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अमृत कलश - कुमाऊँनी श्रीमद्भगवतगीता (पाचूँ अध्याय)

श्रीमद्भगवतगीता का कुमाऊँनी पद्यानुवाद, Poetic interpretation of ShrimadBhagvatGita in Kumaoni Language, Kumaoni Gita padyanuvad

अमृत कलश - कुमाऊँनी श्रीमद्भगवतगीता

स्व. श्री श्यामाचरणदत्त पन्त कृत श्रीमद्भगवतगीता का कुमाऊँनी पद्यानुवाद

पछिल अध्याय-०४ बै अघिल

पाचूँ अध्याय - कर्म सन्यास योग


अर्जुन बलाण
कृष्ण! कती सन्यास कर्मको कैं फिर योग बतूँछा भल।
इन द्वीनै में एक बताओ, जैल श्रेय हूँ निश्चय भल ।01।

श्री भगवान बलाण
ल्हे सन्यास या योग कर्म कर, द्वियै छन परमार्थ दिणी।
किन्तु कर्म सन्यास है जाणियै कर्मयोग सविशेष भयो।02।

समझौ वी छ नित्य सन्यासी करौ न द्वेष न आकांक्षा।
महाबाहु! निद्र्वन्द्व रूँछ जो सहजै बन्धन मुक्त है जा छँऽ।03।

सांख्य योग में भेद बतूणी, बालक छन पंडित नी भै।
कोइ्र एक में थिर हो भलिकै दुहरो फल वी आफी मिलि जाँ।04।

जो पद प्राप्त हूँ सन्यासी कैं वी योगी कैं मिलि जाँ छऽ।
एकनससे सान्यास योग जो देखनो छऽ वी देखनो छऽ।05।

महाबाहु! सुण योग बिना तऽ, सन्यासी हुण बडै़ कठिन
योगयुक्त मुनि बहुतै जल्दी, ब्रह्म पूर्ण पद प्राप्त हुँ ऽ।06।

योगयुक्त ऊ पावन आत्मा, आत्माजयी जितेन्द्रिय हूँ।
सब प्रणिन में व्यापक आत्मा, कर्म करण पर लिप्त नि हुन।07ं।

मैं कुछ लै करनै न्हातूँ यो समझो योग तत्वज्ञानी।
देखनै, सुणनै, छ्वीणै सुंडऽणै, खै हिटि सिणपड़ि श्वास ल्हिनै ।08।

ल्हिनै दिनै औ हसन बलाणै, पकड़ि छोड़ि आँख टमकूणै।
यो समझन छ यो इन्द्रियगण निज निज काम में लागिया छन।09।

ब्रह्म में अर्पण करि कर्मन कैं, करी कर्म आसक्ति रहित
कभैं पाप में लिप्त नि हुन उ, पाणि में कमल पात जसिन्यात10।

केवल बुद्धि और मनन तन लै, अथवा केवल इन्द्रिन लै।
सदा कर्मकरनी योगी जन, आत्म शुद्धि करि संग छोड़ी।11।

योगी फल आसक्ति त्याग करि, परम शान्ति कै प्राप्त करौं
इच्छा कारण फलासक्त जन, याग बिना बाँधियै रूनी।12।

मनसा द्वारा सब कर्मन को करि सन्यास ऊ सुखी जयी।
नौ द्वारन वाल पुर में देही, कुछ लै करन करूनो न्हा।13।

न त् कर्ता कैं औ न कर्म कैं, लोकन को प्रभु रचनै छऽ
ओर न फल संयोग कर्म को गुण स्वभाव यै करनो छऽ।14।

विभु कै को क्ये पाप नि ल्हीनो औ न कै क्वे पुण्य ल्हिनो।
यो अज्ञान लै ज्ञान ढकी छऽ यै लै प्राणी मोहित छन।15।

क्वाठ को सब अज्ञान फाटी जाँ रात ब्याण जसि मति कैं।
ज्ञान दिवाकर जसै उदय हूँ चमकै धरौं परात्पर कैं।16।

वी में बुद्धि आत्मा वी में निष्ठा वीकि परायण वीक।
आवागमन उनर मिटि जाँ सब ज्ञान, दोष कल्मष हरि दीं।17।

विद्या विनयवान ब्राह्मण औ, गोरु हाथी कुकुरो चांडाल।
सबनै आत्म स्वरूप् समझनी पंडित समदर्शी हूनी।18।

ज्यूनै जन्म जगत जितियै छऽ सम स्वरूप् जनरो छऽ मन।
दोष उरहित समब्रह्म में निश्चल, परमब्रह्म में वी थिर छन।19।

सुखद मिलण पर हर्ष नि हुन क्ये, अप्रिय में उद्वेग नि हुन।
संशय रहित बुद्धि थिर वी की, जाणौ ब्रह्म वी ब्रह्म भयो।20।

बाह्य विषय आसक्ति हीन छऽ अन्तर में ही जै सुख छऽ।
ब्रह्म विदित वी योगी कैं छऽ अक्षय सुख वी प्राप्त हुँ छऽ।21।

स्पर्श जनित जो विषय भोग छन सब्बै दुःख योनि जन ऊँ।
हे कौन्तेय! ऊँ आदि अन्त वाल्, रमण उनन में बुध नि करन।22।

इन्द्रिनजिती समथ्र सह सकौं देह छुटण है पैलिक जो।
काम क्रोध उत्पन्न वेग कैं, योगी वी छ् सुखी वी नर।23।

अन्तर में ही सुखाराम छऽ, अन्तर में ही जोत जागी।
वी योगी निर्वाण प्राप्त छऽ ब्रह्म में लीन हई वी छऽ।24।

ऊँ सब परमेश्वर स्वरूप छन ऋषिगण क्षीण हई छन पाप।
द्वन्द्व विमुक्त जितेन्द्रिय छन जो, सब प्रणिन का हित में रत।25।

काम क्रोध बै मुक्त हई छन यती जनन का वश में मन।
सबै तरफ बै घन विदितात्मन, अनायास ऊँ ज्ञानी छन।26।

भैरा विषयन कैं करि भैरै, नेत्रन कैं करि भृकुटि भितर।
प्राण अपान समान करी द्यो नाक भितर जो चलनी स्वर।27।

इन्द्रिय मन औ बुद्धि वश करी मुनि जो मोक्ष परायण छऽ।
इच्छा भय औ क्रोध गया जाँ, मुक्त सदा हूँ तत्क्षण छऽ।28।

यज्ञ तपस्या को भोक्ता छूँ, मैं ही विश्व महेश्वर छूँ।
शान्ति प्राप्त हूँ यो जाणी, मैं, सब प्राणिन को प्रियवर छू!।29।

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