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अमृत कलश - कुमाऊँनी श्रीमद्भगवतगीता (चौथूं अध्याय)

श्रीमद्भगवतगीता का कुमाऊँनी पद्यानुवाद, Poetic interpretation of ShrimadBhagvatGita in Kumaoni Language, Kumaoni Gita padyanuvad

अमृत कलश - कुमाऊँनी श्रीमद्भगवतगीता

स्व. श्री श्यामाचरणदत्त पन्त कृत श्रीमद्भगवतगीता का कुमाऊँनी पद्यानुवाद

पछिल अध्याय-०३ बै अघिल

चौथूं अध्याय - ज्ञान कर्मसन्यास योग


श्री भगवान बलाण-
मैंलै विवश्वान थें कौछी यो अविनाशी योग अघा।
विवश्वान लै सिखा यो मनु कैं मनुल कौछ् इश्वाकु थें यो।01।

यै प्रकार यो परंपरा बट, राजर्षिन लै यसेग जाणो।
भौत काल बित, वी योगऽ को लोप हई गो अब अर्जुन।02।

आब मैं फिर वी पुराण योग कैं तुकैं बतैं दी यै वीलै।
तू मेंरो प्रिय सखा भक्त छै, सब रहस्य है उत्तम यो।03।

अर्जुन बलाण
अब को छऽ यो जन्म तुम्हारो विवश्वान ऊँ-कब का भै
यो धैं कसिकै समझी जालो, तुमुल आदि मंयोगसिखै।04।

श्री भगवान बलाण
बहुतै जन्म बाति गईं मेरा, औ तेरा लै, हे अर्जुन।
मकैं याद छऽ उन सबनै की, तुकैं याद न्हे कुन्ती नन्दन।05।

अज अविनाशी आत्मा छूँ मैंए सब प्राणिन को ईश्वर छूँ।
एस हुण पर लै स्वयं प्रकृति कैं ग्रहण करी मैं जन्म ल्हिछूँ।06।

जब जब धर्मग्लानि है जैं छऽ और अधर्म बड़ौं भारत!
तब तब धर्मविकास करण हूँ, आफी मैं अवतार ल्हि छूँ।07।

साधुन को उद्धार करण हूँ औ विनाश करि पापन को।
ध्र्म थापना करणैं की तैं फिरि युग युग में मैं प्रकट हूँछूँ।08।

दिव्य जन्म कर्मन का मेरा जो जन तत्व समझि जानी
देह त्याग करणा पर फिरि ऊँ, कभैं जन्म नी ल्हिन अर्जुन।09।

वीतराग, भय रहित क्रोध बिन, मैं मय मेरी शरण हई।
ज्ञान तपस्या लै पवित्र जन म्यारै भाव अई गयीं।10।

जो जसिकै भजनो छऽ मैं कन, मैं लै वी कैं उसै भजूँ।
कसिकै हो, सब मेरी तरफ हूँ, पुरुषअई जानी अर्जुन।11।

फल की अभिलाषा करि बेरै, जो पुजनी उन द्याप्तन कैं।
यै मनुष्य लोकै में जल्दी सिद्धि मिलैं उन कर्मन की।12।

गुण कर्मन का भेद मुताबिक म्यारै रची छन चारों वर्ण।
कर्ता हुण पर लै मैं उनरो, कता्र न्हातूँ अव्यय छूँ।13।

मकैं कर्म को लेप नि हुन कुछ फल की मैं के तृष्णा न्हा।
ऐसो मैं कन जो समझौ वी लग कर्म लेप नि हुन।14।

ऐस्सै जाणी सब साधक लै कर्म सदा वै करन रईं।
यै वीले कमै। कर तू लै, परंपरा बै चली आई ।15।

क्ये छऽ कर्म? अकर्म क्ये भयो? भाल् भाल् लै यै समझि नि पै।
मैं समझै द्यूँलो, समझी तू अशुभ बै मुंचित हई जाले।16।

कर्म समझ ल्हिण चैनी तब फिर, समझण चैनी क्ये भै विकर्म?
फिर अकर्मसमझण चैं भलिकै, अत्ती गहन कर्म गति छऽ।17।

कर्मन में देखी अकर्म जो, औ अकर्म में कर्मन कैं।
वी विद्वान मनुष्यन में छऽ, वीकै कर्म कृतार्थ भईं।18।

जैका सब उद्योग सदा ही, फल इच्छा हेरहित हुनी।
ज्ञान अग्नि में भस्म कर्म सब, बुध वी थैं पंडित कूनी।19।

कर्म फलै आसक्ति त्याग करि, आश्रय छोड़ि, संतुष्ट सदा।
कर्मन करनै रूणा पर लै, कत्ती कैं क्ये करने न्हा।20।

आशा रहित, चित्त आत्मा वश, सबै परिग्रह छाड़िी हुई।
सिर्फ देह का कर्म करण पर ऊ पापन कै प्राप्त नि हुन।21।

जो मिलि जाँ संतुष्ट छ वी में,द्वन्द्व रहित औ मत्सर हीन।
सिद्धि असिद्धि एकनसी जै छऽ कर्म करण पर लिप्त नि हुन।23।

संग रहित जो मुक्त पुरुष छ, ज्ञानै में थिर चित जै को।
यज्ञन कैकरणै रूणा पर, कर्म समग्र विलीन हुनी ।24।

ब्रह्म छ अर्पण ओर ब्रह्म हवि ब्रह्उ अग्नि औ आहुति ब्रह्म।
सब प्रकार ऊँ हई ब्रह्ममय, ब्रह्म कर्म छ, ब्रह्म समाधि।24।

यज्ञ अनेकन देवन का हित विधि लेकरनी योगी जन।
एक यज्ञ छ ब्रह्म अग्नि में, यज्ञान को करि दीनी हवन।25।

कान आदि इन्द्रिन को कोई संयमाग्नि में करनी होम!
शब्द आदि विषयन को कोई इन्द्री आग में करनी होम।26।

सब इन्द्रिय का कर्मन साथै, प्राण कर्म कैं लै क्वे जणि।
आत्मरोध की योग अग्नि में होमनी ज्ञान प्रज्वलित करि।27।

द्रव्य यज्ञ क्वे, तपो यज्ञ क्वे, योग यज्ञ करनी क्वे क्वे।
ज्ञान यज्ञ स्वाध्याय सहित क्वे, करनी यति जन कठिन व्रती।28।

क्वे अपान में प्राण होम दिनी, प्रणन बीच अपान कोई।
प्राण अपान चलण रोकि दीनी, प्राणयाम प्रवीण कोई।29।

क्वे आहार छीण करि करनी प्राणन मं प्राणन को होम।
सब प्रकार यज्ञन कैं जाणणी, यज्ञै करनीइपाप विनाश।30।

यज्ञ प्रसाद अमृत का भोजी, पुजनी ब्रह्म सनातन में।
यज्ञहीन को योई लोक न्हा, परलोकै की बात क्ये भै।31।

यै प्रकार विस्तार पार नै उदित वेद ब्रह्मा मुख बै।
कर्म करी सम्पनन हुनी सब यो जाणी तू मुक्त होलै।32।

सबै द्रव्यमय यज्ञन हैं छऽ उत्तम ज्ञान यज्ञ अर्जुन!
सबै तरफ बै कुल कर्मन की, पार्थ! ज्ञान में हुँ छऽ समाप्ति।33।

विनय प्रणाम और सेवा करि सिख वी ज्ञान प्रश्न करि करि।
ज्ञानी गुरु आचार्य तत्वविद् तुकैं सिखै देला ऊ ज्ञान।34।

जै कर जाणी पुनः कभैं लै, यसो मोह नि हो अर्जुन!
तब अशेष प्रणिन कैं देखलै आपणि आत्मा में,मैं में।35।

यदि तू घोर घोर पापिन मे महा घोरतम पापी हो।
तब् लै ज्ञान रूप नैया ल्ही, पाप समुद्र तरी जालै।36।

जसिक प्रज्वलित अग्नि काठ कैं, भस्मसातकरि दीं अर्जुन।
ज्ञान अग्नि सब्बै कर्मन कैं भसम करी दीं छऽ उसिकै।37।

ज्ञान समान कती क्ये न्हाती पावन किरणी यै जग में।
योग सिद्धि का समय स्वयं ही अनुभव है जाँ रग रग में।38।

वश करि इद्रिन, साधन तत्पर, श्रद्धावान कै ज्ञान मिलौं।
ज्ञान प्राप्त करि परम शान्ति लै, वीको वी क्षण कमल खिलौं।39।

श्रद्धा रहित और अविवेकी संशय ग्रसित त् नष्ट हुँ छऽ।
संशय ग्रसित न सुख पै सकनो, द्वियै लोक है भ्रष्ट हुँ छऽ।40।

योग में करि अर्पण कर्मन को काटौ ज्ञान लै सब संशय।
आत्मवन्त को कोई कर्म तब, बन्धन नी हुन धनंजयऽ।41।

यै वीलै अज्ञान बै उपजी, बैठी हृदय में जो उद्धत!
ज्ञान खड्ग ल्ही काट् िऊ संशय, बैठ योग में उठ भारत!42।

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