आदि पुरस्कार स्वरूप राज दरबार से प्राप्त करते थे।

बेडुवा रोटी (बेड़ू रवॉट) - फोटो बृजमोहन जोशी
घ्यूँ-त्यार और सामाजिक सदभाव
घ्यूँ-त्यार कुमाऊँ में समाज के विभिन्न वर्गों खेती और पशुपालन से जुड़े लोगों, शिल्प और दस्तकारी जुड़े लोगों, गैर काश्तकारों तथा व्यापारियों को भी आपस में जोड़ता था त्योहार के जरिए आपस में जुड़ते थे। इस प्रकार इस पर्व में समाज के हर वर्ग तथा राजदरबार को विशेष महत्व और सम्मान देने का प्रेरणादायी भाव भी स्पष्टतया नजर आता था। कुमाऊँनी भाषा में भेंट देने के लिए ओग शब्द प्रचलित है तथा राज दरबार को भेंट देने की इस प्रथा को ओल्गी कहा जाता था। जिस कारण इस संक्रांति को ओल्गी संक्रांति या ओलगिया भी कहते हैं। आगे राजशाही खत्म होने के बाद राज सत्ता की जगह गांव के पधानों, थोकदारों और वर्तमान में सरकारी अधिकारियों व राजनेताओ ने ले ली है।
कैसे मनाया जाता है घ्यूँ-त्यार
कुमाऊँ राजशाही के अंत तथा अंग्रेजों के अधिकार के बाद धीरे-धीरे ओग या भेंट देने की पुरानी प्रथा उस रूप में तो समाप्त हो गई, लेकिन ओलगिया त्यौहार के रूप में यह अभी भी मनाया जा रहा है। इस परम्परा में आज भी नयी बरसाती उपजों जैसे कद्दू, खीरा, कच्चे भुट्टे, तुरई आदि को स्थानीय लोक देवता या घर के देव स्थान (द्याप्त थान) में अर्पित किया जाता है और उसके उपरान्त अपने उपभोग के लिए प्रयोग करना शुरू किया जाता है। समाज के विभिन्न वर्ग के लोग आपस में भी इन उपजों का आदान प्रदान करते हैं।
घ्यूँ-त्यार (ओलगिया) के दिन खास तौर पर मांश की दाल (पहाड़ी उरद) को भिगो और पीस कर तैयार की गई पिट्ठी के रूप में प्रयोग करते हुए, रोटी के अंदर कचौड़ियों की तरह भरकर भरवा रोटी बनाई जाती है। इस प्रकार बनायीं जाने वाली भरवाँ रोटी को स्थानीय भाषा में बेड़ू रवट(बेड़ू रोटी) कहा जाता है। इस दिन गरमागर्म बेड़ू रोटी को गाय के दूध से तैयार शुद्ध घी के साथ डुबोकर या चुपड़ कर खाया जाता हैं। इस त्यौहार पर घी खाने का विशेष महत्व है यहां तक की ऐसा कहा जाता है, कि जो व्यक्ति इस दिन घी नहीं खाता है वह अपने अगले जन्म में गनेल (घोंघा) के रूप में जन्म लेता है। घी खाने विशेष महत्व के कारण ही इस त्यौहार को स्थानीय रूप से घ्यूँ-त्यार, घ्यूँ-संग्रांत (घृत संक्रांति) के नाम से जाना जाता है।

बेड़ू रोटी और घी के साथ ही इस मौके पर मौसमी पहाड़ी सब्जियों जैसे पिनाऊँ (अरबी) की नई अधखुली कोपलों (गाबे) कर पहाड़ी गोल मूली, कद्दू की बेल की कोपलों आदि की मिक्स सब्जी भी बनाने की परंपरा है। बरसात के मौसम में कोमल और नयी बंद कोपलों/पत्तियों की सब्जी भी इस दिन विशेष रुप से बनाई जाती है। इस अवसर पर किसी न किसी रुप में घी खाना अनिवार्य माना जाता है, इसलिए लगड़ (पूरी), पुवे, हलवा आदि भी प्रसाद स्वरूप शुद्ध घी से ही तैयार किए जाते हैं। गाय के दूध का घी जिसे स्थानीय भाषा में गै-घ्यूँ कहते हैं, को प्रसाद स्वरुप सिर पर रखा जाता है और छोटे बच्चों की तालू (सिर के मध्य) में भी मला जाता है। यह माना जाता है कि भोजन के साथ ही सिर पर गै-घ्यूँ मलने से बच्चे शरीर के साथ ही मस्तिष्क से भी मजबूत होता हैं।
घ्यूँ-त्यार का महत्त्व:
घ्यूँ-त्यार (ओलगिया) हरेला की तरह मूलतः एक ऋतु एवं कृषि पर्व माना जाता है और इस दिन स्थानीय मौसमी कृषि उपजों का उपभोग और आपस में अद्दन प्रदान होता है। इसमें स्थानीय समाज विशेषत: घर के पारिवारिक सदस्यों व उनमें भी बच्चों को पोषक तत्वों की भरपूर मात्रा देकर उन्हें पुष्ट बनाने का भाव है। हरेला जहां बीजों को बोने और वर्षा ऋतु के आगमन का प्रतीक त्यौहार है, वहीं घ्यूँ-त्यार (ओलगिया) बीजों के नई फसलों में बालियों के रूप में पुष्ट होने-लहलहाने पर उत्साहपूर्वक मनाया जाने वाला लोक पर्व है। इस पर्व तक फसलों के साथ ही पहाड़ों में अखरोट, सेब, माल्टा, नारंगी आदि ऋतु फलों के पुष्ट होने के साथ ही ककड़ी (खीरा), लौकी व तुरई आदि बेलों पर लगने वाली सब्जियां उपभोग हेतु तैयार होने लगती हैं।
इस पर्व के समय में बरसात के दिन होने के कारण पशुओं के लिए पर्याप्त मात्रा में हरी घास के चारे की भी प्रचुर मात्रा में उपलब्धता रहती है। गौठों-छानों में गाय-भेंस खूब दूध दे रहे होते हैं, जिस कारण घर में दूध, दही, घी-मक्खन भी भरपूर होता है। दूसरी ओर बारिश के मौसम में नमी में संक्रामक रोगों की आशंका भी सिर उठा रही होती है, ऐसे में पहाड़ के लोग फसलों के पकने और घर में भरपूर पशुधन की उपलब्धता से आनंदित हो घी-त्यार या घी-संक्रांति मनाते हैं। बरसात की नई फसल के फलों, सब्जियों, भुट्टे आदि को तो भी इसी दिन से खाना शुरू करने की परंपरा है।
अन्य प्रभाव:
अर हम ज्योतिष परम्पराओं को देखें तो अगस्त माह की इस अवधि में राहु कर्क में व केतु मकर राशि में प्रवेश करता है तथा सूर्यदेव ने भी राशि परिवर्तन करते हैं जिसे सिंह संक्रांति कहते हैं और इस संक्रांति में घी के सेवन का विशेष महत्व है। राहु और केतु के स्थान परिवर्तन से जीवन पर असर होता है क्योंकि राहु व केतु पूर्व जीवन के कर्मों के अनुसार फल देते हैं। ऐसा माना जाता है कि राहु-केतु के बुरे प्रभावों से बचने के लिए शनिवार को सात्विक रहने तथा हनुमान जी को लाल फूल व मिठाई चढ़ाने से राहत मिलती है।
आयुर्वेद में चरक संहिता के अंतर्गत यह वर्णित है कि गाय का शुद्ध (गौ घृत) अर्थात देसी घी स्मरण शक्ति, बुद्धि, ऊर्जा, बलवीर्य, ओज बढ़ाता है, गाय का घी वसावर्धक है तथा वात, पित्त, बुखार और विषैले पदार्थों का नाशक है।
सभी के उत्तम स्वास्थ्य व समृद्धि प्रदान की आकांक्षा में घ्यूँ-त्यार (ओलगिया) की हार्दिक शुभकामनाऐं।
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