
अमृत कलश - कुमाऊँनी श्रीमद्भगवतगीता
स्व. श्री श्यामाचरणदत्त पन्त कृत श्रीमद्भगवतगीता का कुमाऊँनी पद्यानुवाद
पछिल अध्याय-०२ बै अघिल
तिसर अध्याय - कर्म योग
अर्जुन बलाण
तुमरे मत में जब कर्मन है बुद्धि श्रेष्ठ छऽ जनार्दनऽ।
क्ये हूँ तब ये घोर कर्म में मकैं लगूँछा हो केशव!।01।
दुविधा का इन वचनन कैं सुणि बुद्धि मोह में पड़ि जाणै।
ऐकै बात बताओ जे लै निश्चय प्राप्त श्रेय है जौ ।02।
श्री भगवान बलाण
चली लोक में द्वि निष्ठा छन पैली मेरी कई निष्पाप!
ज्ञान योग छ सांख्य वालन को कर्म योग योगिन को छ।03।
कर्मन को आरंभ नि करि क्वे पुरुष नि हुन निष्कर्म कभैं।
या केवल सन्यास ल्हिणा लै सिद्धि प्राप्त नी इहे सकनी ।04।
कोई लै क्षा एस नी जानो बिना कर्म क्वे रै जाऔ।
प्रकृति गुणन का कारएा परबस सबनै कर्म करण पड़नी।05।
कर्मेन्द्रिय कँ रोकी द्यो, पर मन में करी विषय चिन्तन।
यै भै विषय विमूढ़ चित्त सब, मिथ्याचार कई जरँ पै ।06।
मन का द्वारा जो इन्द्रिन कैं नियमित करि दीं छऽ अर्जुन!
कर्मेन्द्रिन लै कर्मयोग करि, अनासक्त ऊ श्रेष्ठ भयो ।07।
नित्य कर्म कैं करनै रौ निज भाल भै कर्म अकर्मन है।
यो शरीर यात्रा ले तेरी हई नि सकनी अकर्मन लै ।08।
यज्ञ कर्म का सिवा और सब कर्म लोक हूँ बन्धन छन।
वी की तैं कौन्तेय! कर्म तू करनै रौ आसक्ति रहित।09।
यज्ञ साथ जब प्रजा रची तब कयो प्रजापति लै एसिकै।
इन यज्ञन बै तुमरिवृद्धि हो, इष्ट कामना पूर्ण हुनऽ ।10।
देव भावना करी यज्ञ करि तुमर देवता भाव धरन।
इनै परस्पर का भावनलेपरम श्रेय की प्राप्ति होली ।11।
अन्न धन, सन्तति सन्मति दिनी देवता यज्ञ बटी।
उनरै दियो उनन नि दिन जो भोगनी ऊँ सब चोर छन।12।
यज्ञ है बची अन्न जो खानी मुचित हुनी सब पापन बै।
आपणै खाण् हूँ चुलि जो फुकनी ऊँ पापी त पाप खानी।13।
अन्न बटी उपजीं सब प्राणी, अन्न उपज पर्जन्य बटी।
समय में हूँ पर्जन्य यज्ञ लै, यज्ञ सिद्ध हूँ कर्म करी !14।
कर्म ब्रह्म बै हई समझ तू, ब्रह्म उदय भै अक्षर बै।
सदा सर्वगत ब्रह्म यै वीलै, नित्य यज्ञ में बैठी भै ।15।
ये प्रकार यो चली यज्ञ कैं जो जनअघिल चलूने न्हा।
छऽ इन्द्रिय लोलुप उ पापी, पार्थ! व्यर्थ ही ज्यून रयो।16।
जै की रति मति छऽ आत्मा में आत्मा में जो मानव तृप्त।
आत्मा में संतोष जैक छऽ वीक कती क्ये कामै न्हा।17।
वीक प्रयोजन न्हाति कर्म में, उसै प्रयोजन हीन अकर्म।
सब प्राणिन का साथ कती कैं, वीक कोई लै मतलब न्हा।18।
यै वीलै तू अनासक्त रौ करणी कम्र सदा ही कर।
अनासक्त आचरणकरण पर पुरुष परम पद प्राप्त हुँ छऽ।19।
यो ही विधि सब कर्म करण पर, जनक आदि लै सिद्ध भईं।
पुनः लोक हित कैं देखी लै करणी कर्मकरण चैनी ।20।
जस जस करनी श्रेष्ठ लोग सब, उस उस और लोग करनी।
उनरै कर्म आचरण देखी लोक उसै अनुकरण करौं। 21।
न्हाति पार्थ! कर्तव्य कती कुछ तीनलोक में मेरी तैं।
क्ये न्हा मेराप्राप्त करण हूँ, फिरिलै देख म्ें कर्म करूँ ।22।
बिन आलस्य करण कर्मन को, अगर पार्थ में तयसाग करूँ।
मेरो ही अनुकरण करण हूँ सबै मनुष्य उसै करला।23।
यदि मैं कर्म नी करूँ तो यो लाक समस्त भ्रष्ट हे जाल्।
वएा्र संकरन कै पैद करूणी, प्रजा हनन करणी है जूल ।24।
जसि कै सब कर्मन कें करनी कर्म लिप्त अज्ञानी जन।
उसी कैकरण चैंछ ज्ञानी लै कर्म लोक संग्रह की तैं।25ं।
बुद्धिभेद उपजूण नि चैनो ज्ञानिन लै अज्ञानिन में।
उचित कर्म में लगै दिणो चैं, अपना योग आचरण लै।26।
प्रकृति करें सब गुण का कारण कर्म हुनीइकुछ आपण आफी।
अहंकार माहित विमूढ़ पर समझि ल्हि छऽ मैं कर्ता छूँ।27।
महाबाहु! पै तत्व समझणी, गुण कर्मन कँ अलग समझि।
गुणैं कर्मन में रमण करणईं, यो जाणी आसक्त नि हुन।28।
प्रकृति गुणन लै मोहित जन जब, गुण कर्मन में लिप्त हुनी।
ज्ञानी लै उन मूढ़ जनन कैं विचलित कभैं नि करणो चैन।29।
वासुदेव परमेश्वर में सब निज कर्मन को करि अर्पण।
आशा ममता रहित युद्ध कर मन में कोई ताप नि धर।30।
मेरो यो मत मानीइजो जन नित्य आचरण करना छन।
दोष निदचे श्रद्धा धरि यै में, ऊँ लग बन्धन मुक्त हुनी।31।
शंका करनी अवगुण देखनी कभैं नि चलन मेरा मत में।
महामूढ़ ऊँ सब अविवेकी नष्ट हई छन समझि ल्हियै ।32।
प्रकृति गुणन वश बरबस चलनी क्ये ज्ञानी क्ये मूढ़ सदा।
सबै जीव छन बँधी गुणन लै, को, के निग्रह की सकौं। 33।
राग द्वेष लुकिया बैठी छन इन्दी औ विषयन का बीच।
इनरा वश में हुण नी चैनो श्रेय मार्ग का यो बटमार।34।
छऽ स्वधर्म गुण रहित श्रेयकर, सुखदायी पर धर्म हे बेर।
मरण भला अपणा स्वधर्म में, पर परधर्म भयावह भै। 35।
अर्जुन बलाण
कै को पे्ररित करी हुई जस् किलै पुरुष यो पाप करौं
कृष्ण अनिच्छा हुण पर लै यो जबरन कै को भेजी हुई।36।
श्री भगवान बलाण
यो छऽ काम, क्रोध लै यै छऽ, भे उत्पनन रजोगुण बै।
सबन खै दिणी बड़ पापी छऽ यै कैं ही तू बैरि समझ ।37।
धूँ ढकि दीं जसि के ज्वााला कैं धूल ढके जस दप्रण कैं।
खुस्याल भितर जस बीज ढकी रूँ, उसै ढकी छऽसब यै लै।38।
सबै ज्ञान ढकियो छऽ यै ले, नित्य बैरिया ज्ञाता को।
काम रूप में कौन्तेय! यो, ज्वाला कभैं तृप्तनि हुनि।39।
इन्द्रिय मन औ बुद्धि यैक छन अधिष्ठान बसणा का थान।
इनन विमोहित करि यो ढकि दीें, सबै ज्ञान सब लोगन को।40।
यै वीले तू सबन है पैली इन्द्रिय वश में करि अर्जुन!
मार काम कैं, यो पापी छऽ ज्ञान ध्यान यै नाश करौं।41।
स्थूल भूत है इन्दिय पर छन, इन्द्रिय है मन और परे।
मन है लै परे बुद्धि कई गे, और बुद्धि है परे छ ऊ।42।
जाणि वी कैं जो बुद्ध परे छऽ आत्मा लै आत्मा जय करि।
महा बाहु! तू मारी दे यो काम रूप दुर्जय रिपु कैं।43।
कृमशः अघिल अध्याय-०४
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