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अमृत कलश - कुमाऊँनी श्रीमद्भगवतगीता (दुसर अध्याय)

श्रीमद्भगवतगीता का कुमाऊँनी पद्यानुवाद, Poetic interpretation of ShrimadBhagvatGita in Kumaoni Language, Kumaoni Gita padyanuvad

अमृत कलश - कुमाऊँनी श्रीमद्भगवतगीता

स्व. श्री श्यामाचरणदत्त पन्त कृत श्रीमद्भगवतगीता का कुमाऊँनी पद्यानुवाद

पछिल अध्याय-०१ बै अघिल

दुसर अध्याय - सांख्य योग

संजय बलाण
दशा बड़ी दयनीय हई भै अश्रुभरी आँख दुःख मुनी,
शोक छई अति वी अर्जुन प्रति मधुसूदन यो वचन बलाण।01।

काँ बट यो अज्ञान मोह भै, संकट विकट समय अर्जुन।
बदनामी जड़ चैपट धरणी, घोर अधोगति करणी यै।02।

अरे पार्थ तू नि हो नपुंसक, यति यो त्वे शोभा नि दिन।
छोड़ यो तुच्छ हृदय दुर्बलता, अरे परंतप ठाड़ उठ रे।03।

अर्जुन बलाण
कसिक भीष्म कैं, कसिक द्रोण कैं, रण में मारूँ मधुसूदन!
कसिक बाण ल्ही युद्ध करुँल जो पूजनीय छन अरिसूदन।4।

मारूँ महात्मा इन गुरुजनन कैं, यै है भलोभीख मांगि खूँ दुनी में
हुन अर्थकामी गुरुन मारणा पर, इनार् ल्वे में सानिया भौगै त भोगुला।05।

यो लै नि जाणना क्ये में भला छ, जय हो हमरि या उनरी विजय हो।
जनन बिना हम रूणै नि चाना, ऊँ लाड़िला सब लड़ैं हूँ अड़ी छन।06।

स्वभाव मेरोमलिन क्षीण है गो, कर्तव्य की तैं ऐसो मोह है गो।
जे श्रेय छ उ निश्चित बताओ, प्रभो! शिष्य छूँ मैंतुमरी शरण दूँ।07।

सुकै दिणी दाह दुख देह को यो, जालो कसिक क्ये समझे नि ऊनो।
यै लोक का राज्य सुख भोग साथै, सुरलोक प्रभुता पे ले नि जालो।08।

संजय बलाण
गुड़ाकेश लै हृषीकेश कैं आपणा ऐसि कै वचन सुणै।
’हे गाविन्द मैं युद्ध नि करन्यू’ कइ्र मौन ऊ हई गयो।09।

तब बलाण फिर हृषीकेश वाँ, हँसनि मुखड़ि लै ’हे भारत’!
द्वि सेना का बीच का बीच खिन्न मन बैठी अर्जुन थैं ऐसिकै।10।

श्री भगवान बलाण
तू अशोच को शोच करै फिर ज्ञानिन की जै बात करै।
ज्ञानी यै को शोक नि करना चाहू कोई बचै मरौ।11।

मैं, तू औ यो सब राजा जन पैली नि छिया - एसो न्हाती,
एस लै न्हा- अब पछा अघिन हूँ, हमन में कोई नी रौलो।12।

देही का पै देह मं जसिकै बचपन ज्वानी बुढ़ाप हुँ छ।
उसीकै दुसरो देह मिलण पर कभैं वीर कैं मोह नि हुन।13।

मात्रास्पर्श त कौन्तेय! छन ठंड गरम सुख दुख दिणियां।
ऊनी जानी अनित्य कईनी इनन सहन कर हे भारत।14।

जै कैं सब यो मथित नि करना पुरुषश्रेष्ठ! वी पुरुष भयो।
सुख दुख में वी धीर, एकरस अमृतकलश कैं उठै सकौं।1ं5।

असत कभैं छन हे नि सकनो सत उस्सी कै निछन नि हुन।
इन द्वीनों को अन्त समझनी, जाणनी तत्व तत्वदर्शी।16।

अविनाशी तू पछाणि ल्हे वी कैं, जै बट सब यो फैलि रछौ,
वी अव्यय को नाश करण हूँ कोई लै कैं समथ्र न्हांति।17।

नश हुणी यो सबै देह भै स्वामी तन को नित्य कईंछ,
अविनाशी औ अप्रमेय छ, यै वी लै तू लड़ भारत!।18।

जो यै कैं मारणी बतूँछ और जो यै थैं मरिगो कूँछ,
यो द्वियै क्ये जाणने न्हातन मारन न्हाँ, ऊ मरनै न्हा।19।

न जन्म ल्हीनो न मरनो कसीकै, ऐसो लै न्हा ऊ है फिरि नि होलो।
नित्यै अजन्मा छ शाश्वम पुराणो, शरीर छुटि जाँ पै ऊ अमर छे।20।

जैल् जाणि हाल्छ पुरुष भितर यो, अज अविनाशी अव्यय छ।
की धैं पार्थ कसिक पुरुष ऊ, कै मारल? कै मरवै द्योल्?।21।
वस्त्रन पुराणा जस्सिकै छोड़ी, नयां दुसर सब नर पैरि ल्हीनी।
उसी कै जरजर शरीर त्यागी, कोमल नयां कै धरि ल्हीं छ देही।22।

नि काटिसकन हथियार कोई ले, नि जले सकनो आग वी कैं।

निइगलैसकनो पाणि कस्सी कै, नि शोखि सकनों हवा वी कैं।23।


यो नि फटणी यो नि जलणी, नि भिजणी, नी सुकणी छ।
नित्य सर्वगतथिर रूणी छे, अचल सनातन यो ई छे।24।

यो अव्यक्त अचिन्त्य कई जाँ, पुरुष भितर अविकारी छ।
ऐसो ये कन पछाणि भली कै, शोक करण तेर हूँ कसिकै?।25।

यदि तू समझै सदाजन्म ल्हीं, और सदा यो मरनै रूँछ।
तब लै महाबाहु! कस्सी कै, शोक करण तेरो उचितै न्हाँ।26!

जन्मल्हिणी निश्चय ही मरलो, मरी लै फिरि फिरि जन्म ल्हेलो।
यै को जब परिहार न्हाति क्ये, शोच करण तेरो कसिके हूँ।27ं।

सब प्राणी अव्यक्त छि पैली, बीचम है गीं देखां भरत।
पछा मरण पर फिरि लुकि जाला, तब चिन्ता क्ये बातै भै।28।

आश्चर्य जस् क्वे यै देखनो छकोई, दुसर यै आश्चर्य कूँ छ ऽ।
आश्चर्य यै कन फिरि क्वे सुणन्छ ऽ, देखि कै सुणी लै यै क्वे नि जाणनो।29।

देही को वध हई नि सकनो सबने देहन में भारत।
सब प्रणिन की तैं यै वीले शोक करण तेरो उचितै न्हा।30।

देखि आपणों कुल धर्म लै त्वे कैं, हिम्मत हारी कामण नि चैन।
क्षत्रिय की तैं धर्म युद्ध है, श्रेयस्कर कत्ती क्ये न्हा।31।

आापण आफी मिलि गई एती कैं, स्वर्गा दरवाज खुली हुई,
भाग्यवान छन जो क्ष्त्रिय जन, उननै मिलनी युद्ध यसा।32।

अगर हनि मानलै आपण धर्म तू, और नि करलै युद्ध भलिक।
करि अधर्म अपकीर्ति कमालै, तब जै लागोल पाप कतुक।33।

जो अपकीर्ति सब लोग उठाला, अघिलैं तैं ले अमिट होली।
सेंभावित अकीर्ति है तऽ, मौत भौत ही भली भई।34।

डर गो अर्जुन रण बै भाजि गो, कर्णादिक सब महारथी।
कौल जबै तब मान रौल काँ? हलकी है जालि कतुक तेरी।35।

वाक्य कुवाक्य कौल बहुतै जब, तेरा विरुद्ध तेरा रिपु लोग।
पौरुष कीलै निदा करला, यै है ठुल दुख और क्ये हो?।36।

मरि जालै सिद स्वर्ग हूँ जालै, जीत इहोली ज राज करै।
यै वीलै उठ! कोन्तेय! तू, युद्ध करणौं करि निश्चय।37।

विजय पराजय लाभ हानि में, सुख दुख एकनससे करि ल्हे।
यै प्रकार यदि युद्ध में जुटि जा, कभैं नि लागि सकला त्वे पाप।38।

याँ तक यो सब ज्ञान कई गो, बुद्धि योग आब अघिन हूँ सुण।
जै योगा अनुसार पार्थ! तू, कर्मा बन्धन काटि देलै।39।

नाश नि हुन आरंभ करी को, विघन अघिल लै है नि सकन।
अल्प लै पालन करी धर्म यो, तारण करौं महा भय बै।40।

व्यवसायात्मिक निश्चय करणी, एक बुद्धि हूँ कुरु नन्दन!
अन्त अनि मिलणी बहुतै शाखा, अव्यवसायिप् मति की छन।41।

लोभ देखूणी कुसुमित वाणी, कूनी यै सब अविवेकी।
वेद वाद रत कर्म कांड में, अघिन और कून्हीं के न्हा।42।
स्वर्ग और सुख भोग लालसा, जन्म कर्म फल दिणी सदा।
मनो कामना पूर्ण करूणी, अनुष्ठान बहुतै करनी।43।

लिप्त सदा ऐश्वर्य भोग में, चित्त विवेक सब हरी हुई।
व्यवसायात्मिक बुद्धि की उनरी, लागि नि सकनी समाधि कभैं।44।

त्रिगुण भरी छन वेद विषय सब, त्रिगुण रहित हो तू अर्जुन!
सतोगुणी निद्र्वंद्व सदा रौ, आत्म निष्ठ हो सिद्धि तजी।45।

चारै तरफ पाणी पाणि है जौ, धार् नौलन को तब क्ये काम।
ब्रह्मज्ञान है जाण पर उसिकै, सब वेदन की छऽ के बात?।46।

छऽ अधिकार कर्म को तेरो, फल पर कोई हाथै न्हा।
कर्म फलन को हेतु नि हो तू, कर्म त्याग में लिप्त नि हो।47।

योग युक्त हो कर कर्मन कैं, फलासक्ति छोड़ि धनंजयऽ!
सिद्धि असिद्धि प्राप्ति में सम हो, यो समत्व ही योग कईं।48।

कतर्म सबै अति तुच्छ कईनी, बुद्धियोग बिन कुरु नन्दन।
अहो! बुद्धि की शरण ग्रहण कर, फल इच्छा धरि कृपण नि बण।49।

भल नक पाप पुण्य द्वीनै है, बुद्धि युक्त यैं पार हुनी।
यै वीलै तू यसो योग धर, योग सुकौशल कर्मन को।50।

कर्मन बै उत्पन्न फलन कैं, बुद्धि युक्त ज्ञानी तजनी।
जन्म जनितबंधन है छुटनी, जय करि अभय अनामय पद।51।

अब तेरो यो माह कलिल है, बुद्धि भली कै पार होली।
आफी तुकैं वैराग्य हई जाल्, सुणी सुणण लायक है तब।52।

श्रुति लै विचलित हइ्र बुद्धि तेरी, जब थिर और अचल हे जौ।
अटल समाधि तबै है सकला, तबै योग त्वे प्राप्त होलो।53।

अर्जुन बलाण
स्थितप्रज्ञ की के परिभाषा, केशव! उनरि समाधि के भै।
कसिक बलानी कसिक बैठनी, कस आचरण उनोर हुँछ हो।54।
श्री भगवान बलाण
जब संपूर्ण कामना छोड़ दीं, जो मन में उठनी छन पार्थ!
आत्मनिष्ठ जो आत्मतुष्ट हूँ, वी स्थितप्रज्ञ कई जाँछ।55।

दुख में कुछ लै दुखी नि हुन मन, सुखै कभैं लालसा नि हुनि।
क्रोध राग भय विगत हुँछऽ जो, वी मुनि ही स्थितप्रज्ञ कईं।56।

शुभ या अशुभ प्राप्त हो जति कति, जो सर्वत्र छ स्नेह रहित।
अभिनन्दन याद्वेष नि करनो, वी की बुद्धि प्रतिष्ठित छऽ।57।

हाथ खुटन कैं जसी कै कछुवा, खैंचि ल्हीं आपणै आंड. भितर।
इन्द्रिन कैं जो विषय बै खैंचै, वी की बुद्धि प्रतिष्ठित छऽ।58।

निराहार का विषय छुटण पर, भितरराग त छुटनै न्हा।
यो रस राग तबै छुटलो जब, आत्मा दर्शन है जाला।59।

कौन्तेय! जो यत्नवान नर, इन्द्रिन कैं वश करणों चाँ।
प्रबल और उद्धत यो इन्द्रिय, खैंचि ल्हीनी वी का मन कैं।60।

उन सबनै कैं संयम में धर, थिर कर चित्त मेरा आधार।
जैका वश में छन सब इन्द्रिय, वी की बुद्धि प्रतिष्ठित छ।61ं।

जो नर कर चिन्तन विषयन को, है जालि विषयन मंें आसक्ति।
यो आसक्ति उपै देलि इच्छा, इच्छा कारण उपजल क्रोध।62।

क्रोध बै हूँ सम्मोह, और सममोह करै दीं स्मृति विभ्रम।
स्मृति विभ्रम लै बुद्धि नाश हूँ, सर्वनाश भै बुद्धि विनाश!63।

राग द्वेष है रहित हुणा पर, इन्द्रिय विषयन में विचरौ।
आात्म प्रीति में ऊ निमग्न मन, आत्म प्रसाद प्राप्त करि ल्हीं।64।

आत्म प्रसाद प्राप्ति लै है जाँ, सबै दुखन को पुर विनाश।
सदा प्रसन्न चित्त रूणा पर, वी की बुद्धि सदा थिर रूँ।65।

जो अयुक्त छऽ वीक बुद्धि न्हां, और भक्ति भावना लै न्हा।
बिना भावना शान्ति नि मिलनी, शान्ति बिना काँ बै सुख हूँ।66।

इन्द्रिन का भोगन का साथै, जै को मन लै लागियै रूँ।
वीकी बुद्धि हरण है जां जस्, वायु नाव को बाट हरि दीं।67।

महाबाहु! अतएव जैकि छन, सब प्रकार वश में करिया।
यों इन्द्रिय उनरा विषयन है, वी की बुद्धि प्रतिष्ठित छऽ।68।

जो छ रात सबै प्रणिन की, संयमि को वाँ जाग्रण हूँ।
जतकै जागनी सबै जीव जन, मुनि वी कैं जै रात देखों!।69

सब ठौर भरपूर मर्याद वाला, समुद्र में जसि कै नदी अटानी।
उसीकै कामादि जेमें बिलै जौ, वी शान्ति पालो न काम कामी।70।

पुरुष छोड़ौ जो सबै कामना, और सदा ऊ निस्पृह रूँ।
बिन अभिमान बिना ममता हूँ, शान्ति प्राप्त वी करी सकौं।71।

पार्थ यसी यो ब्राह्मी स्थित छऽ, जै कैं पाई मोह नी हुन्।
अन्त समय में लै जऽ तऽ, प्राप्त ब्रह्म निर्वाण हुँ छ।72।

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